कहानी- अमरत्व - गोविन्द उपाध्याय

जन्म : 15 अगस्त, 1960 (कानपुर, उत्तर प्रदेश) साढ़े तीन दशक से भी ज्यादा समय से कहानी लेखन में सक्रिय। देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियों का निरंतर प्रकाशन। आंचलिक कथाकार के रूप में विशेष पहचान। कुछ कहानियों का बांग्ला, तेलगू, ओड़िया और उर्दू में अनुवाद। कृतियां : पंखहीन, समय रेत और फूकन फूफा, सोनपरी का तीसरा अध्याय, चौथे पहर का विरह गीत, आदमी, कुत्ता और ब्रेकिंग न्यूज़, बूढ़ा आदमी और पकड़ी का पेड़, नाटक तो चालू है, चुनी हुई कहानियां, बड़े कद के लोग और घोंसला और बबूल का जंगल (दस कहानी संग्रह)


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      भिरगू बाबा, अभी-अभी घर आए थे। साइकिल से उतर कर पीछे वाले कैरियर से तीनों मूली निकाल कर ओसारे में फर्श पर रख दिए। साइकिल कोठरी की दीवार से खड़ा करके पसीना पोंछते हुए चौकी पर बैठ गए। जयराम नई वाली मोटरसाइकिल को पोंछते हुए बाप की तरफ देखे, "ई मुरई कहाँ से पा गए?"


    भिरगू बाबा बेटे कर तरफ देखकर मुस्कराएं, "मुन्नर बोए है न मंदिर पर.... । पुजारी जी बोले कि मुन्नर! बाबा को मुरई दो भाई। और उ तीन ठो कैरियर पर दबा दिया। देख रहे हो क्या जबरदस्त हुआ है। न हो तो इसके पतइ का साग बनवा दोबहुत दिन हो गया मुरई का साग खाए।"


    भिरगू बाबा अर्थात भृगराज तिवारी बयासी साल से ज्यादा के हो चुके हैं। अब तो झुक कर चलने लगे हैं। जवानी के दिनों में गाँव के सुंदर लोगों में गिने जाते थे। पाँच फुट पाँच इंच के आस-पास की लंबाई थी। खूब गोरे-चिट्टे ... । घर के बड़े लड़के थे। शुरू से ही थोड़ा सुकुआर थे। खेती-बाड़ी मेहनत वाला काम है। वह तो अच्छा हुआ कि उन्हें नौकरी मिल गई। छावनी के सरकारी गन्ना मिल में कैशियर पद से रिटायर हुए बाइस साल हो गए। छावनी, उनके गाँव से अस्सी किलोमीटर दूर है। शुरू में तो गाँव ही में रहते थे। फिर शादी हो गई तो मिल के सरकारी क्वाटर में आ गए। तब लड़की देखकर शादी नहीं होती थी। खानदान देखा जाता था। उस हिसाब से भिरगू बाबा का ससुराल पक्ष उनके परिवार से बीस था। पत्नी उनसे दो-तीन साल बड़ी थी। अब किसी के पास उसका जन्म-प्रणाम पत्र तो था नहीं। बस यह उस समय की गाँव की बुजुर्ग महिलाओं का अनुमान था। जो प्रायः सच ही होता था।


    भिरगू बाबा का पहला बच्चा गाँव में ही हुआ था। बेटी थी। पैदा होने के तीसरे दिन ही मर गई। उसके बाद से ही औरत की तबियत खराब रहने लगी थी और वह उसे लेकर छावनी आ गए थे। फिर रिटायरमेंट तक वह छावनी में मिल से आबंटित आवास में ही रहें। बेटी के बाद काफी दिन तक कोई संतान नहीं हुई। डॉक्टर को दिखाया। लेकिन कोई नुक्स नहीं मिला। इसके बावजूद खूब इलाज कराए। झाड़-फूंक भी हुआ। लेकिन कोई फायदा तब भी नहीं हुआ। थक कर भिरगू बाबा शांत हो गए। उन्होंने एक तरह से संतोष ही कर लिया था, "नहीं है हमारे भाग में संतान तो क्या किया जा सकता है। निमन-बाउर एक ठो दिया भी था, तो उसे वापस छीन लिया।"


