कविता- ख़बरदार - आलोक मिश्र
ख़बरदार
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मनुष्य होने से पूर्व
हम है एक अजनबी
ख़बरदार...
मेरे क़रीब आने से पहले
मेरे जिस्म की गंध मात्र से
तुम नहीं जान पाओगी
मेरी मृत मनुष्यता की हद
तुम दो-चार शिष्ट संबोधन से
नहीं दबा सकोगी मनुष्यता की लाश से उठती गंध
ख़बरदार...
इस सड़ांध से दूर रहो
मनुष्यता का पाठ मत पढ़ाओ
चूँकि 'मनुष्यता' के एहसास को चाहिए
मनुष्यता का बचा रहना
रहने दो तय करने को कोई पैमाना
चूँकि मनुष्यता की लाश हम तह-दर-तह रसातल तक ले जा चुके है
और तुम नहीं फ़र्क़ कर सकोगी
आम गंध और मृत-मनुष्यता की गंध में
ख़बरदार..
हमे किसी उम्र में मत बांधना
चूँकि हम हर उम्र में हो सकते है
चौदह से निन्यानवे दोनों छोरो से फैलते हुए
हम कहीं भी हो सकते है
कठुआ , जेहनाबाद ,मद्रास और कन्याकुमारी
हम किसी भी पेशे में हो सकते है
एक मज़दूर से लेकर शीर्ष अधिकारी
ख़बरदार...
हम किसी भी रिश्ते में हो सकते है
एक अजनबी से लेकर पिता और भाई
दूर रहो.....
हम किसी भी उम्र में ,किसी भी वक़्त
किसी भी रिश्ते में और कहीं भी
अमानवीयता की क्रूरतम हद तक जाकर
तुम्हे लाश बना सकते है ज़िंदा या मुर्दा
मैं मृत मनुष्यता की लाशों के मध्य बैठा
इस सड़ांध का आदी हो चुका हूं
और बन सकता हूं किसी भी वक़्त इस सड़ांध का हिस्सा
मनुष्यता के छिटके हिस्से का सहारा लिए
मैं कलुषित जाति का हिस्सा
पुकार करता हूं ...
ख़बरदार...दूर रहो
हम अजनबी से।
आलोक मिश्र
आलोक मिश्र है। फ़िलहाल मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का एम.फिल का विद्यार्थी हूं। मैंने स्नातक और परास्नातक(राजनीति विज्ञान) की शिक्षा काशी हिन्दू विश्विद्यालय से ग्रहण की है। मैं झारखंड के देवघर जिले का रहने वाला हूं।
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