कविता - पिघल ही जाती हूँ - माधुरी चित्रांशी

कविता -  पिघल ही जाती हूँ - माधुरी चित्रांशी


 


पिघल ही जाती हूँ


 


क्या करूँ?


माँ हूँ


पिघल ही जाती हूँ।


लाख मना लूँ,


मन को लेकिन-


टूट-टूटकर,


अन्दर ही अन्दर,


शीशे की तरह


बिखर ही जाती हूँ।


क्या करूँ?


माँ हूँ।


पिघल ही जाती हूँ।


 


सब कुछ तो है,


पहले की तरह,


ज़िन्दगी में।


फिर भी-


एक शून्य बनकर,


रह गई है ज़िन्दगी।


तुम्हारे बिना


अब जी कहीं लगता नहीं


तुम्हारे बिना।


क्या करूँ?


माँ हूँ।


पिघल ही जाती हूँ।


न तुम रही


न कारवां रहा।


बस गुबार ही


कारवां का रह गया।


इस गुबार के धूलों में ही


कुरेद-कुरेदकर,


दिन रात मैं,


तुम्हारी तस्वीर को ही


ढुढ़ती रहती हूँ


क्या करूँ?


माँ हूँ।


पिघल ही जाती हूँ।


                                          माधुरी चित्रांशी