कविताएं - सूर्य नमस्कार - धर्मपाल महेंद्र जैन
सूर्य नमस्कार
मौन आकाश के पूरब में
टकटकी लगा दिशाएँ
कुछ क्षण रहती हैं विस्मित
कि तुम सात अश्वों पर निर्बाध दौड़ते हुए
सृष्टि संग करने लगते हो संवाद
तुम्हारी किरणें फैलाती जाती हैं
इसका अनुवाद कि उठो, उठो।
अजान के आरोह में
टनटना उठती हैं घटियाँ
मेरे साथ उठ जाते हैं
वृक्ष, पक्षी, पशु सब
तुम्हारे नेत्रों से धरती देखने के लिए।
धरा के साथ हर क्षण
तुम्हारी परिक्रमा करते हुए
जब कभी तुम्हारे असमाप्त प्रकाश को
अंजुलियों में भर आँखों पर लगाता हूँ
मैं अपनी साँसों में भर देता हूँ संभावनाएँ
और समय को दे देता हूँ रथ
वहाँ पहुँचने के लिए
जहाँ तुम जा सकते हो
मेरे अनंत नमस्कार के साथ।
धर्मपाल महेंद्र जैन
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