कविता -  हमारी बेटी  - माधुरी चित्रांशी

कविता -  हमारी बेटी  -   माधुरी चित्रांशी


 


हमारी बेटी


 


 


नाज़ों से कितना,


पाला था तुमको।


रानी थी तुमतो,


हमारे इस घर की।


मिटते थे हम तो -


तुम्हारी एक हँसी पर,


जीते थे तुम्हारी,


बातों को सुनकर।


 


कितनी प्यारी थी,


तुम्हारी खनकती हंसी वो


और चेहरा था जैसे-


खिलता कंवल।


फिर अचानक-


हमसे यूँ मुँह मोड़कर,


चली क्यों गई-


तुम हमें छोड़कर?


 


ऐसी क्या थी खता-


जो दे दी ऐसी सजा?


दुनिया ही सबकी,


बरबाद कर दी।


न जी ही सके,


न मर ही सके हम।


दर्द दिल का दबाकर,


घुटते रहे बस।


 


अब तो ज़िन्दगी भी,


घुट-घुट कर-


थक सी गई है।


हर पल भी कांटों से,


विंधने लगे हैं।


कैसे गुजारूँ ये जीवन


तुम्हारे बिना


साँसें भी अब तो-


रूकने लगी हैं।


 


नाज़ो से कितना,


पाला था तुमको।


रानी थी तुम तो,


हमारे इस घर की


मिटते थे हम तो,


तुम्हारी एक हंसी पर,


जीते थे तुम्हारी,


बातों को सुनकर


 


                                     -  माधुरी चित्रांशी