कविता- युद्ध? - नीरज नीर 

कविता- युद्ध? - नीरज नीर 


 


युद्ध?


 


पेट भरे लोग


युद्ध चाहते हैं।


सिनेमा, टीवी और कहानियों के थिल से ऊबे हुए लोग


चाहते हैं रोमांच थोड़ा और ज्यादा


बतर्ज ये दिल माँगे मोर!


गोलियों की तड़तड़ाहट और बमों की आवाज


सैनिकों की लाशों पर उठते जोशीले नारे ।


पर युद्ध की आहट से ही


पतझड़ के बूढ़े जर्द पत्तों की तरह


काँपता है रोजहा मजदूरों का मन।


सैनिकों की नवोढ़ा पत्नियाँ,


मोतियाबिंदी आँखों वाली माँ,


काँपते हाथों और कमजोर टाँगों वाले पिता,


चलना सीख रही तुतलाती बिटिया


सबका मन घबराता है युद्ध की आशंका से


सीमा पर बसे घरों के बच्चे


जो बाँधे है उम्मीदों की गठरी कि


वे भी बनेंगे अफसर


घूमेंगे देश दुनियां,


किताबों के बदले सीखते हैं जान बचाने के उपाय


ब्लैक आउट की गहनता में


स्याह होकर बिखर जाती है, भस्म की तरह


उनकी उम्मीदें,


जिसे वे मलते रहते हैं ताजिंदगी


अपनी भविष्य देह पर।


इस बार भी रबी की फसल फिर नहीं काट पाएंगे


सीमा पर के किसान।


उनके जीवन से गायब है


सिरे से थिल


पर पेट भरे लोग युद्ध चाहते हैं।


 


                                                                                                    सम्पर्क : "आशीर्वाद", बुद्ध विहार, पोस्ट ऑफिस-अशोक नगर,


                                                                                                     राँची-834002, झारखण्ड, मो.नं. : 8789263238, 8797777598