कविता - दरबार - राहुल कुमार बोयल
दरबार
होती थी हाथों में, पांवों में
या कि पूरे जिस्म में कँपकँपी
कभी-कभी,
मगर अब आँखों में भी
हो रही है
जाने क्यों
खो रही है दृष्टि और
सृष्टि सो रही है
इस अजब धुंधलके में
कुछ तो है जो
दे रहा है अनर्थ के संकेत
प्रेत सा पीछे पड़ा
खड़ा है काल कि यूँ कहूँ
यह कु-समय है, विषमय है
जीवन-चुम्बन या
कि मन ही किसलय है
विस्मय है!
फैल रहीं हैं पुतलियाँ
दृश्य सब संकीर्ण
जीर्ण हुई हैं दृष्टियाँ
वृष्टियों को अजीर्ण है
और है मेघ-मन को अपस्मार
मैं बीमार, तू बीमार,
ये बीमार, वो बीमार
कौन भीम, कौन किमार
हर तरफ़ यही हुँकार
बस मार, बस मार
मत प्यार की शेखी बघार
होशियार! यह कपकपी है
ताजा है, नयी-नयी है
रोक मत, होने दे
सोने दे, चाव का अलाव था
बुझ गया तो बुझ गया
खबरदार! जो रोया तो
मायूस ज़रा भी होया तो
बरखुरदार! यह प्यार का दरबार है
उठ गया तो उठ गया
जम गया तो जम गया।
राहुल कुमार बोयल, सम्पर्क : मो.नं. : 7726060287