आलेख - इलाहाबाद में निराला के अंतिम दिन - कुमार वीरेन्द्र

जन्म : 20 दिसम्बर 1974, बिहार के औरंगाबाद जिले के झरहा (कुटुम्बा प्रखण्ड) नामक गाँव में। विगत बाईस वर्षों स साहित्य सेवा। लगभग चार वर्षों तक नीलाम्बर-पीताम्बर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के प्रभारी के तौर पर कार्य। 'सामान्य हिन्दी एवं ‘अमृत राय : चिंतन और सृजन' नामक पुस्तकें प्रकाशित। पिछले तकरीबर साढ़े आठ वर्षों से जी.एल.ए. कॉलेज, नीलाम्बर-पीताम्बर विश्वविद्यालय, मेदिनीनगर, पलामू, झारखण्ड के हिन्दी विभाग में अध्यापन, इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर।


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जिनके होने से इलाहाबाद जाना-पहचाना जाता था, उनमें से एक निराला भी थे, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला। १५ अक्टूबर १९६१ को ९ बजकर २३ मिनट पर प्रात:काल निराला ने जब आंखें बंद कीं तो इलाहाबाद को ऐसा मालूम पड़ा कि विद्रोह का एक मुकम्मल इतिहास बंद हो गया, दारागंज में एक विशालकाय मीनार के लिए सन्नाटा पसर गया, रसूलाबाद साहित्यकार संसद की एक मात्र ठोस कड़ी टूट गई, गंगा की लहरों पर चलकर गीत बहानेवाला सो गया। डॉ. राम विलास शर्मा के शब्दों में वह सहज विलंबित, मंथर गति/जिस को निहार/गजराज लाज से राह छोड़ दे/एक बार/काले लहराते बालदेव सा तन विशाल/आर्यों का गर्वोन्नत प्रशस्त/अविनीत भाल/झंकृत करती थी/जिसकी वाणी में अमोल/शारदा सरस वीणा के/सार्थक सधे बोल/कुछ काम न आया/वह कवित्व आर्यत्व आज/संध्या की बेला/शिथिल हो गए सभी साज।' (पृ. ११, कादंबिनी, दिसम्बर १९६१)


     उधर श्रीनारायण चतुर्वेदी ने नवम्बर १९६१ की 'सरस्वती' में 'एक नक्षत्र टूट गया!' शीर्षक से संपादकीय लिखकर कहा कि हिंदी-साहित्याकाश का सबसे प्रखर, तेजस्वी और देदीप्यमान नक्षत्र टूट गया।' यह सच है कि एक देदीप्यमान नक्षत्र १५ अक्टूबर १९६१ को टूट गया, पर यह भी सच है कि मृत्युबोध की यह प्रक्रिया अकस्मात नहीं घटी, इसके संकेत पहले से ही मिलने लगे थे। यह सर्वविदित है कि निराला कवि थे और कवि मालूम भी पड़ते थेयुवावस्था में छह फुट एक इंच का उनका शरीर दर्शनीय था। पहलवानी और व्यायाम के करण उनका शरीर दृढ़ और पुष्ट मालूम पड़ता था, लगभग वैसा ही, जैसा उन्होंने ‘तुलसीदास' के लिए कहा- “आयत-दृग, पुष्ट-देह, गत-भय/अपने प्रकाश में नि:संशय/प्रतिभा का मंदस्मित परिचय, संस्मारक।' लेकिन अंतिम दिनों में निराला जिस ढलान की ओर थे, उसके चिह्न बाहर-भीतर परिलक्षित होने लगे थे। २ सितम्बर १९५८ को निराला एक गीत में स्वयं संकेत करते हैं- 'वृद्ध हूं मैं, ऋद्धि की क्या/साधना की, सिद्धि की क्या/खिल चुका है फूल मेरा/पंखड़ियाँ हो चलीं ढीली/चढ़ी थी जो आंख मेरी, बज रही थी जहाँ भेरी/वहां सिकुड़न पड़ चुकी है/जीर्ण है वह आज तीली/आग सारी फुक चुकी है/रागिनी वह रुक चुकी हैस्मरण में है आज जीवन/मृत्यु की है रेख नीली। मानों मृत्यु के तीन वर्षों पूर्व ही निराला ने मृत्यु की नीली रेख को पहचान लिया था। मानों मनुष्य और कविता की मुक्ति के लिए स्वतंत्रता का गान गानेवाला कवि खुद की मुक्ति को पहले से ही महसूस करने लगा था। यहाँ तक कि घर के जीवन में मृत्यु के छिद्र को भी भांप गए थे- 'मैं रहूँगा न घर के भीतर/जीवन में रे मृत्यु के विवश।' (तुलसीदास कविता में) लेकिन तुलसीदास कविता का अंत करते हुए जब निराला कहते हैं- 'वह तरुशाखा का वन-विहग/उड़ गया मुक्त नभ निर-सतरंग/छोड़ता रंग पर रंग/ रंग पर जीवन। श्रोसंगता है कि यह स्वयं निराला के लिए भी उतना ही सही है, उस निराला के लिए जिसने लक्ष्मी को कुछ भी न समझते हुए सरस्वती की अनवरत सेवा-निष्ठा में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और गरल से भर गए समाज- संसार की वेदना को रोकने के लिए गीत गाने की ताउम्र जिद ठानी। इसी जिद के कारण निराला ने १९२७-२८ के आसपास आराध्य देवी श्यामा से मृत्यु को पंजा लड़वाया- ‘भैरवी भेरी तेरी झंझा/तभी बजेगी मृत्यु लड़ाएगी जब तुझसे पंजा।' ('आवाहन' कविता/परिमल' में)। लेकिन इसी ‘परिमल' के पतनोन्मुख' कविता में मानों आसन्न मृत्यु के दर्शन उन्होंने कर लिए थे- ‘विकल डालियों से/झरने ही पर हैं पल्लव-प्राण हमारा डूब रहा दिनमान।' हालांकि पल्लव-प्राणों के डालियों से बिलगाव होने में


