कविता - जब दुल्हन बनी थी -  माधुरी चित्रांशी

 


कविता - जब दुल्हन बनी थी -  माधुरी चित्रांशी


 


जब दुल्हन बनी थी


 


कस दिया है,


मेरे मन को तुम्हारी,


यादों के धागों ने-


भर-भरकर इतना,


कि दु:ख के-


अंधेरों से घिरकर,


घायल सा मन मेरा,


दरकने लगा है।


मौन भाषा ने,


सितारों की महफ़िल में-


फिर से,


एक दुनिया को,


सजा ही दिया है।


कल्पना की दुनिया में,


फिर से तो देखो,


दुल्हन बनकर


सज रही है-


तुम्हारी ही मूरत।


न तीखा करो-


अपने काजल को इतना


घायल सपनों का रंग


बिखरने लगा है


अन्तहीन प्रतीक्षा के क्षण,


बन गये हैं-


जैसे पंखुड़ी पर लिपटी,


सावन की बूंदें।


यादों के पंखों को,


न छेड़ो तुम इतना,


कि पलकों के आँसू,


बिखरने लगे हैं।


 


कस दिया है-


मेरे मन को,


तुम्हारी यादों के धागों ने,


भर-भरकर इतना,


कि दु:ख के-


अंधेरों से घिरकर,


घायल सा मन मेरा,


दरकने लगा है।


                      माधुरी चित्रांशी