कविता - झुंड - शरद चन्द्र श्रीवास्तव
झुंड
मै इन दिनों,
एक सपना देखता हूँ,
एक संपेरा है,
उसकी धुन में,
ऐसा सम्मोहन है
कि,
सारे साँप बाबियों से निकल पड़े हैं,
वे नाच रहे हैं,
मंत्रमुग्ध हैं वे,
नेवले डरे हुए हैं,
संपेरा बीच-बीच में,
नेवलों का शिकार करता है,
तमाशबीन भी सम्मोहित हैं,
उन्होंने
अपनी पगड़ी,
यहाँ तक कि
अपनी आँखें,
संपेरे के सहचर के समक्ष,
तोहफे की तरह पेश कर दी हैं,
और देखता हूँ
तालियों की गड़गड़ाहट में,
नेवलों की हत्या,
और उनकी चीखें,
दबकर रह गई हैं,
मैं झिझक कर जागता हूँ,
दीवार पर टंगा हुआ,
एक नक्शा ,
जिसके सिर पर,
एक चिड़िया बैठी है,
जिसके पंख नुचे हैं,
और- उसकी आंखों में,
अनगिनत आंखें,
ताक रही हैं,
जिन्हें
जानवरों के 'झण्ड' ने लील लिया।
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