समीक्षा - देवेन्द्र कुमार का जीवन और कवि कर्म - स्वप्निल श्रीवास्तव

स्वप्निल श्रीवास्तव, भारत यायावर और देवेन्द्र कुमार बंगाली


       देवेंद्र कुमार धूमिल की पीढ़ी के कवि हैं। उनकी कविताएं पढ़ते हुए धूमिल की याद आती है। यह कुछ ऐसे है जैसे पाश की कविताओं से गुजरते हुए कुमार विकल की याद आए। लेकिन ये दोनों कवि अपनी संरचना में अलग हैं, उनका प्रकृति स्वतंत्र है। देवेंद्र कुमार ने एक इंटरव्यू में मुझसे कहा था कि धूमिल ने पटना में आयोजित भारतीय युवा लेखक सम्मेलन में उनसे कहा था कि हिंदी में तुम अकेले हो, जिससे मुझे स्पर्धा होती है। मुझे यह लगता है कि जो तुम लिख रहे हो, मैं नहीं लिख पा रहा हूं। कभी तुम्हारी कविता के नीचे तुम्हारा नाम काटकर अपना नाम लिख देता हूं। सोचता हूं यह मेरी क्यों नहीं हुई। मैं बज्र देहात का रहनेवाला हूं। जिस बात को लिखने के लिए मुझे पूरी कविता लिखनी पड़ती है, वह तुम दो पंक्तियों में कह देते हो।


    धूमिल का यह वाक्य बहुत महत्वपूर्ण है। यह वाक्य उन दिनों कहा गया था, जब दोनों कवि लिखने की शुरुआत कर रहे थे। आगे चल कर धूमिल का महत्व बढ़ा लेकिन देवेंद्र कुमार पर कोई खास चर्चा नही हुई। वे अपने जीवन-काल में उपेक्षित ही रहे। धूमिल को अच्छे आलोचक मिले। उनकी मृत्यु के बाद नामवर सिंह ने धूमिल को हिंदी कविता का उल्लेखनीय कवि बताया। उन्हें साहित्य अकादमी के पुरस्कार से विभूषित किया गया। देवेंद्र कुमार के खाते में इस तरह की घटनाएं दर्ज नहीं हुई।


    देवेंद्र कुमार साठ के बाद के कवि हैं। उनकी कविता में साठ के बाद की सामाजिक और राजनीतिक गतिविधि दर्ज है। हम जानते हैं कि साठ के बाद का समय कविता और कहानी में महत्वपूर्ण है। यह वही समय है जब आजादी के बाद देखे गए सपने टूट रहे थे। थोड़ा आगे चलें तो १९६२ में चीन का आक्रमण हुआ थायह मात्र एक हमला नहीं, कई मान्यताओं और लोकभंग का समय था। देवेंद्र कुमार कहते हैं -संस्कृत साहित्य से अब तक यह परम्परा रही है कि हिमालय पर दिनकर ने- मेरे नगपति मेरे अजेय है। देश का प्रहरी जिस विशाल, जैसी कविता लिखी, जहां कैलाश पर शिव रहते हैं, उनका तीसरा नेत्र दुश्मनों को नष्ट कर देगा। इस पूरी परम्परा से मोहभंग हुआ..उथल


    इसी तरह सत्य अहिंसा, पंचशील के नारों से भारतीय जनता का मोहभंग हुआ था। यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि मुक्तिबोध ने इसी काल-खंड में-अंधेरे में-कविता लिखी थी। यह कहानी के साठोत्तरी पीढी का आरम्भिक समय था। इस उथल-पुथल भरे समय ने हिंदी कहानी और कविता की दुनिया को गहरे प्रभावित किया जिसकी प्रतिध्वनि उस समय के साहित्य में देखी जा सकती है। देवेंद्र कुमार इसके अपवाद नहीं है। कोई लेखक या कवि अपने समय को अपनी रचना में नजरअंदाज नहीं कर सकता। अगर करता है तो हमें उसकी चेतना पर संदेह होता है।


