आलेख - यथार्थवादी कथाकार : भैरव प्रसाद गुप्त - डॉ. मोतीलाल

जन्म : जौनपुर (उ.प्र.) के गोपालपुर गाँव में 21 मार्च 1979 शिक्षा : आरम्भिक शिक्षा गाँव के आसपास के प्राइमरी स्कलों में। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में बीए, और एम.ए. (प्रथम श्रेणी, सन् 2002), जे.आर.एफ. (हिन्दी 2009) । वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर, उ.प्र. से ‘‘भैरव प्रसाद गुप्त के उपन्यासों में गाँव का बदलता परिदृश्य'' विषय पर पीएचडी की शोध-उपाधि (2015)। सम्प्रति : झुंसी, इलाहाबाद में रहकर स्वतंत्र लेखन।


                                                                            ----------------------------------


७  जुलाई  १९१८  को भैरव प्रसाद गुप्त का जन्म गाँव ‘सिवानकला', बलिया, उत्तर प्रदेश में हुआ। जिस परिवार में भैरव जी का जन्म हुआ, वह एक खाता-पीता सम्मानित परिवार था। परन्तु ग्रामीण जीवन की कठिनाइयाँ उसमें मौजूद थी। पिता चरित्रराम व्यवसाई थे। माता, गंगा देवी पतिपरायण और कुशल गृहिणी थी।


      भैरव की शिक्षा महाजनी पढ़ाई से शुरू हुई। इसमें दुकानदारी के हिसाब किताब रटाए जाते थे। ज्यादा जोर गणित पर होता था। इस शिक्षा प्रणाली का साथ भैरव का केवल एक -दो साल ही रहा। महाजनी स्कूल में रविवार को होने वाली पाठ-पूजा का वर्णन भैरव ने बड़े मजेदार ढंग से किया है।


      भैरव जी का अध्यापक बनने का बचपन का सपना कालान्तर में बड़ा रचनाकार बनने के सपने में बदल गया। उन्होंने मेरे कई लेखों पर इसी तरह के (तुम आगे चलकर साहित्यकार होगे) रिमार्क दे दिए, तो मेरे दिमाग में यह बात पूंजने लगी कि मैं साहित्यकार भी हो सकता हूँ' संस्कृत अध्यापक के प्रोत्साहन से भैरव द्वारा लिखित पहली कहानी ‘संसार' नामक पत्रिका में छपी और भैरव जी मित्रों की नजर में कवि के साथ-साथ कहानीकार भी हो गए।


     गर्वनमेंट हाई स्कूल बलिया से सन् १९३५ में मैट्रिक पास कर भैरव जी के बचपन के मित्र एनुद्दीन ने साथ इलाहाबाद जाकर इविंग क्रिश्चियन कालेज में इण्टर में दाखिला लिया। यहीं शिवदान सिंह चौहान, जगदीशचन्द्र माथुर, गंगा प्रसाद पाण्डेय, राजा बल्लभ ओझा जैसे उभरते रचनाकार इनके सहपाठी बने। सन १९३७ में उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी तथा अर्थशास्त्र विषय लेकर इण्टरमीडिएट उत्तीर्ण किया। सन् १९३९ में प्रयाग विश्वविद्यालय से बी.ए. की डिग्री हासिल की।


    प्रयाग-विश्वविद्यालय में (जो कि अब केन्दीय विश्वविद्यालय इलाहाबाद हो गया है) अध्ययन काल में सन् १९३८ में उनकी भेंट पड़ोस में रहने वाले सादिक अली साहब से हुई जो कि स्वराज भवन स्थित भारतीय कांग्रेस समिति के कार्यालय के कर्मचारी थे। सादिक अली साहब ने इनका परिचय मद्रास के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजगोपालाचारी से कराया। वे उन्हें अपने साथ मद्रास ले गए। वहाँ पहुँच कर भैरव जी महात्मा गांधी के अंग्रेज विरोधी आन्दोलन से अप्रत्यक्ष रूप से जुड़कर हिन्दी प्रचारक महाविद्यालय में अध्यापक नियुक्त हो गए। इसी मध्य सन् १९३८ में उनका विवाह बलिया के एक संभ्रांत व्यवसाई छोटेलाल की पुत्री प्रेमकला देवी से हुआ। भैरव जी ने आकाशवाणी में ‘लेशन्स इन हिन्दुस्तानी' का कार्यक्रम पेश करते हुए विमेंस क्रिश्चियन त्रिचनापल्ली कालेज में अध्यापन कार्य भी किया।


