शोध आलेख - निम्नवर्गीय स्त्री के संघर्ष और शोषण की कहानी 'तिरिया चरित्तर' - अवनीश यादव

जन्म : 10 अगस्त 1995 सम्प्रति - शोधार्थी, हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय लेखन : 'साहित्य विकल्प', 'सृजन सरोकार', 'प्रयाग पथ', 'पाखी', 'अदहन', 'सुबह की धूप', 'परिकथा', 'अनुसंधान' पत्रिका व 'जनसंदेश टाइम्स', 'प्रभात खबर' समाचार पत्रों व एकाधिक लेख संकलनों में लेख, समीक्षा, साक्षात्कार व लघु टिप्पणियां प्रकाशित


                                                                                ------


समकालीन कथा परिदृश्य में शिवमूर्ति एक ख्यातिलब्ध, सक्रिय लेखक हैंइन्होंने न अभी अपनी लेखनी छोड़ी है और न ही पाठक इनके नए लिखे को पढ़ने की आस। यह भी सच है कि शिवमूर्ति जी ने लिखा बहुत कम है, महज़ दसग्यारह कहानियां और तीन उपन्यास लिखकर कथा जगत में जो नाम और स्थान बनाया वह विरले को नसीब होता है। इस तरह शिवमूर्ति 'मात्रा नहीं गुणवत्ता के कथाकार' हैं। यद्यपि इनके लेखन की शुरूआत भी बड़े अन्यमनस्क ढंग से हुई, "ज्यादा नहीं लिखना है। मैं तो बस यूँ ही-एक-दो फिल्म बन जाए, यही सोचकर लेखन में आया था।"१ इनकी यह आकांक्षा भी पूरी होती रही 'कसाईबाड़ा', 'तिरिया चरित्तर', 'तर्पण' आदि कथ्यों पर फिल्म भी बनी तो और कथाओं पर मंचन भी खूब हुआ। अभी हाल ही में (२१ फरवरी २०१९) इलाहाबाद विश्वविद्यालय के 'सीनेट हॉल' में 'यूनिवर्सिटी थियेटर' की ओर से कहानी 'सिरी उपमा जोग' का भव्य व ऐतिहासिक मंचन हआ, जिसे देखने के लिए शिवमति जी खुद उपस्थित थे। उन्होंने कथ्य की जटिलता के बावजूद भी मंचन की सफलता को सराहा था। बहरहाल इन्हीं कहानियों में शिवमूर्ति की एक बेहद चर्चित, मंचित और 'हंस' पत्रिका द्वारा पुरस्कृत उपन्यास के कलेवर की कहानी है 'तिरिया चरित्तर'। यह कहानी एक ग्रामीण निर्धन निम्नवर्गीय परिवार में जन्मी बेटी की अस्मिता की सुरक्षा, उसके जीवन संघर्ष और पुरुषों द्वारा स्त्रियों के विरूद्ध गढ़े गए मिथकों के पीछे भोगवादी मन की यथार्थ अभिव्यक्ति है, जिसे लेखक ने परिवार, समुदाय, परिवेश और समाज से जोड़कर दिखाया है। कथ्य की शुरूआत लोक की बोली-भाषा से होती है, "विमली! एक विमली! एकदम्मै मर गई का रे-यह हरजाई तो खटिया पर गिरते ही मर जाती है। मरघट ले चलौं का रे?"२ मात्र नौ वर्ष की लड़की विमली, भाई का घर से भाग जाने पर अपने बूढ़े मां-बाप की एकमात्र सहारा थी। इस परिवार की परिस्थिति की एक बानगी देखिए, “नौ साल की बच्ची! फराक में दोपहर की बनी दो मोटी राटियाँ छिपाए हुए। एक विमली का हिस्सा और एक सरपंच जी की दोनों भैंसों का। भैंसों के हौदे में न डालकर  वह रोटियां लेकर मां के पास दौड़ी आई थी और किसी को संदेह न हो इसलिए उसे दौड़ते हुए ही वापस भाग जाना था।"३ परिवार की असमर्थता और पेट की इस आग को भाँपकर मात्र नौ वर्ष की अल्पायु में ही विमली सरपंच जी की ऊँट के मुँह में जीरे वाली चाकरी को छोड़, समाज के चुभते-चीखे व्यंग्यों का सामना करते हुए खान साहब के भट्ठे पर मजूरी करना शुरू कर देती है। अपने जांगर को पेरकर वह रोजाना १५-१६ रुपए कमा भी लेती है। लेकिन विमली का यह कार्य लोगों को नागवार गुजरता है। सरपंच जी की घरवाली मुँह बिचकाकर कह उठती है- “हुँह ! सठिया गई है क्या बुढ़िया? अच्छे भले खाते-पीते घर में पड़ गई थी लड़की। जूठा-कूठा खाकर, घूरे पर सोकर भी चार साल में बाछी से गाय हो जाती। अब भट्ठे पर 'टरेनिंग' देगी बिटिया को। सयानी हो रही है ना। ....... बहुत लोग ‘टरेनिंग' देने के लिए 'लोक' लेने को बैठे हैं वहाँ। सिर्फ इतना ही नहीं विमली के बाप को भी लोग भड़काने से बाज नहीं आते, "दुनिया भर के चोर-चाई का अड्डा है भट्ठा। लौंडे-लपाड़े! गुंडा-बदमाश! रात-बिरात आते-जाते रहते हैं। नौ-दस साल की लड़की छोटी नहीं होती, आन्हर हो गई है बुढ़िया...'१५