  देवेंद्र कुमार के देहांत के बाद कई दशक बीत चुके है लेकिन उन पर सुनियोजित रूप से कुछ भी नही लिखा गया है। उनके शहर के आलोचकों ने भी उन पर कृपा दृष्टि नहीं डाली, बाहर के लोगों को क्या कहा जाए, उनके मित्र और हिंदी के लोकप्रिय कवि केदारनाथ सिंह भी उनके लिए कुछ नही कर सके जिसका दुख देवेंद्र कुमार मुझसे प्रकट करते रहते थे। हां, उनकी मृत्यु के बाद उन पर कुछ संवेदनात्मक लेख जरूर लिखे गए। यही हिंदी कवि की ट्रेजिडी है। कवि जब तक बूढ़ा नहीं हो जाता, उसकी मृत्यु नहीं हो जाती, वह चर्चा के योग्य नहीं माना जाता। हालांकि चतुर-सुजान कवियों और लेखकों ने यह स्थिति बदल दी है। वे अपने जीवन-काल में अपनी मशहूरियत के तमाम इंतजाम कर लेते हैं। देवेंद्र कुमार इस कला से भिज्ञ नहीं थे।


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      कुछ साल पहले उनके हमनाम कवि देवेंद्र आर्य ने- आधुनिक हिंदी कविता के पहले दलित कवि-नाम से एक किताब प्रकाशित की थी जिसमें उनके जीवन और कविता के बारे में अच्छी जानकारी दी थी। बहुत सी अप्रकाशित कविताओं का पता चला। देवेद्र ने श्रम के साथ इस काम को सम्भव किया। मेरे विचार से उन्हें दलित कवि के शीर्षक के अंतर्गत नहीं रखना चाहिए। कवि सिर्फ कवि होता है। देवेंद्र कुमार अपने चेहरे-मोहरे से कवि लगते थे, दलित नहीं। इन पंक्तियों के लेखक को अंत तक उनकी जाति का पता नहीं चला। इसमें रुचि भी नहीं थी। बस आदमी को अच्छे-बुरे कोटियों में विभाजित किया जा सकता है। यही बात किसी कवि के साथ लागू होती है। जब उनके मृत्यु भोज में उनके गांव गया था, तब यह पता चला कि वे दलित हैं। इसका कोई भी प्रभाव मेरे ऊपर नही पड़ा। बल्कि उनके प्रति मेरे आदर का भाव बढ़ गया। मुझे कबीर की याद आई। जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का पड़ा रहन तो म्यान। जैसे साधु की जाति नहीं होती, उसी तरह कवि को जाति-धर्म की सीमा में नहीं बांधना चाहिए। ऐसा करना उसे सीमित करना है।


    अब देवेंद्र कुमार पर एक पूर्ण किताब-देवेंद्र कुमार बंगाली नाम से आई है जिसके रचयिता उनके अंतरंग मित्र और हिंदी के आलोचक डॉ. कृष्ण चंद्र लाल हैं। इस किताब देवेंद्र कुमार के जीवन के अनछुए प्रसंगों और उनके कविता समय के बारे में सम्यक विवेचन किया गया है। इस किताब में सात अध्याय और दो परिशिष्ट हैं।


    जीवन-परिचय का अध्याय उनके जीवन की घटनाओं और प्रसंगों के अनेक स्थलों से हमें परिचित कराता है। वे कुशीनगर जनपद के कसया मे १८ जुलाई १९३२ में पैदा हुए थे। शुरुआती शिक्षा गांव के स्कूल में हुई। उसके बाद क्यूलियर स्कूल से मिडिल पास हुए। इसी कालेज से इंटर करने के बाद १९५४ में गोरखपुर आ गए। उनके जीवन का रचनात्मक समय सेंट एंड्यूज कालेज गोरखपुर में शुरू हुआ। वहां उनके सहपाठी परमानंद श्रीवास्तव, भगवान सिंह रामसेवक श्रीवास्तव, विश्वजीत और गिरिधर करुण बने। इन लोगों के बीच उनके कवि की निर्मिति हुई। वे देवेंद्र कुमार से ज्यादा बंगाली नाम से जाने जाते रहे। यह नाम देवेंद्र कुमार नाम से ज्यादा ख्यात हुआ। फिर वे रेलवे में लिपिक के ओहदे पर लग गए। वे शहर के जगन्नाथपुर मुहल्ले में एक अकेली कोठरी में अकेले रहने लगे। किताब के लेखक उनके समीप छोटे काजीपुर में रहते थे। यहीं से उनकी अंतरगता विकसित हुई। लेखक लिखते है कि बंगाली जी बत्तीवाले स्टोव पर चावल चढ़ा कर उनसे मिलने चले आते थे। वे मोमबत्ती की रोशनी के नीचे चाय बनाते थे। ऐसी घटनाएं किसी कवि के जीवन में ही घटित हो सकती हैं। कवि का स्वभाव अन्य से अलग होता है। कुछ ऐसी घटना मेरे प्रिय कवि ज्ञानेंद्रपति के साथ हुई। जब बनारस में उनसे मिलने गया तो उनकी उंगलियों में पट्टी बधी हुई थी। मैंने यह बात लिव-इन-रिलेशन में रहनेवाली महिला मित्र से पूछा। जबाब कवि ने दिया। उन्होंने बताया कि चाय बनाते समय केतली का ढक्कन केतली में गिर गया था, उसे निकालने की कोशिश में उंगलियां जल गई। लोगों ने कहा-यह काम कोई बिहारी ही कर सकता है, लेकिन मेरा जबाब था कि यह काम कवि ज्ञानेंद्रपति ही कर सकते हैं। किसी कवि के जीवन के ये प्रकरण कवि की मस्ती और फक्कड़पन को दर्शाते हैं। उन्हीं के बीच कविता जन्म लेती है।


