कविता - एक धागे से - धर्मपाल महेंद्र जैन

धर्मपाल महेंद्र जैन टोरन्टो, कनाडा जन्म : 1952, रानापुर, जिला-झाबुआ (मध्य प्रदेश), भारत शिक्षा : भौतिकी; हिन्दी एवं अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर प्रकाशन : चार सौ से अधिक कविताएँ व हास्यव्यंग्य प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। “सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?" (व्यंग्य संकलन) एवं "इस समय तक" (कविता संकलन) प्रकाशित


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कविता - एक धागे से - धर्मपाल महेंद्र जैन


एक धागे से


 


माँ नहीं जानती थी वनस्पति विज्ञान


न ही पर्यावरण


खुद कुछ खाने से पहले


पीपल में उड़ेल आती थी पानी


और अभिषेक करती थी तुलसी का।


 


कहती थी प्राण होते हैं पेड़-पौधों में


पेड़ जानते हैं सात पीढ़ियों की परम्परा


और पुरखों को


पौधे फैलाते हैं समृद्धि और


बताते हैं आने वाले संकट को


एक धागे से बाँध आती थी


वह सारी कामनाएँ वहाँ


घर के साथ चबूतरा और


तुलसी चौरा लीपते हुए।


 


चबूतरे पर


कभी आ बैठते थे भगवान उसके


किसी राहगीर के भेष में


दशकों रामबाण होती रहीं


तुलसी की पत्तियाँ उसके हाथों।


 


माँ नहीं है अब


पीपल नहीं है अब


तुलसी नहीं है अब


पुरखों की यादें नहीं हैं अब


परंपरा की बातें नहीं है अब


अब भगवान भी नहीं आ बैठते


कभी चबूतरे पर।


 


आत्मा चली जाए तो शेष क्या बचता है!


                                                                                                            धर्मपाल महेंद्र जैन


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