लघु कथाएं - अंतिम बार - नज़्म सुभाष

लघु कथाएं -  अंतिम बार - नज़्म सुभाष


 


अंतिम बार


अम्मा की जान अटकी थी। वो बार बार कसमसातीं ऐसा लगता अब प्राण निकले मगर न जाने क्यों हर बार दो चार सेकंड के झटकों के बाद वो फिर शिथिल हो जातीं। नातेरिश्तेदार सब घेरे खड़े थे। पारिवारिक पंडीजी सिरहाने बैठे सुंदरकांड का पाठ कर रहे थे। मुंह में गंगाजल भी डाला जा चुका था ताकि उन्हें ज्यादा तकलीफ न हो मगर न जाने क्या था जो उन्हें रोके था। करीब घंटा भर होने को आया, लाख प्रयत्नों के बाद भी उनके प्राण अटके ही रहे।


    अब तो धैर्य जवाब दे रहा था। धीरे-धीरे रिश्तेदार भी मन ही मन बड़बड़ाने लगे थे। कम्बखत बढ़िया फालत में लटकी है। मरे तो दाह संस्कार करके छुट्टी पाएं और घर जाकर अपना काम-धाम देखें। मगर इन सबके बीच दोनों बहुओं की नजर अम्मा की संदूकची पर थी जो हमेशा उनके बिस्तर के सिरहाने ही रहती थी जिस पर जंग लगा एक मोटा ताला हमेशा झलता रहा। जरूर बढिया ने इसमे गहने गरिया छुपाए होंगे तभी तो हमेशा छाती पेटे लगाकर रखती है..पता नहीं लादकर ले जाएगी क्या....


    धैर्य बहुओं का भी जवाब दे रहा था मगर करें तो क्या... मेहमान इकट्ठा हैं.. बस किसी तरह उनके मरने की देर थी...मरते ही ताला तोड़ दिया जाएगा।


    अम्मा बार-बार कुछ बोलने का प्रयत्न कर रही थीं मगर आवाज ही बाहर न आ रही थी। वहां पर खड़े सभी लोगों ने उनकी आवाज सुनने की तमाम कोशिशें की पर कामयाब न हो सके। लोग उनकी बात समझने के लिए तरहतरह की तरकीबें बता रहे थे मगर अंत में सहमति इस पर बनी कि अम्मा को पेन पकड़ा दिया जाए शायद वो कुछ लिख सकें। लिहाजा दौड़कर एक पेन और कॉपी का इंतजाम किया गया। बड़ी मुश्किल से सहारा देकर उन्हें पेन पकड़ाया गया।


    उन्होंने कांपते हाथों से बड़ी मशक्कत के बाद अस्पष्ट सा कुछ लिखा


    जिसे उनके बड़े बेटे कुशाग्र ने पढ़ा-'"पान"


    उन्हें हैरानी हुई। क्या अम्मा पान खाना चाहती हैं? मगर उन्होंने अपने पूरे जीवन में अम्मा को कभी पान खाते न देखा ..यहाँ तक कि कोई घर में पान खाकर आ जाए तो अम्मा बड़बड़ाने लगती थीं फिर आज पान की ख्वाहिश... कहीं अम्मा कुछ और तो नहीं लिखना चाहती थीं।


    उसने अपने छोटे भाई की तरफ कॉपी बढ़ा दी-"प्रकाश देखो जरा ..अम्मा ने क्या लिखा है?"


    प्रकाश ने भी पढ़ा तो उसे भी पान ही समझ आयाअब शक की कोई गुंजाइश न थी। लिहाजा एक आदमी को भेजकर पान मंगाया गया और अम्मा के मुंह को हल्के से दबाकर बाएं गाल की ओर सरका दिया गया। अम्मा के चेहरे पर अब संतुष्टि थी। उन्होंने आहिस्ता आहिस्ता दो तीन बार मुंह चलाया ही था कि एक जोर की हिचकी के साथ उल्टी हुई और अम्मा के प्राण पखेरू उड़ गए।


    और इसके साथ ही घंटे आध घंटे का रोना गाना शुरू हुआ...फिर दाह संस्कार की तैयारियां शुरू हो गई।


    करीब दो घंटे बाद उनकी शव यात्रा जैसे ही निकलकर आंखों से ओझल हुई दोनों बहुओं ने संदुक उठा ली और मेहमानों से नजर बचाकर एक कमरे में घुस गईं। हथौड़े के कई जोरदार प्रहार के बाद अंततः जंग लगा ताला टूट गयाउनकी आंखों में चमक उतर आई। जल्दी से कुंडी खोलकर उसका ढक्कन ऊपर उठाया। एक सुहाग का जोड़ा सामने था। जरा और खोदा तो एक पानदान दिखा। लगता है बुढ़िया ने इसी में गहने छुपाए होंगे, यही सोचकर उसका ढक्कन खोला तो एक पीला पड़ चुका तह लगा पुर्जा हाथ लगा। बड़ी बहू उसे खोलकर पढ़ने लगी-"मेरे जीवन की अमूल्य निधि ! तुम्हें बड़े अरमानों के साथ घर से लेकर आई थी मगर आज तुम्हारे लिए न जाने कितने जूते और लात घूसे खाए हैं जबकि इस चौखट पर आए मात्र तीन दिन हुए हैं। स्वागत अच्छा ही रहाडबडबाई आंखों को पोछते हुए अम्मा ने चलते समय कहा था "बिटिया अब तुम्हारा घर वही है, हमारी लाज रखना।" लिहाजा निभाऊंगी अम्मा...आपकी परवरिश पर उंगली न उठने दंगी। मगर सारे सपने सारी उम्मीदें धराशाई हो चुकी हैं। पिताजी ने तो कभी चपत तक न लगाई थी......


    खैर "इनको" मेरा पान खाना पसंद नहीं जबकि खुद शराब पीकर आते हैं। ठीक है....मेरी नियति यही सहीअंतिम बार तुम्हें चूम रही हूं। आज के बाद तुम्हें कभी हाथ न लगाऊंगी। मगर हाँ यह वादा करती हूं, तुम हमेशा मेरी यादों में जिंदा रहोगे"


                                                                                                                                                              २३ जून १९५१


    पूर्जा पूर्जा पढने के बाद दोनों बहओं ने हैरत से पानदान को देखा


    पपड़ी बनकर टुकड़ों में छितराया हुआ कत्था- चूना ...सड़कर बदरंग हो चुकी कटी सुपारियां...और एक सूती कपड़े में लिपटा हुआ जर्द पान का पत्ता ...1


                                                                                  सम्पर्क : 356/केसी-208, कनकसिटी आलमनगर, लखनऊ-226017, उत्तर प्रदेश