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    बंगाली जी का जीवन सुखी जीवन नहीं था, वह त्रासद घटनाओं से भरा हुआ था। माता पिता के देहांत के बाद फरवरी १९८४ में उनके बड़े बेटे असित की एक दुर्घटना में हुई मृत्यु ने उन्हें अंदर से हिला दिया था। वे टूटते चले गए। यह दुर्घटना तब हुई जब उनकी उम्र ५१ साल की थी। उन्होने फरवरी १९८४ नामक कविता में लिखा है-मां बाप के मरने पर नहीं/पर जवान बेटे के मरने के बाद/लगता है जैसे टूवर हो गया हूं।


  दुख की यह छाया उनके चेहरे पर साफ-साफ दिखाई देती थी लेकिन कभी कभी वे इसे छिपाए रखने की कोशिश करते रहते थे। यह अभिनय उनके जीवन का हिस्सा बन गया था। उनकी मित्र मंडली में परमानंद श्रीवास्तव, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, बादशाह हुसेन रिजवी, लालबहादुर वर्मा, सुरेंद्र काले, हृदय चौरसिया, गिरीशचंद्र श्रीवास्तव और इस किताब के लेखक शामिल थे। 


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    इस किताब का अध्याय रचना यात्रा, नवगीत के आंगन में-एक पेड़ चांदनी बेहद महत्वपूर्ण है। यह बंगाली जी के रचना प्रक्रिया को समझने में हमारी मदद करती है। जैसा हम जानते है कि उनके लिखने की शुरुआत गीतों से हुई। वे अपने गीत-एक पेड़ चांदनी से ज्यादा मकबूल हुए। यह गीत धर्मयुग में प्रकाशित हुआ था और इसकी घूम सी मच गई थी। गीत की कुछ पंक्तियां देखें-एक पेड़ चांदनी लगाया है आंगने/फूले तो आ जाना एक फूल मांगने/ढिबरी की लौ जैसे लीक चली आ रही/बादल रोता है बिजुली शरमा रही/मेरा घर छाया है मेरे सुहाग ने ...।


      यह गीत उनके जीवन का पर्याय बन गया। इस गीत नाम से लोग उन्हें जानने लगे। हिंदी के कवि केदारनाथ सिंह ने कहा था-निराला के बाद नवगीत को बंगाली जी ने सही दिशा में विकसित किया ..केदार जी का यह कथन उपयुक्त है। बंगाली जी ने नवगीत को शब्द के साथ अद्भुत बिम्ब दिए। बहुत से लोक शब्दों का अविष्कार किया। किताब के लेखक ने इस अध्याय में उनके प्रसिद्ध गीतों की व्याख्या की है। उनका एक गीत देखें जो आज के संदर्भ को नया अर्थ देता है -


     ऐसे, वैसे, कैसे कैसे दिन हुए/जो कभी मुमकिन न थे, मुमकिन हुए/एक चिड़िया बोलती है ठूठ से/सभी चेहरे लग रहे हैं झूठ से/बोल के आसार कठिन हुए।


