कविता - परत-दर-परत - माधुरी चित्रांशी
परत-दर-परत
उतारती रहती हूँ-
परत-दर-परत,
छिलके-
तुम्हारी यादों के।
क्योंकि-
जीवंत हो जाती हैं,
बचपन से लेकर अभी तक की,
विस्मृत सी हो गई,
सभी घटनायें,
तुम्हारी यादों के।
इसीलिये-
उतारती रहती हूँ-
परत-दर-परत,
छिलके-
तुम्हारी यादों के।
मुँह में सिर्फ दो दाँत लिये,
वह मुस्कराना तुम्हारा।
तोतली भाषा में,
कुछ कहना-
और खिल खिलाकर छिप जाना।
कन्धों पर मेरे,
झूल-झूलकर,
धूम मचाना।
कॉलेज में सखियों के संग,
घूम-घूमकर,
इठलाना और इतराना।
और फिर एक दिन-
सी एक दुल्हन बनकर,
ससुराल अपने चली जाना।
घूम जाती हैं-
अपनी आँखों के सामने,
दिल की गहराइयों के-
में छिपी सभी घटनायें,
तुम्हारी यादों के।
इसीलिये-
उतारती रहती हूँ,
परत-दर-परत,
छिलके-
तुम्हारी यादों के।
माधुरी चित्रांशी