कविता- देश - नीरज नीर 

कविता- देश - नीरज नीर 


 


देश


 


कुछ लोग कलम चला रहे हैं,


कुछ लोग चला रहे हैं बंदूकें,


 कुछ लोग मोबाइल पर उँगलियाँ


और कुछ लोग चला रहे हैं


बस जुबान...


सबको लगता है


वही चला रहे हैं


देश पर जो देश चला रहे हैं,


वे उगा रहे हैं


मीठे दाने


अपनी आँखें और


हँसी रोपकर,


खुरदरी, शुष्क जमीन में


बिना किसी हील-हुज्जत के...


दो समय की रोटियों के लिए


गरम कपड़े के बिना


अपनी छाती, सर्द हवा के विपरीत अड़ाए हुए...


सरकारी अस्पतालों में


दिमागी बुखार से मरते बच्चों के लिए


दवा से ज्यादा


चमत्कार की उम्मीद करते हुए...


ठेल रहे हैं विकास के रथ को


लहूलुहान हाथों से


समझते हुए स्वयं को


यात्रा में समभागी,


यात्रा में समभागी


जो वे हैं नहीं।


विकास पकने के पहले ही


मुरझाकर बन रहा है


पूंजी का चारा...


किसानों के बच्चे खा रहा हैं धक्के,


मेट्रो और लोकल ट्रेनों में...


                                                                                                    सम्पर्क : "आशीर्वाद", बुद्ध विहार, पोस्ट ऑफिस-अशोक नगर,


                                                                                                     राँची-834002, झारखण्ड, मो.नं. : 8789263238, 8797777598