कविता - अपने-अपने एकलव्य - शरद चन्द्र श्रीवास्तव 

कविता - अपने-अपने एकलव्य - शरद चन्द्र श्रीवास्तव 


             


अपने-अपने एकलव्य


 


हर युग में,


देनी होती है परीक्षा,


हर युग के अपने अपने


एकलव्य होते हैं,


एक द्रोणाचार्य,


किसी युग मे होता भी नही,


आस्था हर युग में,


अंधी रही है,


वरना,


सियासत के तोरणद्वार,


यूँ ही नही करते,


एकलव्य के अंगूठे की प्रतीक्षा,


उन्हें पता है,


आस्था सिर्फ,


धर्म की नहीं,


जति की, कुलीनता की,


नहीं, नस्ली भी होती है,


वह हर बार, लाती है,


दिमागी सुन्नता इसीलिए,


हर युग के होते हैं


अपने अपने एकलव्य।


ये अनायास नहीं है,


कि,


सबसे ऊँचे पायदान पर,


जब अर्जुन गांडीव से,


गर्जना करते हैं,


तो शीर्ष तक जाने वाले पद सोपान


एकलव्य का आश्रर्त्तनाद,


किसी वाद्ययन्त्र की तरह गुनगुनाते हैं,


हर युग में,


गहन श्रद्धा के क्षण में,


गढ़ी गईं प्रतिमाएं,


नेह को,


नस्तर की तरह करती हैं इस्तेमाल,


और,


इतिहास टांग देता है अपने पृष्ठों पर,


अपने अपने युग का एकलव्य,


इसीलिए


हर युग के होते हैं


अपने अपने एकलव्य।


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