                                                                                                                                        


अत्यधिक विलंब था। वृद्धावस्था के लक्षण प्रकट होने पर सन् १९४० में उन्हें अनुभूत हुआ‘पके आधे बाल मेरे/हुए निष्प्रभ गाल मेरे/चाल मेरी मन्द होती आ रही/हट रहा मेला।' फिर सन् १९४२ में भी अपने को अलक्षित महसूस करते हुए वह कह उठते हैं- ‘स्नेह निर्झर बह गया है/रेत ज्यों तन रह गया है।' सन् १९५० में मृत्यु की प्रथम आभा को देखकर उन्होंने 'अर्चना' के एक गीत में लिखा था- धीरे-धीरे हँस कर आई/प्राणों की जर्जर परछाई।' फिर १९५३-५४ में 'गीतगुंज' में वह शारीरिक और मानसिक व्याधियों से उबरने की कोशिश करते मिलते हैं- 'भग्न तन, रुग्ण मन/जीवन विषण्ण बन/क्षीण क्षण-क्षण देह/जीर्ण सज्जित गेह/घिर गए हैं मेह/प्रलय के प्रवर्षण/चलता नहीं हाय/कोई नहीं साथ/उन्नत, विनत माथ/दो शरण, दो शरण!' ऐसा लगता है, उन्होंने क्षण-क्षण, पल-पल, दिनदिन, मास-मास वर्षों मृत्यु की वेदना को मुक्त मन से सहाझेला था और अंततः तन-मुक्त हो गए। निराला के निधन पर नागार्जुन ने निराला से सीख लेने की जरूरत पर बल देते हुए कहा- ‘आए कोई तुमसे सीखे-/वह द्वापरवाली शरशय्या की चुभन आज/आए कोई तुमसे सीखे/युग-युग का इलाहल पीना/आए कोई तुमसे सीखे-यह रक्तदान/आए, कोई तुमसे सीखे यह स्वाभिमान !' (पृ. ३११, सरस्वती, नवम्बर १९६१) । इसी समय रामविलास शर्मा ने कहा कि एक बार हो जाए क्षीण जलहीन भले ही धरती पर गंगा की धारा/हे कवि! अगर रसवती है पर तेरी सरस्वती धरती की अन्तर्धारा।' अपनी मृत्यु से ठीक पहले लिखी कविता में संवरण-समय का वर्जन करते हुए भी निराला अवसादसिक्त या निराश नजर नहीं आते हैं। वह अपने हृदय में आशा का प्रदीप हलता हुआ पाते हैंऔर मृत्यु के बाद भी नए सवेरे के विश्वास से भरे दीख पड़ते हैं। इस अंतिम कविता में मानों निराला अपना सिंहावलोकन करते हैं- ‘पत्रोत्कण्ठित जीवन का विष बुझा हुआ है/आशा का प्रदीप जलता है हृदय-कुंज में/अन्धकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है। .... झूल चुकी है खाल ढाल की तरह तनी भी/पुनः सवेरा-एक और फेरा हो जी का।'