    लेकिन दस वर्ष बाद एक ऐसा चमत्कार हुआ कि जो सुना वही दंग रह गया। भिरगु बाबा की पत्नी एकबार फिर गर्भवती हो गई थी। तब यही जयराम पैदा हुए थे। जयराम के पैदा होने पर भिरगु बाबा ने गाँव में बहुत बड़ा आयोजन किया था। लोग काफी दिन तक जयराम के जन्म में हुए भोज को याद करते रहे। जयराम अभी ढाई साल के भी नहीं हुए थे कि शिवराम आ गए। शिवराम के पैदा होने के साथ ही भिरगु बाबा की पत्नी स्थाई रूप से बीमार हो गई। शुगर और ब्लडप्रेशर की दवा तो वह खाती ही थी। फिर दिल और कमर के दर्द की दवा भी खाने लगी।


  भिरगु बाबा ही घर का सारा काम करते थे। फिर बच्चे भी उनका हाथ बटाने लगे। हमेशा कड़की में ही रहे। पैसा नहीं बचा पाए भिरगु बाबा। पत्नी की बीमारी से जो बचा वह पढ़ाई में निकल गया। कभी पत्नी बोली भी, "नौकरी के बाद क्या होगा? खेती आप कभी किए नहीं और न बच्चे कभी खेत का काम कराए हैं। कइसे नैया पार लगेगा..?"


    भिरगु बाबा हँस देते, “बेकारे पगला रही हो। कवन हमारे पास बेटी है। लड़के ही हैं। पढ़-लिख रहे हैं तो कमाएंगे भी। अरे हमें नहीं देंगे तो भी अपना खर्चा निकलबे करेंगे। ग्रेजुएटी, फंड और पेंशन भी मिलेगा। अपने भर के लिए तो बहुत है।"


  भिरगु बाबा सही सोच रहे थे। लड़की होती तो दानदहेज देना होता। साल-छ: महीने में आती-जाती तो फिर खर्चा। लड़के हैं तो उनका जो मन करेगा, वह अपने हिसाब खर्चा करेंगे....। कम-से-कम उनके ऊपर बोझ नहीं होगा। लेकिन विधाता की मर्जी तो कुछ और थी। लड़के पढ़ने- लिखने में पूरी तरह चौपट थे। इस प्रतियोगी युग में पैंतालीस- पचास प्रतिशत को कौन पूछता है। प्रथम श्रेणी वाले तो भटक रहे थेलेकिन पिता की तरह, दोनों बेटों को भी चिंता नहीं थीउन्हें लगता बाप के पास अफ़राद पैसा है। नहीं मिलेगी नौकरी, तो न मिले। कोई बढिया सा धंधा कर लेंगे जिसमें मेहनत कम हो और आमदनी बढ़ियाजैसे कि पेट्रोल पंप अथवा रसोई गैस की एजेंसी।


    गाँव की एक पुरानी कहावत है- 'बाप का नाम साग- पात और पूत का नाम परोरा।' और यह कहावत जयराम और शिवराम पर सटीक बैठती थीदोनों बेटों के दिमाग में यह कभी आया ही नहीं कि बाप के पास इतना धन है भी कि वह इस तरह का व्यापार कर सकें। पिता और पुत्र दोनों एक दूसरे के भरोसे सपने पाले हुए थे। लेकिन वह सपना ज्यादा दिन नहीं टिक पाया। शुरुआत भिरगु बाबा से हुई थी। उन्होंने दोनों बेटों को बैठाकर पुचकारा, "भाई अब दो साल और नौकरी बची है। अभी तक तुम लोग नौकरी पाने में सफल नहीं हो पाए। हम तुम दोनों के प्रयास पर सवाल नहीं उठा रहे हैं। तुम दोनों ने मेहनत किया होगा। लेकिन उसका परिणाम तो सिफर ही रहा न..। अब सरकारी नौकरी नहीं तो कोई और काम खोजो। आदमी का जन्म लिए हो तो कर्म तो करना ही है।"