    इन चुभते-तीखे व्यंग्यों से यह समझा जा सकता है। एक स्त्री को जितना अपने कर्म के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ता है उससे कहीं अधिक अपनी देहरी से बाहर निकलने के लिए समाज से संघर्ष। तरह-तरह के लोगों की बातों को सुनकर विमली का पिता खींझ कर रह जाता है, लेकिन विमली की माँ लोगों के पेट के दर्द को समझ रही है, बड़े धैर्यपूर्वक अपना निर्णय सुनाती है, "जलती हैं तो जलें सबसारा गाँव जले। सबके जले पर नमक छिड़कवाने का इंतज़ाम कर देगी। ... मेरी बिटिया जनम भर दूसरे की कुटौनीपिसौनी, गोबर-सानी करे। फटा-उतारा पहिरे। तब इनकी छाती ठंडी रहेगी, एक टूका रोटी के लिए दूसरे का लरिका सौंचाए-भट्ठे पर कौन बिगवा (भेड़िया) बैठा है। सबेरे से साँझ तक काम करो। फिर अपने घर। एहमा कौन बेइजती? ई गाँव के लोग केद्दू के चूल्हा की आग बरदास नहीं कर सकते।...१६ माँ की यह बातें जहाँ विरोधी तत्वों के लिएसबक तो, विमली के लिए एक साहस है, जिसकी आँखें अपने घर की झोपड़ी और उसके तले सोने वाले पेट पर टिकी हुई है। इस तरह हौसलाबुलंद विमली, समस्त अवरोधों को अनसुना कर, कर्म में विश्वास कर अपने इरादों पर अडिग रहती है।


    हमारी संस्कृति में स्त्री-चरित्र को अति संवेदनशील माना गया है। उसके चरित्र पर बाहरी छीटाकशी नहीं लगना चाहिए। पति, परिवार और समाज की नज़र में यह पहली प्राथमिकता होती है। यद्यपि यह अच्छी बात है, पर यह सामाजिक कसौटी सिर्फ महिलाओं पर क्यों? पुरुषों को क्यों इस गुण से बरी किया गया या प्राथमिकता न दी जाती है मेरे लिए अबूझ पहेली है, खैर। अब तक का संघर्ष विमली का भट्ठे पर पहुँचने का था, अब भट्ठे पर गुज़ारने का है। खान साहब के भट्ठे पर उसे डरेवर बाबू, कुइसा बोझवा, विल्लर, पाण्डेय खलासी जैसे व्यक्तियों का सामना करना पड़ता है, परंतु वह अपनी सूझ-बूझ, तार्किकता द्वारा अपनी आबरू को, उस विषाक्त वातावरण में भी अपने आपको हर पल सुरक्षित रखती है। यह जरूर है कि डरेवर बाबू के लिए विमली खाना बनाती है, वह उसके पाक कला और सुन्दरता का बखान करता है, विभिन्न वस्त्र प्रदान कर उस पर अधिकार रखना चाहता है पर विमली हँसी ठिठोली जरूर करती है पर वह अपने 'विवेक' पर 'हृदय' को हावी नहीं होने देती। वह स्पष्ट कह देती है, "डरवरजी, हमारा-आपका नाता साहेब सलामत का है। हँसी-ठिठोली का! चीज-बतुस के लेन-देन मा तो कमरी भीज जाएगी। हल्का बोझ ही अच्छा होता है डरेवर बाबू, जेतना आसानी से उठ जाए।"


