कविता - रिश्ता - शरद चन्द्र श्रीवास्तव
रिश्ता
जब रिश्ता -
कभी रिसता है
तो-
रिस जाती हैं, बहुत सारी चीजें,
सबसे पहले-
टूट जाता है भरोसा,
जैसे,
कही टूट गया हो
एक पेड़
एक भरे पूरे कुनबे के साथ,
छूट गया हो-
एक हाथ,
लहरों के बीच संघर्ष करते-करते,
ठीक वैसे ही-,
जैसे,
बहुमंजिला इमारत पर छूट गई हो जकड़,
और -
जिन्दगी हवा के सिरहाने जा टिकी हो,
मेरा सीना,
तुम्हारी चोटों का,
अन्तिम ठिकाना हो,
मैं जब भी,
लिखू,
प्यार, भरोसा, स्नेह,
वे स्याह पड़ जाएं,
दिखने लगें-
नफरत,
फरेब,
और अभिनय।।
मो.नं. : 9450090743