सूक्तियां - हरिवंश राय बच्चन की सूक्तियां और सुभाषित ('दशद्वार' से 'सोपान' तक) प्रस्तुति-
डॉ. विभा गुप्ता
"गद्य कवीनां निकष वदन्ति'। हरिवंश राय बच्चन का गद्य अत्यन्त प्रभावकारी है। उनकी अपनी मौलिक विशेषता है। बच्चन जी के गद्य की रचना, वचन-प्रवीणता, वर्णन, समाख्यान आदि मार्मिक हैं। इनके गद्य में शब्द, उनकी वर्णव्यवस्था-संयोजना, प्रत्यय-उपसर्गीय नवरचना-शैली सायास नहीं हैं, साथ ही शब्दों, मुहावरों, सूक्तियों, सुभाषितों आदि के प्रयोग अनायास ही हुए हैं।
हरिवंशराय बच्चन ने अपनी सम्पूर्ण आत्मकथा चार खण्डों में लिखी है--
खंड-१ क्या भूलूँ क्या याद करूँ (१९६९ ई.)
खंड-२ नीड़ का निर्माण फिर (सन् १९७० ई.)
खंड-३ बसेरे से दूर (सन् १९७७ ई.)
खंड-४ 'दशद्वार' से 'सोपान' तक
(सन् १९५६ ई. से १९८५ ई. तक)
इनकी आत्मकथा के गद्य सूक्तियों और सुभाषितों से भरे पड़े हैं। मैंने केवल 'दशद्वार' से 'सोपान' तक की सूक्तियों और सुभाषितों का वर्णन प्रस्तुत किया है। इनके प्रयोग से बच्चन जी की आत्मकथा में रवानगी के साथ-साथ आकर्षण, प्रभावकता और रोचकता स्वयमेव आ गई है। वैसे भी बच्चन जी की वर्णन-शैली अत्यन्त मोहक है। आत्मकथा का कोई खण्ड प्रारम्भ करने के बाद उसे पूर्णतया समाप्त करने की प्रबल इच्छा स्वयं जाग्रत हो जाती है। आत्म-कथा के चौथे खण्ड 'दशद्वार' से 'सोपान' तक में अभिव्यक्त रोचक कथन- सूक्तियाँ, सुभाषितों आदि- (निम्नलिखित हैं)-
स्वप्न देखना कितना सहज-सुखद होता है, पर उसे साकार करने में कितना पित्ता-पानी एक करना पड़ता है।
हर नए सार्थक आन्दोलन को क्रमानुसार तीन तरह की प्रतिक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। पहले लोग उसका मजाक उड़ाते हैं, फिर लोग उसका विरोध करते हैं और अन्त में उसे स्वीकार कर लेते हैं।
गुलामी बहुत बड़ा अभिशाप है, मानसिक गुलामी उससे बड़ा। लड़कपन में जिसे अपने माता-पिता का वात्सल्य नहीं मिलता, वह उसका प्रतिरूप जीवन-भर खोजता रहता हैजीवन में हम जिन चीजों को पाने की कामना करते हैं, जितना सुख-सपना देखते हैं, जिन्हें साकार करने की सौ मुसीबतें उठाते हैं जब वह संयोगवशात मिल जाती हैं तो उनके मिलने का सुख कितना क्षणस्थाई होता है! मिलने के साथ ही मिलने का सुख समाप्त हो जाता है।
मानव-जीवन ही ऐसा है कि यहाँ एक चिन्ता से छुटकारा नहीं मिला कि दूसरी पीछे लग जाती है। अतीत के गौरव को याद रखना यदि किसी अंश में लाभकर है तो किसी अंश में हानिकर भी हो सकता है। वार्धक्य (ओल्ड एज) बालपन का पुनरागमन है। चिड़ियों का झुंड अपने-से पर वाली को खोज लेता है या चिड़िया अपने-से पर वालियों के झुंड में जा मिलती है।