    सन् १९४२ का आन्दोलन भैरव जी के जीवन में एक नया मोड़ लाता है। उस आन्दोलन के रचनात्मक कार्यक्रम से जुड़े होने के परिणमस्वरूप गांधी ने उन्हें सीधे आन्दोलन से जुड़ने से रोक दिया। बलिया में आन्दोलन के उग्र होने और वहाँ के तत्कालीन जिलाधिकारी द्वारा आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे चित्तू पाण्डेय को सत्ता की बागडोर सौंपने की ख़बर पाकर, भैरव जी मद्रास से घर के लिए चल पड़े। कई दिनों की यात्रा के बाद देर रात घर पहुंचे, तो सुरक्षा की चिन्ता से आतुर माँ द्वारा घर में प्रवेश से रोके गए। मझले भैया (राधाकृष्ण प्रसाद) के कांग्रेसी नेता होने के कारण उनके परिवार और गाँव पर अंग्रेजी पुलिस ने बहुत कहर बरपायाथा। भैरव के जीवन के उस दुर्दिन को डॉ. राजेन्द्र मोहन अग्रवाल ने इन शब्दों में दर्ज किया है।


    ‘एक पुलिस टुकड़ी ने उनके मकान के सामने घेरा डाल दिया। दीवार पर नोटिस चिपका दी गई कि अगर राधाकृष्ण पन्द्रह दिन के अन्दर हाजिर नहीं हुआ तो मकान कुर्क कर दिया जाएगा। माता-पिता और बड़े भाई ने बहुओं के साथ हरदिया के मन्दिर में शरण ली थी। मकान में केवल नौकरानी बतकी रह गई थी, जिसपर पुलिस बराबर जुल्म ढा रही थी। उस समय गुप्त जी की पत्नी गर्भवती थीं'


    भैरव जी जब रात को घर पहुंचे, तो वहाँ ‘हू का आलम था'। दरवाजा बिना किवाड़ पहने नंगा खड़ा था। पुकारने पर माँ बाहर निकली और डांटा ‘मुझे जिन्दा देखना चाहते हो, तो अभी उल्टे पाँव वापस जाओ फिर हमारी भेट होगी' भैरव जी हके-बक्के रह गए। सोचा कि यह क्या हो रहा है। लेकिन कोई दूसरा उपाय न देख, वे कानपुर पहुँचे। एनूद्दीन के एक दूर के रिश्तेदार के यहाँ रुके, जिन्होंने प्रयास करके भैरव जी को सेन्ट्रल आर्डिनेन्स डिपो (COD) में नौकरी दिला दी। जीवन की गाड़ी के पहिए कुछ आगे खिसकेकुछ माह बाद पत्नी ने दूसरे शिशु को भी जन्म दिया। नाम पड़ा-मुन्नीलाल। बार- बार सम्मन जारी होने पर भी जब राधाकृष्ण प्रसाद अदालत में हाजिर न हुए (हाजिर होते तो पुलिस कत्ल कर देती) तो पुलिस ने मकान का सारा सामान लूटकर उसे नीलाम करा दिया। उनके मित्र एनुद्दीन ने अपने जमींदारी प्रभाव का लाभ उठा, नीलामी में मकान खरीद लिया। सन् १९४४ में स्थिति के सामान्य होने पर राधकृष्ण अदालत में हाजिर हुए, तो एनुददीन ने चरित्रराम (भैरव के पिता) को मकान सुपुर्द कर दिया। लेकिन दुर्दिन ने भैरव का पीछा यहाँ भी नहीं छोड़ा।


