लघु कथाएं - ठंडी चाय - नज़्म सुभाष
ठंडी चाय
"घर वालों को चकमा देकर लड़की अपने प्रेमी के साथ फरार"
द्वारिका बाबू को अखबार खोलते ही यह हेडिंग दिखी तो उनके दिमाग की सारी नसें चटक गईं...आगे खबर विस्तार से थी मगर उन्हें महसूस हुआ कि आंखों के आगे अंधेरा छा गया है और आगे की खबर पढ़ पाना उनके बूते से बाहर है। वो मन ही मन बुदबुदाए-“कम्बखत को मां बाप का जरा भी खयाल नहीं आया...जिसे इतने नाजों से पाला होगा, पढ़ायालिखाया होगा वही लड़की बाप की नाक कटवाकर प्रेमी के साथ रंगरेलियां मनाने चली गईं...थू है ऐसी औलादों पर..."
उनका मुंह कसैला हो गया था।
"बाबूजी चाय" दिव्या ने चाय की कप मेज पर रखते हुए कहा मगर बाबूजी न जाने कहाँ खोए थे उन्होंने सुना ही नहीं।
"बाबूजी.....क्या हुआ?"
उसने दुबारा आवाज दी तो जैसे वो नींद से एकाएक जागे।
"आं....हाँ....ठीक है रख दो।" वो बेखयाली में बोल गए।
"क्या हुआ बाबूजी? आप कहाँ खोए थे?"
"कुछ नहीं दिव्या...आजकल के लड़के लड़कियाँ इतने बेशर्म हो गए हैं कि क्या कहूं..घिन आती है ऐसी औलादों पर..मां-बाप की इज्जत का तो जरा भी खयाल नहीं"
"बाबूजी आप भी न...कुछ बताएंगे या सिर्फ पहेलियां बुझाएंगे...आखिर हुआ क्या?"
इस बार उन्होंने अखबार आगे कर दिया और चीखे"मां बाप की इज्जत का जनाजा निकालने वाली ऐसी औलादों का क्या भविष्य होगा...इनको तो गोली मार देनी चाहिए।"
"गलतियाँ किसी से भी हो सकती हैं बाबूजी"
"ये गलती नहीं, मां-बाप के मुंह पर तमाचा है।"
"तब तो इन्होंने गोली मारने वाला ही काम किया है....मगर आप किसे-किसे गोली मारेंगे?"
"मैं कुछ समझा नहीं.. तुम कहना क्या चाहती हो?" उनके चेहरे पर उलझनें दृष्टिगोचर होने लगीं।
"बाबू जी मैं तो कभी इन सब चक्करों में नहीं पड़ी...आपने जैसा चाहा वैसा किया....फिर मैं शादी होने के बावजूद पांच साल से यहाँ क्यों हूं?....आखिर मेरा भविष्य क्या है?"
"मुझे क्या पता था राजीव इतना कमीना होगा कि पैसों के लिए तुम्हारी जिंदगी तक लेने को उतारू होगा"
"पसंद आपने ही किया था बाबूजी"
"तुम्हारा दुख समझ सकता हूं बेटी..मैं उस कमीने को समझ न पाया...मुझसे गलती हुई।"
"और इस गलती का परिणाम जीवन भर मैं भुगतूं?"
"दिव्या......."
उसके लफ्ज सीधे उनके मर्म को भेद गए थे। वो तड़पकर रह गए। इसका कोई जवाब उनके पास न था।
"बाबूजी तो अब बताइए न....आप किसे-किसे गोली मारेंगे?"
द्वारिका बाबू को महसूस हुआ एक तेज रफ्तार गोली उनके जिगर के पार होकर गुजर गई है। उन्होंने कसमसाकर पहलू बदला और अखबार उठाकर उस पर नजरें गड़ा दीं।
दिव्या अब भी खड़ी उनके जवाब का इंतजार कर रही है। मेज पर रखी चाय उसके अरमानों की तरह ठंडी हो चुका है जिस पर मक्खियों ने डेरा जमा लिया है।
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