कविता- शेष आत्मा - आलोक मिश्र
शेष आत्मा
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सुनसान गली में
लैम्पपोस्ट की मद्धम रोशनी तले
नीचे खुद की परछाई
ऊपर आसमान का सूनापन
हथियारबंद दौड़ रहा है
पद-तल से शिखा तक अस्तित्वहीनता का आभास
ये रात ,आम रात नहीं है
ये आम परछाई भी नहीं है
कि ये मद्धम रोशनी भी आम नहीं है
ये रात क्रन्दन की रात है
वीरान आँगन की रात है
कि ये परछाई, मरती मनुष्यता के मध्य निष्क्रियता की है
और मद्धम रोशनी भयानक तूफ़ान मध्य अड़िग
किसी किनारे ठहर गयी, शेष आत्मा है।
आलोक मिश्र
आलोक मिश्र है। फ़िलहाल मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का एम.फिल का विद्यार्थी हूं। मैंने स्नातक और परास्नातक(राजनीति विज्ञान) की शिक्षा काशी हिन्दू विश्विद्यालय से ग्रहण की है। मैं झारखंड के देवघर जिले का रहने वाला हूं।
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