   इसी बीच सी.ओ.डी. की अस्थाई नौकरी छोड़कर वे ‘बेग सदरलैण्ड कम्पनी' की नौकरी में स्थाई पद पर काम करने लगे। आय थाड़ी बढ़ी, पर काम में मन नहीं लगा तो १९४४ में माया प्रेस, इलाहाबाद के सम्पादकीय विभाग में काम करने चले गए। सन् १९४८ में, गांधी की हत्या होने और कुर्सी की मारामारी देख, वे कम्युनिष्ट बन गए। माया प्रेस के मालिक क्षितीन्द्र मोहन मित्र मुस्तफी और प्रेस कर्मचारियों के बीच हुए संघर्ष के चलते उन्होंने वहाँ से ३१ दिसम्बर १९५३ में मुक्ति ले ली।


    इधर बलिया की रिथति में कुछ सुधार हुआ। परन्तु पहली पत्नी के क्षय रोग से गुजर जाने के बाद सन् १९४७ में मातापिता के समझाने बुझाने पर उन्होंने दरौली (सीवान, बिहार) निवासी महाजन रामजी की पुत्री वैद्यनाथी देवी (वैजनाथी देवी) से विवाह कर लिया। वैद्यनाथी देवी छ: बहनों में पाँचवीं थीं। यह शादी भैरव जी के जीवन में काफी हद तक स्थिरता लाने में मददगार रही। वैद्यनाथी देवी ने ६ नवम्बर १९५३ को एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम पड़ा- जय प्रकाश। प्यार से इन्हें घर में भैरव जी ‘बाबू' कहते थे।


    माया प्रेस, इलाहाबाद की नौकरी छोड़ने के बाद भैरव जी १ जनवरी १९५५ से 'कहानी' पत्रिका के सम्पादक हो दिल्ली चले गए। वहाँ वे सन १९६२-६३ तक रहे। सन् १९६३ में पत्नी वैद्यनाथी देवी को भी जब टी.बी. हुई, तो वे इलाहाबाद में थे। सन १९७० में बेनीगंज, इलाहाबाद में जमीन खरीदी और मकान बनवाया। सन १९७२ में उस मकान में गृह प्रवेश किया। भैरव जी ने कहानी पत्रिका के लिए १ जनवरी १९५५ से १३ जनवरी १९६० तक कार्य किया।


    भैरव जी ने १५ जनवरी १९६० से जनवरी १९६३ तक नई कहानियों का सम्पादन कियावे इस दौरान इलाहाबाद में रहते थे और सारी सामग्री छपने हेतु इलाहाबाद से दिल्ली भेजते थे। राजकमल के मालिक ओम प्रकाश जी से एक कहानी के छापने, न छापने के निर्णय को लेकर हुए झगड़े के कारण, उन्होंने वहाँ से भी इस्तीफा दे दियाइसके बाद उपेन्द्रनाथ अश्क अप्रैल १९६३ से उसके सम्पादक हुए। मई १९६३ से नवम्बर १९७४ तक उन्होंने कोई नौकरी नहीं की। इस बीच उन्होंने कई उपन्यास, दर्जनों कहानियाँ और रेडियो नाटक लिखे। तत्पश्चात् नवम्बर १९७४ में इन्होंने शिव प्रकाशन में पाण्डुलिपि संशोधन का काम सम्हाला, जो १९८० तक सकुशल चला। सन् १९८० के बाद भैरव जी ने कोई नौकरी नहीं की। इधर पारिवारिक कलह बढ़ता ही जा रहा था। सन् १९६२-६३ में जब वैद्यनाथी देवी की तबीयत खराब थी, पारिवारिक तनाव बहुत बढ़ गया था। ऐसी स्थिति में भैरव की पहली पत्नी की दोनों संतानें, प्रेमांशु और मुन्नीलाल पत्नी बच्चों सहित अलग हो गए। प्रेमांशु लीडर प्रेस, इलाहाबाद में रहने चले गए जबकि मुन्नीलाल लखनऊ चले गए। भैरव जी अपनी पुत्री कविता को बहुत मानते थे। सन् १९९० के आस-पास जब उन्होंने देखा कि अब जीवन का अन्त समय आने वाला है, तो अपनी पुत्री कविता के ससुराल अलीगढ़ चले गए। वहाँ वे अन्त समय तक रहे। ७ अप्रैल १९९५ को उन्होंने वहाँ अन्तिम साँस ली।