      निराला १९५९ के आस-पास से प्रायः बीमार और बिस्तर पर रहने लगे थे, उनके बलिष्ठ शरीर में मानों घुन लग गया थाडॉ. संपूर्णानंद जी ने चिकित्सा आदि की व्यवस्था कर दी थी। वह स्वयं भी परहेज और संयम बरतने लगे थे। चिकित्सकों की राय मानकर उन्होंने महीनों नमक नहीं खाया। लेकिन अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में एक बार आँत उतर जाने के कारण बीमार पड़ गए और चार-पाँच दिनों की बीमारी के बाद देह मुक्त हो गए। बकौल श्रीनारायण चतुर्वेदी, जब निराला बीमार थे तो चि. कमलाशंकर जी ने उन्हें एक सादी कॉपी लाकर दे दी थी, जिसमें वे कविताएँ लिखा करते थे और उन कविताओं पर क्रम का अंक लिख दिया करते थे। २ अगस्त १९६१ से १५ अक्टूबर १९६१ के बीच निराला ने इस कॉपी में कुल ८ कविताएं लिखी थीं। इन्हीं आठ में से अंतिम कविता में उन्होंने स्वीकार किया था कि 'पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है। इन्हीं आठ कविताओं में ६०वें क्रम की कविता महज दो पंक्तियों की ही है, अपूर्ण सी, पर आत्मपरक- ‘ध्वनि में उन्मन बाजे/अपराजित कण्ठ आज लाजे।'


     कुछ दिनों तक निराला का बजट संभालने वाली महीयसी महादेवी ने निराला के अंतिम दिनों के जीवनगत बदलावों को अत्यंत निकट से और विस्मय से देखा थायह महादेवी थीं, जिनसे उन्होंने पंत के मरने की झूठी खबर को सच मान लेने की जिद करते हुए पहली बार कहा था- ‘अब हम भी गिरते हैंपंत के साथ तो रास्ता कम अखरता था, पर अब सोचकर ही थकावट होती है।' (पृ. १३, महाप्राण निराला, गंगा प्रसाद पांडेय)। यह महादेवी ही थीं, जिनसे पाव भर गेरू मंगवाकर निराला ने अपने वस्त्र रंग लिए थे और कहा था ‘हम अब संन्यास लेंगे।' गेरुआ वस्त्र में निराला को देखने वालों ने उनके बदलावों को स्पष्टतः देउवा था और कारणों का अंदाजा भी कुछ-कुछ लगाया था। अपने युग का अभिशाप झेलने को अभिशप्त निराला को देखकर कुछ को आश्चर्य होता था, कुछ को इत्मीनान। कभी-कभी नंगे पैर और नंगे सिर, कंधे में फटा कुर्ता टांगे और गंदी लुंगी पहने हुए निराला को इलाहाबाद की सड़कों पर घूमते देखकर अच्छे-अच्छे धैर्यवानों का दिल बैठ जाता था। महाकवि गेटे ने एक जगह लिखा है कि 'A great crisis uplifts a man' अर्थात् महान् प्रतिभाशाली व्यक्ति को जीवन के महान् संघर्ष और अधिक ऊपर उठा देते हैं।