इंतजार के दिन बड़ी मुश्किल के होते हैं, पर बड़े मजेदार भी होते हैं- इन्तजार चाहे महबूबा का हो, चाहे इम्तहान के नतीजे का, चाहे नौकरी पर नियुक्ति का; कल्पना को पर लग जाते हैं और वह आदमी को कैसे-कैसे सब्जबागों की सैर कराती हैं।
कलम से ही/मार सकता हूँ तुझे मैं/कलम का मारा हुआ/ बचता नहीं है। सृजन की अपूर्व-अपरिहार्य माँग को सम्भवतः स्रष्टा भी अभी तक पूरी नहीं कर सका, वरना वह अब भी सृष्टि को नव-नव रूप क्यों दिए जाता। मन और तन की पारस्परिक प्रतिक्रियाएं बड़ी जटिल और अनग्र कथनीय होती हैं। कभी तो मन अपनी उलझनों में शरीर को भी लपेट लेता है और कभी मन अपनी उधेड़-बुन में इतना तल्लीन होता है कि शरीर को अछूता छोड़ देता है।
एक तरह से, जीवन पाकर हम प्रतिक्षण बढ़ते या घटते रहते हैं। जितनी बढ़ती है, उतनी घटती है। उम्र अपने-आप कटती है। जीवन सदा एक प्रकार का सन्तुलन रखता है, वह कुछ लेता है, तो कुछ देता भी है, वह कुछ कम करता है तो कुछ का आधिक्य भी कर देता है। राह? यहाँ पर राह नही है, अपनी राह बनाओ। मनस्येक, वचस्येकं, कर्मस्येकं, महात्मनाम्। अकेला भी बहुत बड़ा है इन्सान।
जिन्दों की जरूरतें मुर्दो की जरूरतों से पहले पूरी की जानी चाहिए।
अपने मन का हो जाए तो अच्छा,
न हो जाए तो ज्यादा अच्छा।
मनुष्य को सीखना चाहिए, और नियति अपने तरीके से सिखाती भी है, और यह कोई छोटी सीख नहीं है कि जीवन में निराशा भी होती है, और मनुष्य को इस निराशा को कैसे झेलना चाहिए, और कैसे उसका सदुपयोग कर लेना चाहिए। प्रतिभा का पहला और सबसे महत्वपूर्ण गुण यह है कि वह अपने को पहचान लेती है। वह अपनी रुचि, अपनी प्रवृति, अपना झुकाव, अपना स्वभाव, अपनी क्षमताएं, अपनी सम्भावनाएँ, अपनी प्रगति, अपने विकास की दिशा जान लेती है, और उसी ओर अपनी सारी शक्ति लगा देती है, और देखते-देखते उन्नति का शिखर छू लेती है। (शेक्सपीयर और नेपोलियन, इसके उदाहरण है) अधिकतर लोग अपने को नहीं पहचानते। क्षमता लिए हैं क्लर्क बनने की, करने चलते हैं कविता, तुकबन्द बनकर रह जाते हैं। ----ज्यादातर लोग जिसे अंग्रेजी में कहते हैं गोल छेद में चौखूटी खूटी धसाने या चौखूटे छेद में गोल खूटी धसाने में, अपनी उमर खपा देते हैंअपनी सीमाओं या अपनी आयामों को पहचान लेना, परख लेना बहुत मुश्किल काम है। इसीलिए प्रतिभाएँ विरल होती हैं। 'मूस मोटाई लोढ़ा होई।'
'मूस मोटाई लोढ़ा होई।'
हमारी असफलता और नैराश्य में भी कभी-कभी हमारा सौभाग्य छिपा रहता है।'
बैसाखी के सहारे चलना शुरू करने वाला कभी अपने पैरों का बल नहीं जानता।
मेरी दृष्टि में उन्नति-प्रगति-विकास का पहला कदम आत्मविश्वास है।
उम्र सारी तो कटी इश्के बुताँ में मोमिन,
अखिरी वक्त में क्या खाक मुसल्माँ होंगे।