    इलाहाबाद के ई.सी.सी. कालेज से इण्टर करते हुए, इन्हें बड़ा कवि बनने का चस्का लगा। निराला और बच्चन को इन्होंने यहाँ लगातार सुना। मद्रास में रहते हुए उन्होंने कई कविताएँ और कहानियाँ लिखीं। ए सब रचनाएं अपने जमाने की मशहूर पत्रिकाओं जैसे-'विशाल भारत', 'विश्वामित्र', 'सरस्वती', 'कर्मवीर', 'कहानी' में छपी। सन् १९४२ में इन्होंने ‘आगामहल' जैसी लोकप्रिय कविता लिखी, जो ‘विशाल भारत' में छपी। अंचल की दृष्टि से यह कविता नई और अद्भुत थी।


    भैरव जी की बाकायदा प्रकाशित होने वाली पहली पुस्तक है-कसौटी (१९४३)। यह एक एकांकी संग्रह हैयद्यपि कि इसने नाट्य क्षेत्र में कोई विशेष हलचल न पैदा की थी, फिर भी पहली प्रकाशित रचना का अपना महत्व तो होता ही है।


   भैरव प्रसाद की कहानियों का पहला संग्रह-मुहब्बत की राहें सन् १९४५ में प्रकाशित हुआ। इसके बाद सन् १९४६ में एक और कहानी संग्रह ‘फरिश्ता' आया। यद्यपि यह दोनों कहानी संग्रह अब उनके पुत्र जय प्रकाश गुप्त के पास भी उपलब्ध नहीं हैं। इसके बाद भैरव जी के कई कहानी संग्रह-'बिगड़े हुए दिमाग' (१९४८), ‘इन्सान' (१९५०), ‘सितार के तार' (१९५१), ‘महफिल' (१९५८), ‘सपने का अन्त' (१९६१), ‘आँखों का सवाल' (१९६५), ‘मंगली की टिकुली' (१९८२), ‘आप क्या कर रहे हैं?' (१९८३)...... प्रकाशित हुए।


   भैरव जी का पहला उपन्यास 'शोले' सन् १९४६ में लिखागया और ‘मनोहर कहानियाँ' में धारावाहिक रूप से छपा। इसके बाद ‘मशाल' (१९४८), ‘गंगा मैया' (१९५०), 'जंजीरें और नया आदमी' (१९५४), (यही उपन्यास १९७१ में ‘बाँदी' और 1982 में आग और आँसू के नाम से छुपा) 'सत्ती मैया का चौरा' (१९५४), ‘धरती' (१९६२), 'आशा' (१९६३), कालिन्दी' (१९६३), ‘रभा' (१९६४), ‘अंतिम अध्याय' (१९७०), ‘उसका मुजरिम' (१९७२), (यही उपन्यास १९७२ में ‘एक जीनियस की प्रेमकथा' के नाम से छपा) 'नौजवान' (१९६६), 'भाग्य देवता' (१९९०), ‘अक्षरो के आगे', मास्टरजी' (१९९३), ‘छोटी सी शुरुआत' (१९९७)......प्रकाशित हुए। पक्षधर के मई-दिसम्बर (२००८) अंक में उनका अधूरा उपन्यास ‘बाप और बेटा' छपा।


    इन पन्द्रह उपन्यास के अतिरिक्त भी कुछ उपन्यास भैरव जी ने लिखे, पर वे अब उपलब्ध नहीं हैं। हवेली, देशभक्त, रंग महल, हिरामन सुग्गा, कमल का फूल (अंतिम अध्याय (१९६६) से), काशी बाबू, मालती माधव (अक्षरों के आगे मास्टर जी के अंतिम फ्लैप पर (१९९३) जैसे उपन्यास इसी श्रेणी में आते हैं ।


    भैरव जी की पहली कहानी तब प्रकाशित हुई जब वे हाई स्कूल में पढ़ रहे थे। यह लगभग १९३४-३५ की बात है। इस कहानी का शीर्षक क्या था, यह तो पता नहीं चल सका है, परन्तु यह छपी, ‘संसार पत्रिका में थी। भैरव जी ने लिखा है- ‘संसार' में वह कहानी छप गई और विद्यार्थियों के बीच कवि के साथ ही कहानीकार भी बन गया। वैसे बाकायदा उनका पहला कहानी संग्रह १९४५ में मुहब्बत की राहें' के नाम से आया जबकि इसके पूर्व इनकी कहानियाँ छिटपुट पत्रिकाओं में छपती रहीं थीं। ‘मुहब्बत की राहें नामक कहानी संग्रह मनोहर सीरीज, इलाहाबाद से १९४५ में प्रकाशित हुई थी, जिसमें कुल ११ कहानियाँ थी-महान संगीत, कुसुमी, संस्कार, सूटकेस, विद्रोही की घड़ी, कमीज, न्योता, जिंदगी, गेंदा, सेवा का मूल्य, मुहब्बत की राहें। ।