     इलाहाबाद में निराला अपने अंतिम दिनों में प्रायः अंग्रेजी में बोलने लगे थे, अंग्रेजी कवियों की रचनाएँ सुनाने या उद्धृत करने लगे थे, यहाँ तक कि हिन्दी में हस्ताक्षर करना छोड़कर अंग्रेजी में हस्ताक्षर करने लगे थे। बकौल श्रीनारायण चतुर्वेदी ‘उनकी तीव्र व्यथा की वह सार्वजनिक अभिव्यक्ति थी।' (पृ. ४०४, सरस्वती, दिसम्बर १९६१)। असल में निराला को हिन्दी को उचित स्थान दिलाने की उत्कट अभिलाषा थी। लेकिन उस समय के कुछ नेताओं ने अंग्रेजी का इतना गुणगान किया और प्रकारान्तर से हिन्दी का इतना विरोध किया कि निराला को आत्मिक चोट पहुँची। वे इन नेताओं के बड़े प्रशंसक थे, किन्तु उनकी हिन्दी-विरोधी नीति के कारण वे उनसे बहुत अप्रसन्न हो गए थे। हिन्दी में संस्कृत के या संस्कृत मूलक शब्दों के प्रयोग की कटु आलोचना से ली वे बहुत उद्धिग्न हो जाते थे। इस सब की उनपर यह प्रतिक्रिया हुई कि जब देश के कर्णधार देश में हिन्दी चलाना ही नहीं चाहते तो हिन्दी किसके लिए लिखा जाए? इस परिस्थिति का विरोध उन्होंने बड़े मौलिक ढंग से व्यक्त किया। हिन्दी के इतने बड़े कवि ने हिन्दी में बोलना तक छोड़ दिया वे अंग्रेजी बोलने लगे।


    सन् १९५४ ई. में कलकत्ते में निराला का अभिनंदन किया गया था। उस समय निराला विक्षिप्त नहीं, बीमार थे और पूर्णतः अन्तर्मुख हो चुके थे। अचानक गले में पड़ी मालाएँ उतारकर उठे और मंच से उतरकर चले गए और जैसे अपने-आप से ही बोले- Mov.na make us wolden headed. Mr. Second! you cannot catch us With with gold."


       राजकमल चौधरी ने मिस्टर वन' और 'मिस्टर सेकेंड' को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि 'निराला को इस मिस्टर वन' से घृणा थी और ‘मिस्टर वन' साहित्य और कला और संस्कृति के समस्त सृजन से दूर रहने वाली साधारण जनता है, जो तब निराला को नहीं पढ़ती थी, ‘ब्लेक' सिरीज के जासूसी उपन्यास पढ़ती थी और पारसी थियेटर की औरतों के खेमटा' नाच देखती थी। निराला को इस ‘मिस्टर सेकेण्ड' से घृणा थी और यह ‘मिस्टर सेकेण्ड' साहित्य को और साहित्यकार की ईमानदारी को सोने की जंजीरों में कैद कर लेना चाहता है, ताकि वह तोड़ती पत्थर, इलाहाबाद के पथ पर' और 'वह आता दो टूक कलेजे को करता, पछताता' और 'राम की शक्तिपूजा' और 'बादल राग नहीं लिखे-गाए जाएँ।' (पृ. ६९, ज्ञानोदय, फरवरी १९६२)


    मई १९५४ में निराला ने दारागंज इलाहाबाद स्थित आवास पर मिलने गए आनन्द नारायण शर्मा से कहा था ‘इधर मैंने हिन्दी पढ़ना लगभग छोड़ दिया है। मैं अंग्रेजी बोलता हूँ और अंग्रेजी ही पढ़ता हूँ।.... अंग्रेजी जरूर पढ़ो। हर भारतीय को अंग्रेजी जाननी चाहिए, अंग्रेजी भाषा भी और साहित्य भी। अंग्रेजी समझदारों की भाषा है। शेक्सपीयर को पढ़ो। रोमांटिकों में कीट्स और कॉलरिज को भी पढ़ सकते हो। वैसे इलियट मुझे बहुत पसन्द नहीं। मगर उसको भी पढ़ना चाहिए। पाउंड और ह्विटमैन को भी।' (पृ. ८२-८३, ज्ञानोदय, जनवरी १९६१) इसी क्रम में निराला ने अत्यंत आवेश और कारुणिकता के साथ कहा कि 'इधर मैं प्रायः नहीं लिखता। मैं निराला नहीं हूँ। पंडित रामसहाय त्रिपाठी का बेटा सूर्यकान्त त्रिपाठी अब इस दुनिया में नहीं है। मैंने अखबारों में एक वक्तव्य भेज दिया है। अभी वह छपा नहीं है। लेकिन बहुत जल्दी प्रकाशित हो जाएगा। उसमें मैंने बता दिया है कि रामसहाय त्रिपाठी के बेटे को क्या हुआ? निराला को रचनाओं के बारे में जानकारी पानी हो तो सहित्यकार संसद की मंत्रिणी श्रीमती महादेवी वर्मा से मिलो या डॉ. गंगा प्रसाद पाण्डेय से....।'