    दोनों लड़के व्यापार की बात करते इसके पहले ही भिरगु बाबा का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। इसमें कोई संदेह नहीं था कि उन्होंने दो नालायक जन्माए हैं। वह घुडके, “अबे चोप्प ...। तुम दोनों साले सचमुच मंदबुद्धि हो। कौन सा व्यापार करोगे। उ क्या कहते हैं, हगने का छेद नहीं। लीलेगें बेल... । पैसा कहाँ है? हम कोई लार्ड गवर्नर तो हैं नहीं। जो पैसा मिलेगा, वह बहुत छोटी रकम होगी। उससे पान की गुमटी ही खुलेगी।"


    भिरगु बाबा की बात का असर बेटों पर कितना हुआ यह तो वही जाने। लेकिन उसके कुछ दिन बाद जयराम ने ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया। शिवराम अभी भी कोई बड़ा काम ही करना चाहते थे। लेकिन फिलहाल टाइम-पास के लिए अगले सत्र में एक पब्लिक स्कूल में अध्यापक बन गए। पैसा भले ही दोनों अच्छा नहीं था, लेकिन नाम होने लगा था कि दोनों बेटे कमा रहे हैं। जल्द ही उसका सुखद परिणाम भी सामने आने लगा। बेटों के लिए रिश्ते आने लगे। ज्यादा रिश्ते शिवराम के लिए थे। शिवराम तेज तर्रार थे। लेकिन विवाह तो जय की ही होनी थी। भिरगु बाबा दहेज में चाहते तो बहुत कुछ थे। लेकिन जय स्कूटर के लिए अड़े रहे। आखिरकार दहेज में उन्हें स्कूटर मिल भी गया। इसके बदले में भिरगु बाबा को अपनी जेब से विवाह का सारा खर्च वहन करना पड़ा। जिसकी टीस कई महीने बनी रही, “फालतुए न पइसा फंस गया। पेट्रोल साला अलग से पीता है। आमदनी कौड़िय नाही अउर बाबू उडाएं फुर्मुद्दी..।"


    बहू पढ़ी लिखी। लेकिन उसका कोई फायदा नहीं था। उसे तो यहाँ अपनी बीमार सास की सेवा ही करनी थी।


    रिटायरमेंट के बाद भिरगु बाबा गाँव आ गए। शिवराम वहीं रुक गए स्कूल के 'मास्टर जी' ही बने रहे। जयराम जरूर पिता के साथ आ गए। यहाँ आने के कुछ दिन बाद ही जयराम एक पुत्र के पिता बन गए। जयराम के परिवार का सारा बोझ भिरगु बाबा के ऊपर ही था। बहू फैशनेबुल थी। उसके कपड़े धोबी के यहाँ से धुलकर आते। महीने में एकबार ब्यूटीपार्लर जाती। यह सब सास को अच्छा नहीं लगता। वह तो सारा जीवन सरसों का तेल ही लगती रहीं। जबकि बहू ब्यूटा को खशबू वाला तेल चाहिए था। बुढ़िया भुनभुनाती, "एतना तेल-फुलेल का शौक है तो बोलें अपने मरद से कुछ काम- धाम करे। दिनभर उ अपने गरदन का मइल छुड़ाता रहे अउर ई बनाव-सिंगार करके ओकरे पास बइठ के दाँत निपोरती रहे। जबकि घर का बूढ़-पुरनिया खेत में पसीना बहा रहा है।" बुढ़िया इस बात का ख्याल रखती थी कि यह बात बहू के कानों तक नहीं पहुँचे। यदि गलती से भी पहुँच गया तो महाभारत ही समझो। बहू काम बंद कर देगी। तब बुढ़िया के बीमार शरीर की दुर्गति ही समझो।


    भिरगु बाबा के छोटे भाई थे बिरजू बाबा ज्यानी बृजराज तिवारी। रिटायर होकर गाँव आने पर सबसे ज्यादा उन्हीं को खलासात कमरे के मकान में तीन कमरा बिरजू बाबा कब्जिया लिएसाथ ही आधा खेत भी। बिरजू बाबा समाज के सामने बेबस थे। लेकिन लोगों से यह कहना नहीं भूलते, "मकान बनाने में सारा खर्चा हम किए। बड़का भइया तो एक दमड़ी भी खर्च नहीं किएऔर गाँव आते ही खेत के साथसाथ मकान भी अधिया लिए।"