    फिलहाल इसमें से मुहब्बत की राहें' और 'फरिश्ता वर्तमान में अनुपलब्ध हैंजय प्रकाश जी इसके लिए बहुत प्रयत्नशील हैं, पर अभी तक सफलता हाथ नहीं लग सकी है। भैरव प्रसाद गुप्त रचित नाटक एवं एकांकी की सूची इस प्रकार है: ‘१. वरदान, २. अभिशाप, ३. चंदबरदाई, ४. तुम्हारे लिए' भैरव जी ने कुछ विदेशी और भारतीय रचनाकारों की रचनाओं को भी आधार बनाकर एकांकियों और उपन्यासों का अनुवाद किया जो इस प्रकार हैं:


    १. हिज एक्सलेन्सी - दोस्तावस्की, २. मालवा -गोर्की, ३. माँ -गोर्की, ४. कन्दीद -वाल्टेयर, ५. कर्कशा -सेक्सपीयर, ६. डोरी एण्ड ग्रे -आस्कर वाइल्ड, ७. चेरी की बगिया -चेबव, ८. हमारे लेनिन -लेनिन, ९. अजेय वियतनाम -उत्पलदत्त, १०. मालती माधव -भवभूति


    भैरव प्रसाद गुप्त ने १९६७ में एक नाटक 'चंद बरदाई' लिखा, जो स्वतंत्रता आन्दोलन से बेहद प्रभावित थाजबकि उनका एक एकांकी संग्रह 'कसौटी' १९४३ में ही आ चुका था। वैसे उनके एक नाटक ‘राजा का बाण' और एक एकांकी संग्रह ‘घाघ' का भी जिक्र मिलता है। पर ए उपलब्ध नहीं हैं। इन एकांकी और नाटकों के अलावा भैरव जी ने कई रेडियो नाटकों की भी रचना की, जिनमें से कई तो स्वयं उनकी कहानियों या उपन्यासों पर आधारित थे। इनमें-पियानो, सोने का पिंजरा, और अभिशाप प्रमुख हैं।


    भैरव प्रसाद गुप्त की चर्चा प्रायः एक सम्पादक के रूप में ही की जाती है। उन्होंने जब कानपुर से 'बेग सदर लैण्ड' कम्पनी की स्थाई नौकरी छोड़ी तो माया प्रेस, इलाहाबाद आ गए। यह सन् १९४४ की बात है। यहाँ वे माया प्रेस से निकलने वाली दो पत्रिकाओं - ‘माया’ और ‘मनोहर कहानियाँ' के सम्पादक नियुक्त हुए। उस वक्त इन दोनों पत्रिकाओं में अनूदित और रोमैंटिक कहानियाँ छपा करती थीं। मालिक की आर्थिक स्थिति भी कुछ अच्छी नहीं थी। इसका वर्णन ‘भाग्य देवता' में सचेत होकर देखने पर साफ साफ झलकता है। परन्तु भैरव जी के संपादक नियुक्त होते ही दोनों पत्रिकाएं चल निकलीं। वे लिखते हैं - ‘लेकिन जब हम लोगों ने काम संभाला और प्रतिष्ठित कहानीकारों को भी छापना शुरू किया तो पत्रिकाओं के सर्कुलेशन तेजी से बढ़ने लगे और ‘माया' को अच्छे व्यवसायिक विज्ञापन भी मिलने लगे।' बढ़ती आर्थिक मजबूती को देख इसके मालिक ने सोचा कि पुराने मजदूरों को निकाल बाहर किया जाए, तो मालिक और कर्मचारियों में झगड़ा हो गया। भैरव जी ने एक संपादक की हैसियत से अपने को कर्मचारी मानते हुए मजदूरों का साथ दिया। परिणमस्वरूप, विपरीत परिस्थितियों से तंग आकर, उन्होंने ३१ दिसम्बर १९५३ को माया प्रेस की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।