    निराला की पहली बातेंऔर फिर बाद के स्वागत कथन से इतना तो स्पष्ट है कि अंतिम अंतिम वर्षों में उनकी मन:स्थिति सामान्य व्यक्तियों से अत्यंत भिन्न हो चुकी थी और वे चेतना के ऊर्ध्वतल पर विचारण करने लगे थे, जहाँ कालिदास, शेक्सपीयर और रवीन्द्रनाथ उनके सहचर थेऔर मानो उनके संबोधन-संवाद का लक्ष्य भी इन्हीं में से कोई एक थे। उनका एक पैर (दाहिना) काफी सूज गया था और वे कुछ लँगड़ा कर चल रहे थे। आनन्द नारायण शर्मा की कॉपी पर निराला ने अंग्रेजी में इबारतें लिखकर हस्ताक्षर की जगह ‘सैयद हुसैन' लिखते हुए कहा कि आजकल यही मेरा नाम है।


    असल में ऐसी स्थिति के लिए वे लोग जिम्मेदार थे, जिन्होंने निराला को चैन नहीं लेने दिया, जबकि निराला ने हिन्दी के लिए अपने को खपा दिया था। हाँ, समझौता करके चलने को निराला अपनी शान के खिलाफ समझते थे, इसे उन्होंने अंतिम दिनों तक निभायायही कारण है कि जो लोग अंतिम दिनों में निराला के दर्शन को दारागंज गए, उन्हें क्या मिला? एक छोटा सा पुराना मकान। कमरे में दीपक के मंद, पीले प्रकाश का आलोक। एक छोटी-सी तिपाई पर पीतल का एक जलकलश। कुछ पुरानी कुर्सियांदीवार के बराबर एक अलमारी में बीस या तीस के करीब पुस्तकें। एक मेज। एक नीची चौड़ी-सी खाट। खाट पर तहमत लपेटे महाप्राण निराला। खाट के नीचे की फर्श, जैसे हफ्तों से बुहारे बगैर हो। सबकुछ ऐसा, जैसे कि कला और लक्ष्मी में बैर हो जैसे कि गुलाब के बरक्स कुकुरमुत्ता हो।


    सोवियत संघ के लेखक ई.पी. चैलिशेव ने दारागंज, इलाहाबाद पहुँचकर सुमित्रानंदन पंत, रामकुमार वर्मा और गिरिजाकुमार माथुर के साथ निराला को देखा था तो पाया था कि ‘निराला खाट पर अपने बड़े-बड़े हाथों को आड़े रखे और छाती पर सिर ढलकाए बैठे थे और चेहरे से चरम शांति और क्लान्ति टपक रही थी(पृ. १४, आजकल, अप्रैल १९६२)। चैलिशेव को पंत ने बताया कि आजकल कवि निराला अपनी भयंकर बीमारी के कारण वर्षों से रोगशय्या पर पड़े हैं। उनकी बीमारी पहले से अधिक विषम हो गई है, जिसके कारण वह कभी-कभी बेहोश हो जाते हैं।