    इस गीत को पढ़ कर बहादुरशाह जफर की गजल के कुछ अंश याद आते हैं - 


      बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी न थी


    जैसी अब है तेरी महफिल कभी ऐसी न थी।


    चश्मे-कातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन


    जैसी अब हो गई कातिल कभी ऐसी न थी।


    लेखक का उनके गीतों के बारे में यह कथन महत्व का है। वे लिखते हैं-जो लोग गीत-विरोधी बातें करते हैं, गीत को भावुकता से जोड़ते हैं और उसे आज के संदर्भ में एक असमर्थ विधा मानते हैं, उन्हें बंगाली जी के गीतों का अध्ययन करना चाहिए। बंगाली जी के गीतों में मानव-जिंदगी के दख दर्द हैं, हर्ष विषाद हैं। अपने आसपास का जीवंत बोध है, घर परिवार ही नहीं, देश-समाज की समस्यायों के यथार्थ चित्र हैं.....।


    ___जो भी बंगाली जी के गीतों को ध्यान से पढ़ेगा वह इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकता। मुश्किल यह है कि कतिपय लेखक और आलोचक जीवन और समाज से नहीं, गीत और कविता से क्रांति की कामना करते हैं। वे जीवन को विचारधारा से छोटा मानते हैं। यह प्रवृति किसी रचना के मूल्यांकन में बाधक है।


    जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका कि देवेंद्र कुमार गीतों की दुनिया से कविता के संसार में दाखिल हुए है। उनकी कविताओं में गीतों की लय और ध्वनि महसूस की जा सकती है। उनके कविता की भाषा सुगठित है। उसमें बौद्धिकता नहीं ।


  देवेंद्र कुमार की कविताओं की प्रथम प्रस्तुति पहचान सिरीज (सम्पादक-अशोक बाजपेई) में हुई थी। उनकी कविताएं-कैफियत शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तिका में उनकी १२ कविताएं संकलित की गई थीं। इन कविताओं के प्रकाशन से लोगों का ध्यान देवेंद्र कमार की कविताओं की तरफ गया। देवेंद्र कुमार जीवन के विविध अनुभव के कवि है। उनकी कविताओं में लोक के साथ विचार भी है। लोकजीवन के विलक्षण बिम्बों के माध्यम से काव्य अभिव्यक्ति करते हैं। यह सघनता कम कवियों में दिखाई देती है। संभवत: देवेंद्र कुमार ऐसे कवि हैं जिन्होंने पशु-जगत और परिंदों पर कविताएं लिखी है-जैसे भैसा, बंदर, सुअर, भेडिया कुत्ता-कठफोड़वा, चील और सांप आदि। इन कविताओं में सिर्फ उनके बारे में विवरण नहीं है बल्कि व्यवस्था का विरोध भी है। देवेंद्र कुमार की इन कविताओं में व्यंग्य खूब है। उनकी कविता कुत्ता में उसका भाषण देखिए-पेड़ लगवाऊंगा/नहर खोदवाऊंगा/गांव-गांव बिजली पहुंचाऊंगा/आप आजमा कर देख लीजिए/एक बार ठिकाने लग गए/फिर पांच साल तक सड़क पर मुंह नहीं दिखाउंगा ..।


    उनकी एक अन्य कविता- एक था बढ़ई, देखें और उसके प्रतीकों पर ध्यान दें-लोग इसी सीढ़ी से चढ़ कर/छत पर पेड़ पर/और पता नहीं कहां से कहां पहुंच गए और एक वह था जो अपनी छान-छप्पर/खर बांस की जुगाड़ में जहां था/वहीं रह गया है।


  डॉ. लाल इस तरह अनेक कविताओं के उदाहरण देते हुए हमे देवेंद्र कुमार की काव्य प्रतिभा से परिचित कराते हैं। लेखक चूंकि उनके अत्यंत निकट रह चुके हैं इसलिए गहराई से उनकी कविताओं के भीतर जाकर उतरते हैं। बहुत साल पहले लिखी गई कविताएं, लगती हैं कि जैसे आज के लिए लिखी गई हैं। आज का लोकजीवन पहले जैसा नहीं रह गया। पूंजी और राजनीति के दखल ने उसे जटिल बना दिया है। लोकजीवन में मोहक दृश्य नहीं रह गए है। पूंजी के तंत्र ने उसे बदल दिया है।


  पहले गांव बहुत ही बड़ा था/लोग छोटे थे/और जैसे जैसे लोग बड़े होते गए/गांव छोटा होता जा रहा है।


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      देवेंद्र कुमार को लोकजीवन और राजनीति की अच्छी समझ है। उनकी कविताएं इसे प्रमाणित करती हैं। वे अपनी कविताओं में आक्रमकता से बचे हुए हैं। वे जानते है कि लाउड होने के बिना हम अपनी बात कह सकते हैं।


