कविताएं - नदी का एक घर - मनीषा झा

मनीषा झा 1996 से शोध कार्य एवं अध्यापन 1995 से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं एवं पुस्तक-समीक्षा आदि का प्रकाशन प्रकाशित पुस्तक कविता संग्रह : शब्दों की दुनिया (2013), कंचनजंघा समय (2017) शोध कार्य : प्रकृति, पर्यावरण और समकालीन कविता (2004), समय, संस्कृति और समकालीन कविता (2011) आलोचना एवं निबंध : कविता का संदर्भ 2009), साहित्य की संवेदना (2014)


 


कविताएं -  नदी का एक घर  - मनीषा झा 


 


नदी का एक घर


 


वह वहाँ रहने आई थी


पूरे मन से बसाया था एक घर।


अब वहाँ नहीं थी वह।


वर्षों से बास करती हुई


वह तड़प उठी थी उस साल।


 


पहले सूखा नेह फिर सूख गई देह


फिर सूख चली आत्मा भी


मिट चले उसके निशान


महज तीन महीने में।


 


कहाँ गई क्या हुआ उसका


कोई खोज नहीं


किसी की चिंता में नहीं वह


न कोई इंतजार


पड़ी है जमीन मगर उजड़ चुका है एक संसार।


 


छाने जा रहे हैं वहाँ बालू और पत्थर


ट्रक लदते जा रहे भर-भरकर


कब्जा हो गया किसी कारोबारी का नदी की जमीन पर।


 


कहाँ गई होगी वह


अपना घर छोड़कर


वहाँ से विलुप्त होकर


सरस्वती की एक प्यारी बहन?


                                                                                                  मनीषा झा 


                                                                          संपर्क : प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, उत्तर बंग विश्वविद्यालय, सिलीगुड़ी मो.नं. : 9434462850