लघुकथा- आत्म-ग्लानि - किशोर कुमार कर्ण
आत्म-ग्लानि
अक्सर बाल बनाने के लिए पिताजी, मोहन नाई के दुकान पर ले जाते थे। वो कई सालों से बाल बनाता आ रहा हैपिताजी व्यवस्तत के कारण कभी- कभी नहीं ले जाते तो मैं स्वयं ही उसके दुकान पर चला जाता।
मेरी बाल कट-कट कर नीचे गिर रही थी। एक ग्राहक अभी-अभी बाल बनवा कर उठा और बाल बनवाई के पैसे मोहन नाई के हाथ में दिया, उसने बचे हुए पैसे को दराज में से निकालकर देने लगा। मेरी नजर दराज में रखे पैसे पर पड़ी, मन ललच उठा। नजरें बचा कर उसमें से दो रूपया पचास पैसा निकाल लिया। खुशी में सोचने लगा कि इन पैसों का क्या-क्या करूँगा। दो पेंसिल लूंगा, एक रबड़ लूंगा, एक कॉपी लूंगा और बाकी बचे एक रूपया उसका खेल का समान लूंगा। सोचते हुए घर आ गया। एक- दो घंटा बीता ही होगा कि नाई मेरे घर पहुंच गया। अब नाई मेरे पिताजी से कैसे कहे कि आपका बेटा पैसा चुराया है। उसने समय की नजाकत को देखते हुए मुझे बुलाया।- "रघु बेटा इधर आना तो!" मैं गयाउसने फिर पुछा- "दराज में कुछ पैसे थे, क्या तुमने उसे देखा है। मैंने साफ इंकार कर दिया- "नहीं मैंने नहीं देखा।" नाई जोर – जबरदस्ती नहीं कर पाया। उसको पुरी तरह से यकीन था कि वो पैसा मैंने ही लिया है। मेरे साफ इंकार करने से वो आगे कुछ बोल नहीं सका। निराश होकर चला गया। मैं भी थोड़ी देर बाद दोस्तो के साथ खेलने चला गया ।
खेल, खेल में रमेश और दीपक उलझ गया। दोनों की नौबत मार-पीट तक पहुंच गई। दीपक मेरे पास आया- "अगर रघु बोल देगा तो मैं सच मान लूंगा।" "हॉ! रघु बोल देगा तो मैं भी मान लूंगा' – रमेश ने भी कहा। मुझे दोनों की बात सुनकर बहुत ग्लानी हुई। ये दोनों मुझको कितना सच्चा और इमानदार समझते हैं और मैं कितना नीच हूँउस नाई की मेहनत से कमाई हुई पैसे को मैंने चुरा लिया। दोनों बार-बार रघु को झकझोड़ रहे थे। -"बता ना क्या सही है। तुम जो फैसला करोगे वो हमदोनों मान लेगें।" उनकी बातों ने मुझे अन्दर तक झकझोड़ दिया। आत्म-ग्लानि होने लगी
अगले दिन रघु उस नाई के दुकान पहुंचा। देखा उसका लड़का कटे हुए बाल को समेट रहा है। रघु ने पेंसिल, रबड़, कॉपी और बचा हुआ पैसा उसके हाथ में दे कर चला आया। मन का बोझ हल्का महसूस कर रहा था। नाई भी ये सब देखकर मुस्कुरा रहा था।
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किशोर कुमार कर्ण,कर्ण,पटना बिहार