    इसके बाद भैरव जी एक जनवरी १९५५ से 'कहानी' पत्रिका के संपादक नियुक्त हुए। इसके मालिक मुंशी प्रेमचन्द के जेष्ठ पुत्र श्रीपत राय थे। यह दिल्ली से निकलती थी। मार्च १९५६ में 'कहानी' का होली विशेषांक आते ही इसकी धूम मच गई। भैरव जी ने १ जनवरी १९५५ से १९६० तक इसका संपादन किया। इसके माध्यम से भैरव जी ने नए उभरते प्रगतिशील कहानीकारों को एक मंच प्रदान किया और उन्हें तराशा-सँवारा जिनमें अमरकान्त, मार्कण्डेय, कमलेश्वर, शेखर जोशी, हरिशंकर परसाई, रामकुमार, रेणु, निर्मल वर्मा, राजेन्द्र यादव, शिव प्रसाद सिंह और मधुकर जैसे आज के प्रतिष्ठित कहानीकारों का नाम शामिल है। ए सब भैरव प्रसाद गुप्त के संपादकत्व में साहित्य-बाग के फलने फूलने वाले एक से बढ़ कर एक नायाब फूल हैं। एक संपादक की श्रेष्ठता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि उसकी देख-रेख में प्रशिक्षण प्राप्त कर बीसों लेखक नामी रचनाकार हो जाएँ। भैरव प्रसाद गुप्त संपादक के रूप में दूसरे महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं। जो काम द्विवेदी जी ने सरस्वती के माध्यम से किया, वही काम भैरव जी ने 'कहानी' के माध्यम से किया।


    भैरव जी ने उपन्यास पत्रिका का संपादन १९५६ से १९५९ तक किया। जबकि नई कहानियाँ' का संपादन १९६० से १९६२ तक किया। सन् १९६२ मे ‘नई कहानियाँ' छोड़ने के पश्चात् भैरव जी ने जनवरी मार्च १९७२ में 'समारंभ-१' नामक पत्रिका का संपादन कियातत्पश्चात् उन्होने १९७३ में प्रारंभ-१' का भी संपादन किया। संक्षेप में, कहें तो भैरव जी ने संपादन का एक पूरा युग अपने नाम किया है। इसमें कोई शक नहीं।


    इस तरह भैरव जी का रचना संसार बहुआयामी और विस्तृत है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उन्हें तमाम संघर्षों के बाद भी लंबा रचनात्मक जीवन मिला, जिसका उन्होंने अपनी अदम्य जिजीविषा के बल पर भरपूर दोहन किया। भैरव जी का रचना प्रदेय, उनके साहित्यिक मेधा का ही साक्ष्य नहीं हैबल्कि युगीन रचनाशीलता का विशिष्ट आयाम भी है।


   हम देखते हैं कि भैरव जी का रचना-समय सन् १९३५ के आस-पास प्रारम्भ होकर जीवन के अंत समय तक हैअर्थात् १९९४-९५ तक कुल साठ वर्षों का एक लंबा सफर है उनके लेखन का, बहुत कम रचनाकार हैं, हिन्दी भाषा में तो और भी कम हैं, जिन्हें इतने लम्बे बक्त तक लिखते रहने का सुयोग प्राप्त हो सका है। भैरव जी का रचना समय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ प्रारम्भ हो बीसवीं सदी के अंत तक है। यदि उनकी उपलब्ध रचनाओं को आधार मानें तो भी, सन् १९४६ में आया उनका प्रथम उपन्यास 'शोले' आज भी उपलब्ध है, वे कुल पचास वर्ष साहित्यिक जीवन पा सके हैं। इन पचास वर्षों में उनके द्वारा लिखी गई कई रचनाओं की खोजबीन अभी जारी है।