    भिरगु बाबा के कान में जब यह बात पड़ी तो गरम हो गए, “बोलो बिरजू से बरम बाबा की किरिया खाकर बोलें कि हमारा पैसा नहीं लगा है। आदमी को इतना बे-ईमान नहीं हो जाना चाहिए।"


    बिरजू बाबा की तीन लड़कियां और दो बेटे थे। बड़ा बेटा पंजाब में ट्रैक्टर बनाने की फैक्ट्री में नौकरी करता थाउसका विवाह हो चुका था। उसकी एक चार साल की बेटी भी थी। छोटा गजरौना में जमीन की दलाली कर रहा था। जबसे गजरौना में नौका जिला का कार्यालय खुला है। जमीन का दाम आसमान छूने लगा है। बिरजू बाबा दो बेटियों का विवाह कर चुके है। छोटी बेटी और छोटे बेटे की शादी नहीं हुई थी। बिरजू बाबा की औरत बहुत तेज थी। कद चार फुट का ही था। लेकिन परिवार पर उनका प्रभाव इतना ज्यादा था कि मजाल था घर का एक तिनका भी उसके आदेश के बिना इधर से उधर हो जाए। गजब की मीठ बोलुआ...। भिरगु बाबा की औरत पीठ पीछे उसे 'चर फुटिया' ही कहती थी। गुस्साती तो दो-चार बात सुना देती। लेकिन बिरजू बाबा की औरत 'अरे दीदी..नही दीदी' के सिवा कुछ नहीं कहती।


  शिवराम की उनकी मास्टरी के भरोसे भिरगु बाबा विवाह कर दिएशिवराम तो चाहते थे, पत्नी साथ रहेलेकिन आमदनी इतनी नहीं थी। गाँव पर ही रखना मजबूरी थी। बस तभी 'चर फुटिया' की असली कला भिरगु बाबा की पत्नी को देखने को मिला। शादी के तीन-चार महीने में ही दोनों बहुओं झगड़ा शुरू हो गया। इस झगड़े का सारा श्रेय बिरजू बाबा की पत्नी को जाता है। छोटी बहू का नाम था श्रद्धा। जैसे ही दोनों बहुएं साथ बैठी दिखाई देती। माँ-बेटी पहुँच जाती। माँ शुरू करती, "श्रद्धा को देखकर मन जुड़ा जाता है। जेतना देखने में सुंदर, ओतना ही मन का सुंदर...।"


    अब बड़ी बहू भौचक। इस बुढ़िया के पास कौन सा यंत्र है, जिससे मन के अंदर की सुंदरता भी ज्ञान हो जाता है। तभी बेटी भी फौरन जुमला छोड़ देती, “वाह भाभी, ई पियरकी साड़ी में आप गजबे लग रही हैं। आपके पसंद का कोई जवाब नहीं है। अबकी बार बाजार कपडा खरीदने चलेंगे तो आपको भी ले चलेंगे।"


  बड़ी बहू माँ-बेटी का चाल समझती थी। श्रद्धा की प्रशंसा की आड़ में उसको हीन दिखाया जा रहा था। लेकिन नई-नवेली बहू इस खेल से अनजान माँ-बेटी पर गद-गद रहने लगी थी। अपनी सास-जेठानी की अपेक्षा उनके साथ ज्यादा चिपकी रहती थी। एक अजीब मनोविज्ञान था। श्रद्धा की माँ-बेटी जितना प्रशंसा करती, बड़ी बहू उसे उतना खराब दिखाने का प्रयास करती। बस दोनों बहुओं में झड़प शुरू हो गई। सबसे खराब हालत तो भिरगु बाबा की पत्नी की थीमधुमेह का दुष्प्रभाव उनकी आँखों की ज्योति को पूरी तरह छीन लिया था। दोनों बहुओं के झगड़े में वह नरक जैसी स्थिति में चली गई थी। जब बिन नहाए दो-तीन दिन हो जाता, तो भिरगु बाबा खुद ही उन्हें नहलाते। अपने भाग्य को कोसते। बहुओं को तो बोलने का सवाल ही नहीं था। उनको बोलने का अर्थ था कि अपने सिर के बालों को नुचवानाछोटे भाई की पत्नी ने, तीन कमरे कब्जियाने का पूरा बदला ले लिया था।


