कविता - मृग-तृष्णा - माधुरी चित्रांशी
मृग-तृष्णा
ढुढ़ती हूँ मैं-
तुमको,
आसमान के-
झिलमिल,
चाँद-सितारों में।
दर-दर भटक रही हूँ,
कब से,
दुनिया के,
बिया बानों में
मृगतृष्णा सी,
दिखती हो तुम,
तपते जीवन के-
रेगिस्तानों में।
पर.......
बढ़ती हैं जब,
मेरी बाहें-
तुमको गले लगाने को,
हँसकर,
छिप जाती हो तुम,
किस-
स्वर्ग लोक के,
आँगन में।
और मैं-
ठगी सी,
खड़ी रह जाती हूँ,
तुम्हारे स्पर्श की-
मासूम घुअन को-
आँखें मूंदे,
गले लगाये,
ढुढ़ती हूँ मैं,
तुमको,
आसमान के,
झिलमिल,
चाँद सितारों में।
दर-दर,
भटक रही हूँ,
कब से,
दुनिया के-
बियाबानों में।
माधुरी चित्रांशी