    मेहनतकश विमली यह साबित करती है वह मनुष्यता के नाते हँसी-ठिठोली/प्रेम कर सकती है पर वह चंद पैसों और कपड़ों के लालच पर अपना ईमान नहीं खो सकती"विमली के वयक्तित्व में यह जो खुलापन है, उसका एक बड़ा उदाहरण है प्रेम। शिवमूर्ति शायद यह स्थापित करना चाहते हैं, कि शादीशुदा होने के बावजूद आदमी किसी दूसरे के साथ प्रेम कर सकता है, क्योंकि यह हर व्यक्ति का स्वतंत्र निर्णय होता है।


    अपने साहस, बुद्धि और ताकत का लोहा मनवा चुकी विमली समाज की घिसी-पिटी कुप्रथा (बाल-विवाह) के पाट में फंस चुकी है। विमली का अपने घर से कुछ दूरी पर विवाह हो चुका है। अनदेखे-अनजाने आदमी सीताराम से। कहा जाता है दाग हमेशा सफेद वस्तु पर दिखता है, कालिमा चन्द्रमा में दिखती है, हमेशा दूध ही फटता है, दही नहीं। समय के घात-प्रतिघातों के बीच विमली पर विभिन्न प्रकार के अफवाहों को सुनकर उसका ससुर विसराम विदाई कराने के लिए अडिग होता है। यहीं से कहानी दूसरा रुख अख्तियार करती है। विमली के चाहने वालों को यह खबर नागवार लगती है, “कुइसा सुनते ही अबोला हो जाता है। अंधियार करके चली जाएगी विमली भट्ठे पर" (केशर-कस्तूरी, पृ. १००) डरेवर बाबू को गहरा सदमा लगता है बोल बैठते हैं, 'जीवन में पहली लड़की देखी जितनी पास उतरी दूर।' बिल्लर की बहन रामकल्ली तो सारे वादे-मतवादे को तोड़ते हुए विमली के माँ के पास विल्लर का रिश्ता लेकर पहुँच जाती है और उसकी माँ से विमली के पति सीताराम का विमली का कभी खोज खबर न लेने, कम पैसे की नौकरी-चाकरी का हवाला देकर विल्लर से शादी करने का प्रस्ताव रखती है।


    शादी के इस प्रस्ताव पर विमली की माँ रीझती है, परन्तु दुनिया भर की भूखी नज़रों की भाषा पढ़-पढ़कर पंडित _हई तथा विषाक्त वातावरण में भी अपनी अस्मत को बचाए रखने वाली मेहनतकश विमली इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए दो टूक कह देती है, “यह आज सोच रही है! पहले क्यों नहीं सोचा? कम पैसे से ही कोई खराब हो जाता है, छोटा हो जाता है। वियाह तूने लड़के से किया था कि पैसे से? मेहनत करेगा आदमी तो एक रोटी कहीं भी मिलेगी। आदमी को अपनी मेहनत पर रीझना चाहिए कि ' दूसरे के पैसे पर रे?"९ विमली के शब्द यहीं नहीं रुकते, विल्लर की बहन रामकल्ली का अपने घर में सौगात देखकर माँ पर और तीव्र शाब्दिक प्रहार करती है, "दस रुपए के हुक्के-तम्बाकू पर तूने अपनी बिटिया को राँड़ समझ लिया रे? बोल! कैसे सोच लिया ऐसा? जिसकी औरत उसे पता भी नहीं और तू उसे दूसरे को सौंप देगी? गाय बकरी समझ लिया है ? ११० विमली की यह तार्किकता भरी बातें उसके मस्तिष्क के परिपक्वता के साथ-साथ विवाह बंधन के पट को भी खोलती है कि शादी का अभिप्राय क्षणिक संबंध नहीं अपितु ताउम्र का संबंध होता है, प्रेम या विवाह का पैमाना पैसा, शोहरत नहीं बल्कि हृदय और परिवार/समाज होता है।


    शिवमूर्ति की कथाओं का चरित्र निम्नवर्गीय/ निम्नमध्यवर्गीय समाज एवं परिवार से ताल्लुक रखता है। निम्न वर्ग में बाल-विवाह की प्रथा अभी खत्म नहीं हुई है। इनके पास कोई स्थाई संपत्ति नहीं है, इसलिए दस-बारह साल की उम्र में ही दूसरे के घरों में या खेतों में लड़कियों को काम के लिए जाना पड़ता है। विवाह इनके लिए एक सुरक्षा कवच है। भारत में ऐसे करोड़ों की संख्या में बाल मजदूर हैं, जिन्हें पढ़ाई से ज्यादा पेट की चिंता है। ११ इस तरह 'धन', 'जागरूकता' के अभाव और 'सुरक्षा' के भाव से, अपराध का कानून (बाल विवाह) बनने के बावजूद भी इन समुदायों में देखने-सुनने को मिलता है। खुद इस कुप्रथा से ग्रस्त विमली का लेखक द्वारा विमली द्वारा इस कुप्रथा पर बहस दिखाना एक सार्थक संदेश है।


