कविता - दर्द - माधुरी चित्रांशी
दर्द
अंधेरी रात की गुमसुम सी,
तनहाइयों में अक्सर,
हम तुम्हें ज़ार-ज़ार रोकर,
याद किया करते हैं।
छुप-छुपकर अपने दर्द का,
तुम्हारी तस्वीर से लगकर,
बहते आँसुओं की धार से,
इज़हार किया करते हैं।
बड़ा सुकून मिलता है,
तुमसे अपना दर्द बयां करके।
ये दर्द तो तुम्हीं से मिला है,
तुम्हें ही तो दिखा सकती हूँ।
नहीं अब रहा कोई बहाना,
बिना किसी बात के हंसने का।
तुम्हारे गम के अंधेरे में,
हंसी का गुब्बारा भी भटक गया।
बची है अब तो केवल,
एक ही ख्वाहिश जिगर में।
कैसे, कहां से ढूढ़कर लाऊँ मैं तुमको,
और निकालूँ अधूरे सभी अरमां दिल के।
कभी तो मिलूँगी मैं तुमसे,
भले मरकर ही सही।
पर मिलुंगी तो जरूर, एक बार,
खुदा पर इतना तो यकी है।
अंधेरी रात की गुमसुम सी,
तनहाइयों में अक्सर,
हम तुम्हें ज़ार-ज़ार रोकर,
याद किया करते हैं।
माधुरी चित्रांशी