   भैरव प्रसाद गुप्त चूकि एक समाजवादी उपन्यासकार हैं, माक्र्सवादी उपन्यासकार हैं, जनवादी उपन्यासकार हैं अतः इनके कथानक भी इन्हीं विचारों से संचालित हैंकथानक की दृष्टि से इनके उपन्यासों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है। प्रथम भाग में वे उपन्यास हैं, जो ग्रामीण परिवेश पर आधारित हैं। इनके कथानक के केन्द्र में किसान और खेती की समस्याएँ हैं। जमीन के लिए किसानों का संघर्ष है। जमींदारों और महाजनों की गुलामी से छुटकारा पाने के लिए उनका आन्दोलन है। ग्रामीण समाज में साम्प्रदायिकता का घुलता जहर है। नेतागीरी के नाम पर देश के किसानों और मजदूरों के श्रम और धन की लूट है। एक तरफ बाहुबली शोषक हैं, दूसरी ओर रोती बिलखती जनता है। इनके मध्य होने वाले संघर्ष में कथाकार भैरव प्रसाद गुप्त, गरीब जनता के साथ खड़े हैं। इस संघर्ष की भरी-पूरी तस्वीर देने के लिए भैरव जी ने जो विशाल चित्रपट चुना है, उसके केन्द्र में किसान और मजदूर हैं। साथ ही साथ इनका खून चूसने वाले शोषक जमींदार भी पूरे चमक-दमक से चित्रित हैं। इनके पात्र, वे दास-दासियाँ हैं, जो प्रायः हवेली के मालिक सामन्तों के यहाँ गुलाम की जिन्दगी बिताने को मजबूर हैं। इनमें प्राय: दलित और स्त्री-शोषण के विरुद्ध आवाज उठती दिखाई देती है। ऐसे उपन्यासों में 'शोले', 'जंजीरें और नया आदमी', 'आशा', 'कालिन्दी', 'रम्भा', 'एक जीनियस की प्रेम कथा' आदि प्रमुख हैं।


   दूसरे भाग में, वे उपन्यास आते हैं, जिनमें मिल-मजदूरों और मिल मालिकों के बीच हुए संघर्ष को आधार बनाकर, कथानक चुने गए हैं। इनमें कथाकार भैरव जी मिल-मजदूरों के पक्षकार वकील हैं। यद्यपि इनमें परिवेश शहरी है, फिर भी इनकी कथाएँ गाँव से भी जुड़ती हैं। इनके माध्यम से लेखक की मशाल जलाकर, मजदूरों में साहस पैदा करने का आकांक्षी है। इनमें पूंजीवाद के प्रति घोर आक्रामकता साफ-साफ दिखाई देती है। इन उपन्यासों में 'मशाल', 'नौजवान', ‘अतिम अध्याय', ‘भाग्य देवता' और 'एक छोटी सी शुरुआत' आदि प्रमुख हैं।


    भैरव जी के उपन्यासों में, तीसरे भाग में वे उपन्यास आते हैं, जिनका केन्द्रीय विषय गाँव है। इनमें स्वतंत्रता के बाद वे गाँव चित्रित हैं जिसमें परेशान हलाकान किसान हैं। टूटती-विखरती उसकी खेती है। दिनों-दिन धनवान होते नव धनाढ्य जमींदार हैं। जमींदार, पुलिस तथा इनके बीच अटूट गठजोड़ है समाज की नई और पुरानी विसंगतियाँ हैं। सामाजिक असामनता और वर्ग-प्रभुता है। उपन्यासकार भैरव प्रसाद गुप्त ने बदलते हुए गाँव से कथानक चुनकर, सामाजिक और आर्थिक शोषकों को बेनकाब किया है। इस प्रकार भैरव प्रसाद गुप्त प्रेमचन्द परम्परा के प्रतिबद्ध उपन्यासकार सिद्ध होते हैं जिनकी दृष्टि में गाँव परिवर्तनशीलता के गुण से युक्त एक सामाजिक संस्था है, जो अपने अन्दर की बेकार पड़ीसामाजिक परम्पराओं को छोड़ती और उपयोगी परम्पराओं को ग्रहण करती जा रही है।


