कविता - पावन लौ की तरह -  माधुरी चित्रांशी  

 


कविता - पावन लौ की तरह -  माधुरी चित्रांशी  


 


पावन लौ की तरह


अश्कों से-


भीगे हुये,


मेरे आँचल में।


तुम्हारे साँसों की,


वो-


मीठी सी चुभन।


कुछ लिपटी,


कुछ सिमटी,


सहमी-सहमी सी


समाई रहती है


कैसे कह दूं कि-


अब,


नहीं हो तुम कहीं,


कहीं भी नहीं।


क्योंकि-


चौबारे में,


मेरे मन के-


अंधेरे आँगन में,


पल पल,


हर पल,


जगमगाती ही,


रहती हो


किसी मन्दिर के


दीये की-


पावन लौ की तरह।


रोशन करती ही-


रहती हो,


अमावस की-


दीपावली की तरह।


मेरे घर,


आंगन को।


कैसे कह दूँ कि-


अब,


नहीं हो तुम कहीं,


कहीं भी नहीं।


                                        माधुरी चित्रांशी