    भिरगु बाबा घर की स्थिति देखकर चिंता में गले जा रहे थे। उन्हें इस समस्या का एक ही समाधान दिख रहा था कि छोटी बहू को शिवराम के पास भेज दिया जाए। उन्होंने शिवराम से कहा, "बहू को तुम साथ रखो। उसका खर्चा हम वहन करेंगे।" शिवराम को भला इसमें क्या आपत्ति होती। पाँच हजार रुपया महीना नगद और घर से छावनी आनाज पहुँचाने की शर्त पर वह पत्नी को छावनी लेकर आ गए।


    जब जयराम को पता चला तो वह बाप से भिड़ गए, "सेवा के लिए हम लोग, मेवा खाने के लिए शिवराम हैंइसीलिए भोग रहे हो। तुम्हारे जैसे बाप हो तो दुश्मन की का जरूरत है। साला छ: महीने से स्कूटर बिगड़ा पड़ा है। बोलने पर कहेंगे पैसा नहींऔर पाँच हजार महीना की हामी भर लिए।"


    छोटी बहू के जाने के बाद भिरगु बाबा की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। बड़ी बहू भी मायके चली गई। उसका दूसरा बच्चा होने वाला था।


  भिरगु बाबा ही खाना बनाते। पत्नी को नहलाते-धुलाते और इन सबके बाद जयराम की गालियाँ सुनते थे। जो भी भृगराज तिवारी को देखता, उसके मुँह से यही निकलता, "ओह बबवा की बड़ी दुर्गति है। यह साल नहीं खींच पाएगा। उसके शरीर में जान कहाँ बची है।"


    लेकिन भृगु बाबा की जगह उनकी पत्नी का ही स्वर्गवास हो गया। दोनों बहुएं आई। खूब रोई और सास के जेवर को आधा-आधा बाँट लिया। तेरही के बाद श्रद्धा चली गई। वह अब मोटी होने लगी थी। बड़ी बहू को दूसरा बेटा हो गया था। भिरगु बाबा तो बेटे का सुख भोग ही रहे थे। अब जयराम भोगेंगे।


    जयराम और शिवराम में छत्तीस का आंकड़ा हो गया था। दोनों को यही लगता कि बाप अपनी दौलत का एक बड़ा हिस्सा दूसरे भाई पर खर्च कर रहे हैं। महीने में एक बार शिवराम को आना ही था। वह मोटरसाइकिल से आते। साथ में श्रद्धा भी होती। बिरजू बाबा की पत्नी श्रद्धा को पूरे महीने की सूचना देती। वह उस सूचना को अपने पति को स्थानांतरित कर देती। कुछ समय बाद ही शिवराम अपने पिता से सवाल-जवाब करते। पहले से तपे बैठे जयराम कुछ देर सब करते फिर भाई से भिड़ जाते। दोनों भाई एक दूसरे कामचोर और धूर्त बताते। लड़ाई जुबान से ही लड़ी जाती। लड़ाई के दूसरे चरण में दोनों भाइयों का टारगेट भिरगु बाबा होते। ऐसे में भिरगु बाबा तख्त पर बैठे आपने बेटों की गालियाँ सुनते। उन्हें टुकुर-टुकर देखते रहते। उनकी जुबान को लकवा मार देता।


    पत्नी के मरने के बाद जिस तरह से भिरगु बाबा फिर से स्वस्थ दिखने लगे थे। बेटों को इस तरह लड़ते देखकर वह आहत हो जातेलोग फिर बोलने लगे, "बबवा तो फिरसे हरिहराने लगा था। लेकिन इन दोनों नालायकों के नोचा चोथी में दुबारा सूखने लगा है। यही हाल रहा तो ज्यादा दिन नहीं खींच पाएगा। उसके बाद जयराम और शिवराम बैठकर घुइया छीलेंगे"


