कविता - वो बचा लेंगे थोड़ी सी ज़मीन - आलोक मिश्र
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वो बचा लेंगे थोड़ी सी ज़मीन
ज़मी पर बिखरा धूल का एक तिनका
आँखों में उतर सा आया
जिसे होना होता है असंख्य निर्माण का भागीदार
सृष्टि के सृजन से लेकर , आधुनिक निर्माण तक प्रत्यक्ष या परोक्ष
तिनके की बेबसी आँखों में अवनद्ध-वाद्य पर मर्सिया पाठ कर रही थी
कि कोई हवा पूरब या पश्चिम से आएगी
और टांग ले जाएगी उसे कंधे पर
किसी अलक्षित अनंत की सैर पर
लांघते हुए तमाम महासागर
और बिखेर देगी उसे सीरिया, लेबनॉन या सोमालिया के किसी क़ातिल पहाड़ी पर या किसी अदने की घाव पर
जिस पर मक्खियां गा रही होंगी भीं भीं की ध्वनि में कोई आनंद गीत
या फ़ेक दिया जाएगा उसे किसी युद्ध के रण में
जिसका निर्माण मानव सभ्यता की निर्मम सामूहिक हत्या के लिया हुआ है
या ढ़ाल दिया जाएगा उसे बम की शक्ल में
और स्व से अलगता वो खुद भी फ़ना हो जाएगा
वो एक तिनका आँखों में उतर सा आया
कि जैसे वो नहीं लटकना चाहता पूरब या पश्चिम के कंधे पर
कि नहीं जाना उसे किसी अलक्षित जगह पर
मानव सभ्यता के उत्पात से आतंकित
वो खुद से लाँघेगा हिन्द महासागर
वो खुद से लाँघेगा नील नदी
और वहीँ किसी कोपल की तह पर सृजन का भागीदार होगा ।
बनेगा महकते बाग़ का अभिन्न हिस्सा
या दूर किसी नदी पर तैरता वो उतरेगा समुद्र तल पर
कि वो उड़ता हुआ पहुचेगा अंटार्टिका की किसी शांत पहाड़ी पर और करेगा इंतज़ार किसी पथिक का,
जो मानव सभ्यता के सभ्य व्यवहार से आतंकित हो
अपने स्व् को ढूंढता उसके करीब आ पंहुचा हो
और इस तरह वो अंजान हमसफ़र बचा लेंगे
थोड़ी सी ज़मीन
थोड़ा सा हिस्सा।
आलोक मिश्र
परिचय- मेरा नाम आलोक मिश्र है। फ़िलहाल मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का एम.फिल का विद्यार्थी हूं। मैंने स्नातक और परास्नातक(राजनीति विज्ञान) की शिक्षा काशी हिन्दू विश्विद्यालय से ग्रहण की है। मैं झारखंड के देवघर जिले का रहने वाला हूं।
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