    ग्रामीण निम्नमध्यमवर्गीय परिवार समाज की वास्तविकताओं के सर्वाधिक समर्थ और विश्वसनीय लेखकों में से एक हैं शिवमूर्ति। 'केशर कस्तूरी' पुस्तक के कवर पर ठीक ही लिखा है, 'शिवमूर्ति' को पढ़ने का अर्थ-उत्तर भारत के गाँवों को समग्रता से जानना। गाँव ही शिवमूर्ति की प्रकृत लीला-भूमि है। इसी पर केन्द्रित होकर उनका कथानक दूरदूर तक मँडराता है...' इसी कहानी में विमली के विदाई के समय घर-दुआर, माता-पिता, सखिया, भट्टे की मजदरीने, निमरी बकरी से मेंहती विमली, खान साहब का दुआ-सलाम आदि का जैसा चित्र शिवमूर्ति जो ने खींचा . और दारुण गीत पिरोया है वह निम्नवर्गीय समाज का वास्तविक चित्र है।


    'शिवमूर्ति की कहानियों को गौर से देखिए तो छल एक अंतवर्ती धारा के रूप में विद्यमान रहता है। छल सवर्ण भी करते हैं, दलित भी। अमीर भी करते हैं, गरीब भी।"१२ इस कहानी में छल विमली का ससुर विसराम करता है। विमली अब अपने ससुराल आ गई है, जहाँ परिवार के नाम पर सिर्फ ससुर विसराम है, उसका पति परदेश में है। हैवानियत के वशीभूत हो विसराम तीन दिनों तक लगातार बहू और ससुर के रिश्ते को शर्मसार करने का हरसंभव प्रयास करता है, परन्तु विमली उसके हर प्रयास को असफल करती है। अपने कुत्सित प्रयासों में असफल विसराम न सिर्फ यह कहकर 'जानवरों का बिना डिगरी का डॉक्टर, बड़े-बड़े बैल-साँड की रीढ़ की हड्डी दबाकर बैठा देता है।' अपनी पराजय का भड़ास निकालता है अपितु 'प्रायश्चित' का छल कर बड़ी सादगी और सौम्यता से धर्म के नाम पर, चनामृत में अफीम मिलाकर, बहू को पिला, बेसुध कर, अपनी हवश को मिटा, बह को यथास्थिति में छोड़ धर्म के दरवाजे पर जा शरण लेता है।


  'खुदा जिसे घर से निकालता है उसे गली में भी पनाह नहीं देता (अज्ञेय, शरणार्थी) विमली जब अपने आपको देह, आत्मा और आत्मविश्वास से कुचला हुआ पाती है तो वह टूट जाती है। उसके लिए वह घर घुटन बनने लगता है, इन सबसे मुक्त होने के लिए पति की तलाश में वह कलकत्ता की ट्रेन पकड़ती है। परन्तु मौके की इस नज़ाकत को भापकर धूर्त विसराम समाज में अपनी जवाबदेही के डर से उन्हें बहू पर घर से भागने और चोरी का आरोप भी लगताहै। 'तिरिया चरित्तर' असल में उस समाज का 'चरित्तर' उघाड़ती है जो हर संभव स्त्री को 'येन केन प्रकारेण' भोग लेना चाहता है। १३ इससे भी अधिक शोचनीय यह कि लोगों द्वारा विमली को स्टेशन से वापस लाना, पंचायत में विमली का अपने हुए शोषण का सच-सच बयान देना, मनतोरिया की माई का सार्थक हस्तक्षेप के बावजूद भी पंचायत विसराम के छलकपट, बयानबाजी पर विश्वास कर, विसराम को सही ठहराते हुए, सत्य को दल बल के अभाव और एकाकीपन के कारण दमित किया जाता है। पंचायत के न्याय की पराकाष्ठा 'पंच परमेश्वर' की न होकर 'खाप पंचायत' की है जो सच को नज़रअंदाज़ कर, विसराम की झूठी मनगढंत बातों के आधार पर सीधी-सादी मेहनती विमली के स्वच्छ और उर्वर जीवन को, माथे पर यातना का अमिट दाग देकर, उसकी बची खुची जिंदगी को भी नष्ट कर देती है।


