कविता - उलगुलान- आलोक मिश्र'
उलगुलान
उस पथरीले पठारी पथ से
फिर गुज़रना होगा तुमको
लेकर मशाल
ऐ बिरसा!!
तुमको देना होगा
फिर एक बार
हुंकार उलगुलान!!
दिकु बदल शक्ल वेश
फिर हमारे बीच
और भी ख़तरनाक़
और भी जालसाज़
चाईबासा की गलियां हो
सिंहभूम का पत्थर
हज़ारीबाग का जंगल
या दामिन-ए-कोह का आँगन
पटी पड़ी है भूमि
इन दिकुओं से बारंबार
तुमको गुज़रना होगा लेकर
ऐ बिरसा!!
इन पथरीले पठारी पथों से
फिर न्याय और स्वातंत्र की मशाल
और हुंकार
उलगुलान उलगुलान!!!
ताकि फिर कोई
बिरहोर, मुंडा,उरांव,संथाल
हो,खड़िया,कोल, खरवार
धमाकों से उड़ती बारूद में
उसका कण न बन जाए
बड़ी मशीनी दांतो से
चाबाये जा रहे हमारे गौरव
के साथ महज़ निवाला न रह जाये।
उठना होगा लड़ना होगा
खुद से ,खुद की अस्मिता के लिए
उन दबे विष बुझे तीरों को जुबां पर लाना होगा
कि नथ न उतारी जा सके
मयूराक्षी की
ब्राह्मणी की
कोयल की
गुमानी की
देश का गुमान।
उठना होगा , लड़ना होगा
इन लुटेरे दिकुओं के हाथों
संस्कृति की आत्मा और इस्मत को
लूटने से रोकना होगा
पारसनाथ पर्वत जैसे
छाती ताने खड़ा होना होगा।
तुमको आना होगा
गुज़रना होगा
ऐ बिरसा !
भरकर फिर हुंकार
उलगुलान उलगुलान उलगुलान!!!
~~~~~'आलोक मिश्र'
आलोक मिश्र फ़िलहाल मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का एम.फिल का विद्यार्थी हूं। मैंने स्नातक और परास्नातक(राजनीति विज्ञान) की शिक्षा काशी हिन्दू विश्विद्यालय से ग्रहण की है। मैं झारखंड के देवघर जिले का रहने वाला हूं।
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