    भैरव प्रसाद गुप्त सर्वहारा-बोध के यथार्थवादी कथाकार हैं। उनकी कथा-संस्कृति में वर्गवादी विचारधारा के संघर्ष की व्यावहारिक दशाओं का चित्रण हुआ है। वर्ग विभक्त समाज के भीतरी और बाहरी प्रतिरूपों और विरोधों की साफ समझ के आधार पर भैरव प्रसाद ने आने वाले समय की प्रतिबद्धता को गहरे विश्वास के साथ प्रकट किया है। स्पष्ट है कि भैरव जी के उपन्यासों की कथा-वस्तु समाज के दबे, कुचले लोगों के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है। उनकी अभावपूर्ण जिंदगी, जिसमें श्रम का विशेष महत्व है, भैरव जी को बहुत लुभाती है। तभी तो इनके उपन्यासों की केन्द्रीय कथावस्तु खेती-किसानी या कृषि मजदूरों की संघर्षपूर्ण जिंदगी को चित्रित करती है।


    भैरव जी के उपन्यास अपने समय और समाज को बखूबी पकड़ते और चित्रित करते हैं। उपन्यास पढ़ते समय सन् १९४२ के आन्दोलन और स्वतंत्रता के बाद की परिस्थितियाँ पाठक की आँखों के आगे नाचने लगती हैं। उसे उस काल की एक-एक घटना साक्षात् नजर आने लगती है। वैसे भैरव जी ने 'मशाल' में मजदूरों के संघर्ष, ‘बाँदी' में सामंती शोषण की क्रूरता और अमानवीयता का, ‘धरती में राष्ट्रीय आन्दोलन की लोक-चेतना' और 'अंग्रेजी शोषण के विरूद्ध-भारतीय प्रतिक्रिया का', 'रम्भा' में सर्वोदई भाव के निकम्मेपन और पिछड़ेपन का, ‘नौजवान' में एक ग्रामीण छात्र के राष्ट्रीय और सामाजिक आन्दोलनों में शरीक होने तथा प्रतिश्रुत होने की सम्भावनाओं का यथार्थ चित्रण किया है।


   भैरव प्रसाद गुप्त मुख्यतः उपन्यासकार हैं बावजूद इसके वे एक अच्छे कहानीकार भी हैं इनकी कहानियों का परिवेश आजादी के बाद का पिछड़ा और रुढिवादी भारतीय समाज हैजिसमें ईमानदार और मेहनती लोग हैं। उनकी निराशा और पीड़ा है। स्वार्थी और अमानवीय शोषकों द्वारा सताए जा रहे लोग हैं। शहरी मध्य वर्ग है। चाय का प्याला, लोहे की दीवार, गत्ती भगत, श्रम, चुपचाप, मंगली की टिकुली, घुरहुआ, सोने का पिंजड़ा, फूल, एक मकान की मौत, यही जिन्दगी है, जैसी धारदार और दानेदार कहानियों के लेखक भैरव जी मूलतः यथार्थवादी कथाकार हैं। इनके कथानकों का आधार प्रेमचन्द की भाँति भारतीय समाज में घटित यथार्थपूर्ण घटनाएं हैं। इन घटनाओं का वैज्ञानिक और विवेकपूर्ण विवेचन हैजिनमें अंधविश्वास नाम मात्र का भी नहीं है। इनकी कहानियाँ संघर्ष-चेतना की प्रतीक हैं जिनमें वर्ग-चेतना कूट-कूट कर भरी गई है। अपनी स्वाभाविकता और यथार्थपरकता के बल पर ए कहानियाँ पाठकों में बहुत लोकप्रिय हैं। दुर्भाग्य यह है कि ए कहानियाँ नई कहानी के दौर की नामी पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर भी किसी कहानी संग्रह में सम्पादित/ प्रकाशित न होने के कारण अभी भी पाठकों के एक बड़े वर्ग की पहुँच से बाहर हैं।


    सारांश यह कि भैरव प्रसाद गुप्त यथार्थवादी, समाजवादी, प्रतिबद्ध कथाकार हैंहिन्दी पाठकों के लिए इन्हें भूल पाना बहुत कठिन हैआज इनकी जन्म शताब्दी पर हिन्दी पाठक इन्हें तहेदिल से दोबारा पढ़ रहे हैं, यही इनकी लेखनी की जीत है।


                                                                                                                                                   सम्पर्क : डॉ. परशुराम मौर्य, एफ-3, गंगादीप कालोनी (नेका),


                                                                                                                                                                                झूसी, इलाहाबाद, मो.नं.: 8318267725