   यह बात सभी ने स्वीकारी कि निराला अंतिम दिनों में सामानय व्यक्तियों से हिन्दी में कम बोलते थे, पर भिखमंगों, पागलों, हिन्दी में बातें करते थे। निराला लाचारों और पशुओं से हिन्दी में बातें करते थे। निराला का यह वैराग्य था तो अनोखा पर चिंताजनक। इस वैराग्य के कारण ही उनमें वह ताकत आई थी, जिसके बूते वह रवीन्द्रनाथ के घोड़े को थामने की हिम्मत रखते थे- ‘‘जिस समय रवीन्द्र का घोड़ा बँगला से छूटा तो उसकी रास थामने की हिम्मत किसी में न थी, लेकिन मैंने ही इस घोड़े को थाम लिया .... हमारा यह जो रंग है यह असल रंग नहीं। यह तो धूप में काला हो गया है। असल रंग तो, रवीन्द्रनाथ वाला था। इसका बहुत लम्बा-हिसाब-किताब है।' (पृ. ५३५, सम्मेलन पत्रिका, श्रद्धांजलि अंक)। आशय यह निकालना चाहिए कि अत्यंत दु:खमय स्थिति में भी उन्होंने अपना आत्मविश्वास नहीं खोया और अंतिम दिनों की घोर-से-घोर विपन्नावस्था में भी उन्होंने अपना ऊँचा मस्तक किसी के आगे तनिक भी झुकने नहीं दिया। सन् १९४९ से १९६१ (मृत्यु) तक लगभग १२ वर्ष निराला कमलाशंकर सिंह की देख-रेख में रहे, पैसे से नहीं, प्यार से जिन्दा रहे। बकौल हरिवंश राय बच्चन ‘दिमाग की खराबी के कारण जजमेंट में गलती हो सकती थी, पर किसी की चापलूसी या भय तो उसने कभी जाना ही नहीं, कुछ अपना जाये तो भी नहीं, सारी दुनिया अपनी तरफ आती हो और अपनी होती हो तो भी नहीं, अपने लिए तो उस व्यक्ति ने कभी कुछ चाहा ही नहीं।' (पृ. ४१३, सम्मेलन पत्रिका : श्रद्धांजलि अंक) उन्होंने अंतिम दिनों के दार्शनिक की-सी निरासक्तता बरकरार रखी, साहित्य के तीर्थराज बने रहे। अंत तक निराला यह कहने में तनिक भी नहीं हिचके कि 'जब तक यहाँ की जनता को भोजन, वस्त्र, शिक्षा तथा संरक्षण नहीं प्राप्त होता तब तक यहाँ किसी प्रकार का शासन सफल नहीं हो सकता, देश की मिट्टी का यही गुण है।' (पृ. ३६३, महाप्राण निराला, गंगा (पृ. ३६३, महाप्राण निराला, गंगा प्रसाद पांडेय) ऐसी ही खरीखोटी बातों के कारण निराला को पागल समझने का भ्रम जमाने को प्रायः होता रहता था।