प्रभावकारी उच्चाधिकारी से सम्पर्क के जहाँ कुछ लाभ हैं, वहाँ कुछ हानियाँ भी हैं। (कहावत है)- मुर्दा अतीत को अपने मुर्दे गाड़ने का काम मुर्दा अतीत पर छोड़ो।
जिउ जाए, जीविका न जाए।
(कहावत है)
'देस चोरी, परदेस भीख।'
--यानी जो काम देस में चोरी-चोरी किया जाता है, उससे हेय काम भी परदेस में खुलकर किया जा सकता है।
आदत से आदमी मजबूर होता है।
नारी बहुत दूर तक देखती है, पुरुष चार कदम के आगे नहीं देख पाता।
मनुष्य को क्या दोष दें, पुरुष का भाग्य देवता भी नहीं जानते
हमारे उत्तर भारत में कहा जाता है-
पूरब में पारवती, पच्छिम में जय गनेस।
दक्खिन में खडानना, उत्तर में जय महेस।
शिव के परिवार ने जैसे देश की चारों दिशाओं की रक्षा का भार उठा लिया है। अंग्रेजी में एक कहावत है'मिस्फो!न्स नेवर कम सिंगली, यानी दुर्भाग्य कभी अकेला नहीं आता।
'लवण बिना सब व्यंजन फीके,
'खाण्ड बिना सब राँड़ रसोई।
(बच्चन जी की कविता)
'नाश के दःख से कभी दबता नहीं निर्माण का सख.
प्रलय की निस्तब्धता से सृष्टि का नवगान फिर-फिर नीड़
का निर्माण फिर-फिर।।'
'जान बची लाखों पाए
घर के बुद्ध घर को आए।'
परिवार में एक पंजाबिन थी, एक बंगालिन आई, चलो अब एक सिंधन आ रही है। भारत के किसी भी प्रान्त का लड़का या लड़की अपने ही प्रान्त की लड़की या लड़के से शादी न करे। इससे हमारे देश की एकता और संगठनता (गठ-बन्धनता) का लक्ष्य भी जल्दी पूरा कर लिया जाएगा।
इलाज उसी डॉक्टर का ठीक होता है जो नजदीक हो, जिसे जब जरूरत हो बुला सके, मरीज की हालत बता सके
बहुत-सा मंगल अमंगल के राहों से आता है।
सोच न कर सूखे नन्दन का, देता जा बगिया में पानी।
हम दृढ़-व्रत संघर्ष करेंगे, सतत यत्न-संलग्न रहेंगे,
लक्ष्य प्राप्त कर ही ठहरेंगे,
और कभी हम हार नहीं स्वीकार करेंगे।
सारी खुदाई एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ।
स्वामी से सेवक बड़ा चारों जुग परमान
सेतु बाँध रघुवर गए। फाँद गए हनुमान।
और तुलसी दास जी तो कह गए हैं-
'राम ते अधिक राम का दासा।'
'गम है लीडर को पर आराम के साथ।'
हम अपने लिए कह सकते थे
"आराम है लीडर को पर गम के साथ।'
वर्ड्सवर्थ ने लिखा है-
'मी दिस अनचार्टर्ड फ्रीडम टायर्स।'
(अनियंत्रित आजादी से मैं ऊब गया हूँ।)
दुनिया का कोई ऐसा झूठ नहीं, जो कानून की कचहरी में सच न साबित किया जा सके। सपना जब साकार किया जाता है तो सपने से बहुत दूर चला जाता है। मेरी दृष्टि में सामान्य बनकर रहना ही शिष्टता है।
चोर चोरी से गया, हेरा-फेरी से तो नहीं गया। एक जगह छोड़ने का सवाल उठे तो दूसरी जगह जा बैठने का सवाल फौरन उठता है। बदलता है रंग आसमां कैसे-कैसे। राहुल जी ने बहुत लिखा, बहुत उपयोगी लिखा, महत्वपूर्ण लिखा, प्रामाणिक लिखा।
नामों में बड़ा रहस्य छिपा रहता है।
