कविता - मन तो पागल है - माधुरी चित्रांशी
मन तो पागल है
पता है!
तुम नहीं हो।
कहीं भी नहीं,
फिर भी-
मन तो पागल है।
कैसे समझाऊँ?
हर आहट पर-
दिल की धाड़कन,
कानों में-
कुछ कहती है।
शायद! तुम हो?
तुम्हारी ही आहट है ये।
लोग कहते -
"जाने वाले कभी नहीं आते"।
लेकिन-
तुम गई कहाँ थी,
जो आओगी?
तुम तो-
मुझमें ही हो समाई हुई।
दिल. दिमाग. साँसों,
सपनों में,
बस-
तुम ही तुम हो।
केवल तुम!
मेरी परछाई में भी-
शायद,
परछाई तुम्हारी,
घुल सी गई है।
पता है!
तुम नहीं हो।
कहीं भी नहीं।
फिर भीमन तो पागल है,
कैसे समझाऊँ?
माधुरी चित्रांशी
माधुरी चित्रांशी