    देवेंद्र कुमार बंगाली की कविताएं- विशद अनुभव लोक में उनकी महत्वपूर्ण कविताओं की व्याख्या की गई है-जिसे उपर्युक्त पंक्तियों में लिखा जा चुका है। वे लिखते हैं-बंगाली जी की कोई कविता दृष्टि ओझल करने लायक नहीं है। हर कविता में जीवन का कोई न कोई मार्मिक यथार्थ और जमाने का सत्य निहित है। गांव, घर परिवार, स्त्रीपुरुष, बेटा-बेटी, रिश्ते-नाते, मां बाप, ताल-तलैया, खेतखलिहान, चिरई-चुरूंग, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, जानवर, कीड़े-मकोड़े-मकोड़े, चांद-सूरज, नदी-बन, फूल-पत्तियां, किसान, मजदूर, नेता, सत्ता-विरोध, लोकतंत्र जंगल तंत्र आदि सब कुछ उनकी कविताओं में है, जिसके साथ और जिनके बीच हम जीते है..


    इस तरह लेखक उनकी कविताओं में आए विवरणों की फेहरिस्त हमारे सामने प्रस्तुत करता है। यह इस बात का प्रमाण है कि लेखक ने बंगाली जी की कविताओं का विशद अध्ययन किया है। मुझे कभी कभी यह भी लगता है कि उन्होंने यह पुस्तक लिख कर देवेंद्र कुमार का ऋण उतारा है।


    देवेंद्र कुमार की काव्य-चेतना को जानना हो तोप्रतिरोध की चेतना : बहस जरूरी है, जरूर पढ़ा जाना चाहिए। बहस जरूरी है, कविता संग्रह १९८० के आसपास प्रकाशित हुआ। यह समय कविता की दुनिया का महत्वपूर्ण समय है- जब कविता की भाषा और कथ्य में अनेक बदलाव देखे गए। कई बड़े और युवा कवियों के संग्रह आए। उनके समकालीन कवि-मित्र केदारनाथ सिंह का संग्रह-जमीन पक रही है-का भी यही समय है। केदार जी के इस कविता संग्रह की खूब चर्चा हुई। उन्हें दिल्ली में होने का लाभ मिला। बंगाली जी दिल्ली से दूर के शहर गोरखपुर में रहते थे। वे किसी बड़े ओहदे पर नहीं थे। साहित्य में किसी कवि या लेखक की चर्चा उसकी प्रतिभा के आधार पर नहीं होती। जातक किस पद पर है, किस शहर में रहता है, यह बात ज्यादा मायने रखती है। बहुत से साहित्यकार इस कसौटी पर खरे नहीं उतरे इसलिए उन्हें कविता के विमर्श से बाहर कर दिया गया। इन साहित्य के केंद्रों में रहनेवाले साहित्यकारों को सहज ही आलोचक मिल जाते हैं। प्रिंट मीडिया का सहयोग भी मिलता है। यह हमारे साहित्य-समाज का प्रचलित दृश्य है। केदारनाथ सिंह बड़े कवि हैं। उन्होंने हिंदी कविता को समृद्ध किया है। देवेंद्र कुमार रेलवे में मामूली मुलाजिम थे। उनकी दिल्ली तक पहुंच नहीं थी। वे किसी आलोचक के प्रिय कवि नहीं बन सके और न आलोचकों की गणेश-परिक्रमा ही की। उनका जो हश्र हुआ, वही होना था। इस महत्वपूर्ण संग्रह की तनिक भी चर्चा नही हुई, जबकि यह आठवें दशक का उल्लेखनीय संग्रह था।


  देवेंद्र कुमार के जीवन में बिडम्बनाओं की केंद्रीय भूमिका थी। वह जीवन भर विपत्तियों से उलझे रहे। साहित्य में भी कीर्ति नहीं मिली। उनके जीवन-काल में उन पर कोई चर्चा नहीं हुई। हां उनकी मृत्यु के कई सालों बाद उन पर चर्चा हुई। साहित्य की दुनिया हम जैसे लोगों की कोई औकात नही है, लेकिन अपनी सीमा भर उनकी कवि-भूमिका को याद करते रहे। लेकिन उन्हें किसी पारस-आलोचक का स्पर्श नही मिल पाया, जिससे उनकी कविता कुंदन हो जाती।


    बहस जरूरी है-कविता आठवें दशक में प्रकाशित लम्बी कविताओं में एक है जिसके भीतर समय और इतिहास का विमर्श देखा जा सकता है।