  जयराम के लड़के स्कूल जाने लगे थे। लेकिन शिवराम बाप नहीं बन पाए। श्रद्धा बताती कि कमी पति में है और उनकी दवाई चल रही है। शिवराम के अनुसार पत्नी में दोष है। डॉक्टर के अनुसार तो बीस प्रतिशत ही श्रद्धा को माँ बनने की आशा है। अब क्या कहा जा सकता है। देखते-देखते दस वर्ष से ज्यादा समय निकल चुका था। लेकिन कोई आशा नहीं दिख रही थी। जयराम भी किसी फाइनेंस कंपनी के एजेंट बन गए थे। भिरगु बाबा का संचित धन अब खत्म होने के कगार पर था। तभी एक ऐसी घटना घटी कि सभी लोग हिल गए। शिवराम छावनी से उस दिन अकेले आ रहे थे। कहीं खोए हुए थे। चिंता तो था ही। पिता के टुकड़ों पर पल रहे थे। पिता के न रहने पर ..? यह सवाल उन्हें अब चिंतित करने लगा था। मोटरसाइकिल की रफ्तार ज्यादा थी। पता नहीं कैसे ध्यान भटक गया। सड़क पर खड़े ट्रैक्टर से ही भिड़ गए। हैलमेट पहने नहीं थे। सिर तरबूज की तरह फट गया। वह वहीं मर गए। गाँव में खबर पहुँचते हाहाकार मच गया। भिरगु बाबा कपार पकड़कर बैठे रहे। जयराम ही पोस्टमार्टम हाउस से लाश लाए और अंतिम संस्कार किए।


    सबसे दयनीय स्थिति श्रद्धा की थी। अब उसका क्या होगा। क्रियाकर्म में बिरजू बाबा का छोटा लड़का ज्यादा सक्रिय रहा। तेरही का खर्चा भी उसी ने उठाया। श्रद्धा वैसे भी उसी परिवार से जुड़ी थी। अब बिरजू बाबा के यहाँ नई खिचड़ी पकने लगी थी। वह चाहते थे कि श्रद्धा उनके साथ रहे और खेत बाँट ले। श्रद्धा के ससुराल में सिर्फ एक छोटा भाई था। वह अब कोई बड़ा हाकिम हो गया था। तीन-चार महीने बाद जब परिवार शिवराम के शोक से उबरने लगा तो वह बहन को अपने साथ मेरठ ले गया। श्रद्धा उसके बाद भिरगु बाबा के घर नहीं आई। बहुत दिनों बाद एक उड़तीउड़ती खबर आई थी कि श्रद्धा ने वहाँ दूसरा विवाह कर लिया है। भाई का ही कोई साथी है। वह भी बड़ा हाकिम है। विधुर था। उसके दो बच्चे थे। बच्चे किशोरवय के थे। बच्चे चाहते थे कि पिता दूसरी शादी कर लें। उन्होंने श्रद्धा को मां के रूप में स्वीकर लिया था।


    अब एक बार फिर भिरगु बाबा का स्वास्थ्य संभलने लगा था। अब कोई तनाव नहीं है। सब कुछ जयराम का ही है। जयराम के बच्चे भिरगु बाबा की खूब सेवा करते हैं। भिरगु बाबा दो कोस साइकिल चला कर चले जाते हैं। गाँव के लोग तो यही कहते है, "शिवराम का मरना बबवा को फल गया है। दस साल तो कोई इसे हिला नहीं सकता।"


    मरना जीना तो अपने बस में नहीं है। अमर तो कोई नहीं है। लेकिन भिरगु बाबा जितना ज्यादा जी जाएंगे, जयराम के परिवार को उतना ही फायदा रहेगा।


                                              संपर्क : एफ.टी.-211, अरमापुर इस्टेट, कानपुर-208009, उत्तर प्रदेश, मो.नं. : 9651670106