__ लगता है आभामय से, ऊर्ध्व से, सुन्दर से, सौम्य से, स्निग्ध-शान्त से मानव की आन्तरिक, प्रवृत्ति का कोई अटूट नाता है। वह हमें जहाँ भी दिखाई देता है, मिलता है, हम उसकी ओर खिंच जाते हैं।
सामान्य योग्यता वाले प्रशिक्षण से लाभान्वित होते हैं। प्रतिभा प्रायः प्रशिक्षण से चमक उठती है। पर विलक्षण प्रतिभा को प्रशिक्षण की आवश्यकता भी नहीं होती। प्रशिक्षण प्रतिभा का स्थानापन्न नहीं हो सकता। मेरी दृष्टि में लेखन का सबसे बड़ा खतरा है लेखक की पक्षघरता और प्रतिबद्धता जिसके फलस्वरूप वह जीवन को उसकी पूर्णता में नहीं देख पाता। पक्षधर और प्रतिबद्ध लेखक सामान्यतया अपने पक्ष, अपने सिद्धान्त के विरोधी तत्त्वों को दबाता या उनकी उपेक्षा करता हैऐसा लेखक जीवन-सत्य को विकृत रूप से प्रस्तुत करता है।
४५ बरस की आँखों से चीजों के देखने का कुछ और अनुभव होता है और ७२ बरस की आँखों से देखने का कुछ और। अन्तर बताना बहुत कठिन है। सड़कों, बाज़ारों, दुकानों के सामने का अन्तर नगण्य मालूम होता है, पर किसी ऐतिहासिक, किसी कलाकृति के सामने वह बहुत बढ़ जाता है। कहना तो मैं चाहूँगा कि उनमें जीवन का एक स्पन्दन होता है, जो कालगति का अनुभव करता है, पर शायद यह कवित्व की भाषा समझी जाए।
देखने योग्य कुछ भी देखने के लिए पुराना नहीं होतादृष्टा के बदलने से दृश्य बदल जाता है। कम-से-कम आप दूसरी आँख से देखते हैं।
'जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी दीजै।'
'बड़ी उम्र अभिशाप सिद्ध होती है सबको'
जिएं, मगर अदीन रहकर। ऐसा भी-
जीना क्या कि आदमी स्मृतिदीन, बुद्धिदीन या
दीनता थी अन्य अवस्थाएँ भोगता हुआ जिए।
यादों को जी लेना कोई छोटा वरदान नहीं।
'न जानौ राम कहाँ लागै माटी हो।'
कभी हम जिस काम को सरल समझते हैं, वही मुश्किल हो जाता है।
सामान्य मनुष्य के जीवन में-
'सुबह होती है, शाम होती है,
उन यों ही तमाम होती है।'
पर जीवन में कभी-कभी ऐसा भी दिन आता है, जब कुछ 'बिन बादर बिजली कहाँ चमकी-कड़की, की तरह सर्वथैव अप्रत्याशित घटित होता है और हमको विस्मयविमुग्ध, स्तब्ध, अवाक् छोड़ जाता है।
बिजली बहुत परिचित है, पर जब भी वह तड़पती है, कँपा देती है। बस यही मृत्यु के सन्दर्भ में कहा जा सकता है। शायद जीवन का कोई सत्य इससे अधिक जाना नहीं है कि 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः', फिर भी बिरला ही मृत्यु को जीवन की स्वाभाविक परिणति के रूप में स्वीकार करता है, विशेषकर अकाल मृत्यु को। पका हुआ फल गिरना ही चाहिए पर कच्चा क्यों?
तर्क मस्तिष्क को समझा-बुझा लेता है। हृदय को शान्त नहीं कर पाता।
जब कोई बात होने को होती है, तब उसके सहायक भी मिल जाते हैं'
अन्धा क्या चाहे दो आँखें।'