    बहस जरूरी है बहस से भागो मत/बहस करो जरूर बहस करो/और जम कर और अपनी पूरी तैयारी के साथ/ हा-हथियार के साथ बहस करो/लेकिन इस कदर/इतना ज्यादा बेमतलब बहस में/मत उलझो कि कंधे से झोला/आंख से चश्मा, सिर से टोपी, पैर से जूता/और सामने से कोई तश्तरी कोई उड़ा ले जाए ..।


  यह कविता आज की लोकत्रिक व्यवस्था और मतदाताओं पर एक जरूरी टिप्पणी है। कविता यह आपातकाल के समय और उसके बाद हुए अनेक राजनीतिक परिवर्तनों पर गहरा तंज कसती है। इस कविता में लोकमुहावरों का उपयोग किया गया? जैसे


    बकरी का बच्चा हंडार से बच गया/तो बूचड़ उठाकर ले जाता है/जाएगा कहां


    या.... दूर मत जाओं/गेहुंअन को ही देखो/ सामने पड़ने पर वह किस तरह/फुफकार कर पूंछ पर खड़ा हो जाता है/डर के मारे लोग रास्ता छोड़ देते हैं।


    इस अध्याय में लेखक ने इस संग्रह की अनेक कविताओं-जैसे पतझर, कोठ का बांस, लोकतंत्र के कटघरे में की संदर्भ के साथ चर्चा की है।


    देवेंद्र कुमार के कवि रूप से हम परिचित ही थे लेकिन बहुत कम लोगों को मालूम है कि वे कहानियां भी लिखते थे। इस किताब में उनकी कहानी पेड़ संकलित है। इसी किताब में उनके भोजपुरी गीत भी दिए गए हैं। उनका जीवन अगर हाहाकार से न भरा होता तो शायद उनका अवदान पहले से अधिक होता। तो क्या उनकी भूमिका पर चर्चा होती? देवेंद्र कुमार तो इस दुनिया में नहीं है। सुधी पाठकों को उनके बारे में बहुत जानकारी नहीं है। आलोचकों का मुख्य काम तो यही है कि वह अपने समय के रचनाकारों के कृतित्व को सामने लाए। अफसोस यह है कि आलोचना अपना काम नहीं कर पा रही है। वह कई शाखाओं में विभाजित है। उसका ध्यान उन्हीं रचनाकारों पर है जो उनके सान्निध्य में हैं।


    डॉ. कृष्णचंद्र लाल ने देवेंद्र कुमार के जीवन और कवि-कर्म पर बहुत अच्छी किताब लिखी है-जिससे उनके जीवन और रचना के बारे में सम्यक जानकारी मिलती है। इस पुस्तक में बंगाली जी के गीत और महत्वपूर्ण कविताएं भी संकलित हैं-जो इस किताब को मुकम्मल बनाती हैं। हम जैसे लोग धन्य हैं जिन्हें देवेंद्र कुमार जैसे कवि का सामीप्य मिला। वे बार बार याद आनेवाले कवि है-जो अच्छे कवि के साथ बेहतर मनुष्य थे। अच्छा कवि एक अच्छा व्यक्ति हो, यह संयोग अब विरल हो गया है।


    इस लेख को खत्म करते हए उनकी आखिरी कविता की याद आ रही।


  ईश्वर!


    जितना तोड़ सको तोड़ो पर इतना न करो कि जुबान बंद हो जाए


    कल तुम्हारे भी बच्चे होंगे/कुछ उनका ख्याल करो


    भले ही यह कविता कारुणिक है लेकिन यह ईश्वर के लिए एक चुनौती भी है। इस कविता को पढ़ते हुए भगत सिंह का लेख-मैं नास्तिक क्यों हूं, की सहज याद आती है। बंगाली के पास कोई ईश्वर नहीं था। उनकी कविता ही उनका ईश्वर थी। उसने अंत तक उनका साथ दिया।


      देवेंद्र कुमार बंगाली (व्यक्तित्व और कृतित्व), लेखक : कृष्ण चंद्र लाल, प्रकाशक : उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ, ६-महात्मा गांधी मार्ग, हजरतगंज, लखनऊ२२६००१, उत्तर प्रदेश, पेपरबैक : मूल्य-१३५ रुपए


                                                                    सम्पर्क : 510-अवधपुरी कालोनी, अमानीगंज, फैजाबाद-224001, मो.नं : 9415332326