कविता - फर्क नहीं पड़ता - शरद चन्द्र श्रीवास्तव 

कविता - फर्क नहीं पड़ता - शरद चन्द्र श्रीवास्तव 


 


फर्क नहीं पड़ता


 


मैं कुछ बोलता नहीं,


कुछ बोल सकता भी नहीं,


खूटी पर टंगा हुआ


एक कपड़ा हूँ,


जो चाहे पहन ले,


चाहे उतारकर टाँग दे,


गंदा ही टांग दे,


या,


गंदा करके टांग दे,


या,


पूरी तरह धो डाले,


फर्क नहीं पड़ता......


इन्सान!!


इन्सान मैं हो नहीं सकता


क्योंकि,


इन्सानों में एक अदद आत्मा होती है,


जो धिक्कारती है,


इस तरह टांगे जाने पर


फिलहाल,


मैं एक कपड़ा ही हूँ,


जो गुरेज नहीं करता


उत्सवों में,


बाजारों में


अपनी नुमाईश का,


वक्त जरूरत,


बदल बदलकर सजाए जाने का,


फर्क नही पड़ता


चाहे


अपराध की दुनिया में मुझे,


खून मे डुबोया जाए


या,


कि, राजनीति के सड़ाध मारते कीचड़ में,


दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू,


एक भट्ठे से निकली,


दो हमशक्ल ईटें,


जो एक ही मिट्टी से बनी हैं,


एक ही ताप पर पकी हैं।


दीवार पर टंगा नक्शा भी,


मुझें मुंह चिढ़ाता है,


आड़ी तिरछी लकीरें भी,


अर्थ और यथार्थ के अंहकार में,


मंतव्य पर पहुँचने का रास्ता दिखाएं


तो भी,


मुझे फर्क नहीं पड़ता,


फिलहाल,


मैं खूटी पर टँगा एक कपड़ा हूँ


                                                                                                                                                           मो.नं. : 9450090743