कविता - कचरे से बीन रहे हैं सांसें वे - शैलेंद्र शांत

 


कविता - कचरे से बीन रहे हैं सांसें वे - शैलेंद्र शांत


 


कचरे से बीन रहे हैं सांसें वे वे


 


बढ़ाइए कदम तेज


रुमाल जरा दबाकर रखिए


मुंह-नाक पर


नहीं, मत देखिए उधर


मितली आ जाएगी


सांसें बीन रहे हैं


जिंदगी चुन रहे हैं


कचरे से


गरीबी के मारे बच्चे


बढ़ाइए कदम तेज


दम घुट जाएगा।


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