कविता -  पल-अनमोल  - माधुरी चित्रांशी

कविता -  पल-अनमोल  - माधुरी चित्रांशी


 


पल-अनमोल


 


बस याद तुम्हें ही,


दिल-रात किया करती हूँ मैं।


गुजरे हुये स्वर्णिम लम्हों को,


सपनों में आकार दिया करती हूँ मैं


 


आधी-अधूरी ज़िन्दगी के-


टूटे-बिखरे,


खुशियों के साये को,


ढूढ-ढूढ़ कर,


आँखों में बसा लेती हूँ मैं


फिर ज़िन्दगी के


उन पन्नों को सिलकर


एक किताब बना लेती हूँ मैं।


 


बस याद तुम्हें ही,


दिन-रात किया करती हूँ मैं


 


क्या करूँ?


कुछ पन्ने जो,


अनमोल थे,


उन्हें दिल में ही अपने-


समा लेती हूँ मैं।


बिखरी खुशियाँ वापस पाने को,


आँखों में ही समेटकर अपने


चुपके से सो जाती हूँ मैं।


 


बस, याद तुम्हें ही,


दिन रात किया करती हूँ मैं।


 


तुम क्या जानो?


कितना दर्द दिया है तुमने?


लेकिन-


शिकवा भी कोई कैसे करूँ?


खुशियाँ भी तो तुमने-


अपार, असीम, अनगिनत दी थीं


उन्हीं को दिन-रात,


आँखों में बसाये रखती हूँ।


 


बस याद तुम्हीं को,


दिन-रात किया करती हूँ मैं।


गुज़रे हुये स्वर्णिम लम्हों को,


सपनों में आकार दिया करती हूँ मैं


 


                                        माधुरी चित्रांशी