       इलाहाबाद से निराला के उठ जाने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुछ प्राध्यापकों ने निराला की स्मति में एक “निराला शोध-संस्थान' की स्थापना की योजना बनाई थी और इसके लिए भारत सरकार से आर्थिक सहायता के लिए लिखा-पढ़ी भी आरंभ कर दी थी। यह योजना पूरी तरह तब, आकार क्यों नहीं ले पाई, यह तो ठीक-ठीक पता नहीं, पर 'सरस्वती' के तत्कालीन संपादक श्री नारायण चतुर्वेदी ने इस योजना पर कड़ी आपत्ति जाहिर करते हुए दिसम्बर १९६१ की 'सरस्वती' में 'निराला संस्थान' शीर्षक से संपादकीय टिप्पणी लिखी। असल में श्री नारायण चतुर्वेदी “निराला संस्थान' की स्थापना से नहीं, स्थापना की योजना के पीछे की मंशा से नाराज थे। बकौल चतुर्वेदी जी, 'हम इलाहाबाद विश्ववविद्यालय में “निराला शोध संस्थान के प्रस्ताव का कोई व्यावहारिक उपयोग या उसकी आवश्यकता नहीं समझते। उसके द्वारा शायद उसे सरकार और जनता से लाख दो लाख रुपया मिल जाए, उसके हिंदी विभाग को कुछ आर्थिक लाभ हो जाएं, प्रोफेसरों के लिए एक-दो जगहें हो जाए और उससे निर्मित ‘शोध ग्रंथों' से लेखकों को कुछ लाभ भी हो जाए किंतु उससे जनता का कोई विशेष लाभ न होगा।' श्रीनारायण चतुर्वेदी की नाराजगी का एक बड़ा कारण यह भी था कि निराला के जीवित रहते उनकी कविताओं/ रचनाओं को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में उचित स्थान नहीं दिया गया। श्री नारायण चतुर्वेदी अत्यंत तिखाई से पूछते हैं- ‘इस विश्वविद्यालय में अभी तक निराला जी की क्या कद्र थी? बी.ए. में उनकी केवल चार कविताएँ पढ़ाई जाती थीं। एम.ए. में उनकी ‘तुलसीदास' को ‘सहायक पाठ्य पुस्तक' होने का (मुख्य पाठ्यपुस्तक होने का नहीं) 'गौरव' दिया गया था। यह भी सुनने में आया है कि कुछ वर्ष पहिले वहाँ के एक विद्यार्थी ने अपनी डॉक्टरेट के लिए निरालाजी के काव्य' को अपना विषय चुना था, पर उसे निराला जी पर शोध करने की अनुमति नहीं दी गई। विश्वविद्यालय के ‘प्रास्पेक्टस' को देखने से पता लगता है कि हिंदी विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष की सात के भूतपूर्व अध्यक्ष की सात पुस्तकें, और वर्तमान अध्यक्ष की आठ पुस्तकें बी.ए. और एम.ए. के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं, जबकि निराला जी की केवल एक पुस्तक ‘सहायक पुस्तक के रूप में चमक रही है। हाई स्कूल की पाठ्य पुस्तकों में भी निराला जी की दो-एक कविताएँ पढ़ाई जाती हैं। किन्तु प्रयाग विश्वविद्यालय ने बी.ए. में उनकी चार' कविताओं से अधिक पढ़ाने की आवश्यकता नहीं समझी। जिस विश्वविद्यालय ने दो-तीन वर्ष पहले उनके काव्य पर शोध करने की अनुमति नहीं दी, वही अब सहसा निराला को इतना महत्वपूर्ण समझने लगा कि उनके नाम पर 'शोध संस्थान' बनाने की बात कर रहा है। ऐसा मालूम पड़ता है कि चतुर्वेदी जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी के प्राध्यापकों से किसी अन्य कारण से भी चिढ़ते थे क्योंकि इसी संपादकीय टिप्पणी में उन्होंने प्रोफेसरों पर तंज कसते हुए लिखा कि 'ये प्रोफेसर अपने को हिन्दी जनता से अलग समझते हैं और अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग पकाना चाहते हैं। और ऊपर से प्राध्यापकों को नसीहत देते हुए उन्होंने लिखा कि 'यदि उन्हें निराला जी में वास्तविक आस्था है तो उनका अध्ययन करें और करावें तथा जिस प्रकार अन्य कवियों पर शोध करते और कराते हैं, उसी प्रकार उनपर भी शोध करें, और उनके स्मारक के लिए अपनी थैलियाँ खोलें क्योंकि ‘हिंदी-जीवियों में अपेक्षाकृत वे ही सबसे धनी हैं।' श्री नारायण चतुर्वेदी ने औरों की भी खबर लेते हुए इसी संपादकीय में लिखा कि 'निराला जी सब मिलाकर सत्रह-अठारह वर्ष प्रयाग में रहे। पिछले बारह वर्षों से तो वे एक ही स्थान में रह रहे थे। अंतिम तीन वर्ष वे रोगशय्या पर पड़े रहे। इन तीन वर्षों में जो लोग उनका स्वास्थ्य देखने या उनसे समबेदना प्रकट करने भी नहीं आए, वे उनकी मृत्यु के बाद उनके सबसे बड़े ‘सार्वजनिक प्रशंसक हो गए हैं।' कवि सोहनलाल द्विवेदी ने भी 'निराला का निर्वाण और एक प्रश्न' शीर्षक कविता लिखकर हिंदी समाज को ही अंतिम दिनों में निराला की उपेक्षा के लिए जिम्मेदार ठहराया 'हमने उसे उपेक्षा से क्यों/ऐसा हेरा?/ उसने सदा सर्वदा को/हमसे मुँह फेरा।... वह था स्नेह प्यार का भूखा/ बड़े प्रेम से खाया उसने रूखा सूखा/किन्तु, उसे ही प्यार प्राण का दे न सके हम/कुछ दिन जीता और गर्व से/ऐसा भी वर ले न सके हम!' (पृ. ३९७, सरस्वती, दिसम्बर १९६१)।


    इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन हिन्दी प्राध्यापकों ने श्रीनारायण चतुर्वेदी द्वारा किए गए बौद्धिक हमले को किस रूप में लिया, इसे खोजना-देखना होगा। लेकिन श्रीनारायण चतुर्वेदी को एक पाठक ने पत्र भेजकर इस बात का उल्लेख किया कि देश के कुछ विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग अपने पाठ्यक्रमों में निराला को समुचित स्थान दिए हुए हैं, इसलिए चतुर्वेदी जी सभी हिन्दी विभागों पर एक ही लाठी से प्रहार न करें। पाठक द्वारा भेजे गएउस पत्र का जिक्र स्वयं श्रीनारायण चतुर्वेदी ने उस पत्र को हू-ब-हू उद्धत किया है, जिसमें कहा गया है कि 'बड़ौदा विश्वविद्यालय में १९५९ से बी.ए. (आनर्स) में विशेष कवि के रूप में निराला के काव्य साहित्य का अध्ययन हो रहा है। यद्यपि विकल्प के रूप में इस प्रश्नपत्र में अन्य कवियों के अध्ययन की भी व्यवस्था है, पर निराला साहित्य का अध्ययन करनेवाले छात्रों की संख्या सबसे अधिक रहती है। एम.ए. के प्रथम प्रश्नपत्र में उनका ‘तुलसीदास' यहाँ पूरा-पूरा पढ़ाया जाता है। अन्य पाठ्यक्रमों में भी उनकी ‘अलका' और ‘बिल्लेसुर बकरिहा' आदि पुस्तकें निर्धारित है। विशेष ज्ञातव्य यह है कि यहाँ के एक शोध छात्र ‘महाकवि निराला : जीवनी और काव्य' विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि के लिए शोध-कार्य कर रहे हैं। यह विषय विश्वविद्यालय से स्वीकृत हो चुका है। इसके अतिरिक्त इस विश्वविद्यालय में 'निराला परिषद' नाम की एक संस्था तीन वर्ष से चल रही है जिसकी स्थापना सन् १९५९ में महाकवि निराला की जन्मतिथि के अवसर पर वसंतपंचमी के दिन हुई थी। असल में बड़ौदा विश्वविद्यालय उस समय नया था और हिन्दी विभाग के तत्कालीन विभागाध्यक्ष कुँअर चन्द्रप्रकाश सिंह ने पाठ्यक्रम को समकालीन स्पर्श देने की पूरी कोशिश की थी।


    भले ही श्रीनारायण चतुर्वेदी को लगता रहा हो कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के तत्कालीन प्राध्यापक आत्ममुग्ध और आत्मग्रस्त हैं लेकिन निराला ने तो सराहना की थी। डॉ. हरिशंकर शर्मा ‘हरीश' ने निराला से मुलाकात का जिक्र करते हुए लिखा है कि वे बोले- 'कहाँ से आए हो।' मैंने कहा- पंडित जी, राजस्थान से अध्ययन करने के लिए आया हूँ। यहाँ प्रयाग विश्वविद्यालय में एम.ए. हिन्दी का स्नातक हूँ। वह बोले ‘अध्ययन एक तप है। खूब पढ़ना संघर्षों से घबराना मत।' मैं बोला- पंडित जी आपके आशीर्वाद से सब ठीक हो जाएगा। वे फिर गंभीर होकर बोले- “हमने भी हिन्दी के पीछे सब कुछ लगा दिया है। यहाँ कई बाहर के विद्यार्थी आते हैं। प्रयाग विश्वविद्यालय में अच्छे अध्यापक हैं।' (पृ. ४३२, सम्मेलन पत्रिका : श्रद्धांजलि अंक)


     यह अत्यंत विचारणीय प्रभु है कि क्या निराला ने पाठ्यक्रमों के लिए अपनी कविताएँ लिखी थीं? क्या साहित्य की अकादमियों और सरकार से सम्मान पाने के उद्देश्य से साहित्य रचा था? क्या आर्थिक योजनाओं की पूर्ति का माध्यम था उनका साहित्य? नहीं। राजकमल चौधरी के शब्दों में निराला को मॉडर्न लेखक बनकर जीना नहीं आया। क्योंकि निराला अपने अंतिम दिनों में बार-बार एक पंक्ति दुहराते थे-I am not subject to the limitations of my audience...I am making an example of playing the ame card in life and literature',


    सचमुच निराला ने जीवन और साहित्य में एक तरह का रोल अदा किया। हालांकि अंतिम दिनों में उनकी दानशीलता उनकी रचनाशीलता से प्रायः आगे निकल जाया करती थी। इलाहाबाद को निराला के होने का गर्व है, यह बात दीगर हैकि समाज के चौखटे को तोड़ने में वह अब स्वयं चोटिल