  'तिरिया चरित्तर' कहानी अपने मूल स्वभाव में पुरुष प्रधान समाज में निम्नवर्गीय स्त्री के संघर्ष और शोषण की कहानी। पर यह पुरुष सत्तात्मक समाज के समक्ष बहुतेरे प्रश्न खड़ी करती है। मसलन असहाय, निर्बल, निर्धन, दमित, उपेक्षित, निम्न, निममध्यमवर्गीय परिवार की बेटियों की अस्मिता की सुरक्षा के प्रथ। परिवार, समाज गाँव में मौजूद विसराम जैसे व्यक्तियों को लेकर प्रशू, जो सारे रिश्ते-नाते को ताक पर रखकर 'मादा' को 'मिट्टी' करते हैं। ऐसे समाज पर प्रश्न-जो ‘शोषित' का पक्ष न देकर 'शोषक' के साथ खड़ा रहता है, ऐसी पंचायतों पर प्रश्न चिह्न जो सच की सम्पूर्णता से पड़ताल किए बगैर या बगैर निष्पक्ष हुए जिंदगी और जीवन से खिलवाड़ करने वाली सजा/फैसले सुनाती हैपंचायत में उपस्थित उन व्यक्तियों/महिलाओं पर प्रश्नचिह्न, जो सच को जानने के बावजूद भी बोलने की बजाय, पंचायत में मूकबधिर बन अपनी गर्दन झुकाए बैठे रहते हैं। उन मठों, महंतों और बाबाओं पर प्रश्नचिह्न जो विसराम जैसे व्यक्तियों का पक्षपोषण करते।


    यह कहने में तनिक भी 'संकोच नहीं होना चाहिए कि 'त्रिया चरित्रम् पुरुषस्य भाग्यम, दैवो न जानाति कुतो मनुष्यः' आदि तुकबंदियों महिलाओं के कमजोर चरित्र का आख्यान नहीं है, अपितु पुरुष की अपनी हीनता भरे कर्मों की आत्मरक्षा के लिए उन्हीं की जुबान से निकला और प्रयोग किया जाने वाले ढाल-तलवार है। तभी तो शिवमूर्ति ने यह दिखाया है, अपनी जिंदगी, जीवन और पेट के लिए मनुष्य की भाँति संघर्ष करने वाली निमवर्गीय स्त्री बाहरी लोगों से सुरक्षित रहकर भी अपने ही लोगों से किस तरह लुट जाती और उसकी चीख भी इन्हीं घिसे-पिटे मिथकों और मुहावरों तले दफ़न कर दी जाती है। एक पुरुष की बात को सब मान लेते हैं, परंतु एक स्त्री के यथार्थ, दुःख, दर्द, पीड़ा को कोई न तो सुनता है और न ही समझता है। जिसे सजा मिलनी चाहिए, वही निर्भिकतापूर्वक सजा दे रहा है, वह भी माथे पर अमिट कलंक का दाग देकर। कोई समझे या न समझे लेकिन 'त्रिया-चरित्रम् पुरुषस्य भाग्यम्' के यथार्थ/मर्म को बिसराम बखूबी समझ रहा है- 'दागने का मन एकदम नहीं है। बिसराम का लेकिन 'करम' का भोग तो भोगना ही पड़ेगा।


    संदर्भ


१. मंच, सं. मयंक खरे, अति.सं. संजीव, जनवरी-मार्च २०११, पृ. १२९


२. केशर कस्तूरी, राजकमल पेपरबैक्स, द्वितीय संस्करण, पृ. ८०


३. वहीं, पृ. ८५


४. वहीं, पृ. ८६


५. वहीं, पृ. ८६


6. वही, पृ. ८६


७. वहीं, पृ. ९७


8. इंडिया इनसाइड, सं. अरुण सिंह, साहित्य वार्षिकी २०१६, पृ.10


९. कशर कपूर केशर कस्तूरी, शिवमूर्ति, राजकमल प्रकाशन दिल्ली, पेपरबैक्स, द्वितीय संस्करण, पृ. ९


१०. वहीं, पृ. १००


११. इंडिया इनसाइड, संपादक अरुण सिंह, साहित्य वार्षिकी २०१६, पृ. ११


१२. लमही, संपादक-ऋतिक राय, अक्टूबर-दिसम्बर २०१९, पृ. १३४


१३. संवेद, संपादक किशन कालजयी (७३-७५) फरवरी-अप्रैल २०१४, पृ. ११३


सम्पर्क : मो. नं. : 9598677625