कविता - दर्द का धुंआ - माधुरी चित्रांशी
दर्द का धुंआ
रास्ते में खड़ी हूँ-
तुम्हारी एक झलक के लिये।
मैं धुंये को पिये जा रही हूँ,
एक सहर के लिये।
कोई तो जाकर कह दो-
उन सूनसान किनारों से।
उफनती भंवर में खड़ी हूँ,
एक लहर के लिये।
रास्ते में खड़ी हूँ,
तुम्हारी एक झलक के लिये
आरजू कर रहा है मेरा हृदय,
मेरे सपनों को कोई असर तो दे
दासी बन जाऊँगी तुम्हारी,
ऐ भगवन्! उम्र भर के लिये।
रास्ते में खड़ी हूँ-
तुम्हारी एक झलक के लिये
एक तस्वीर तो लेकर चली हूँ,
तुम्हारी, ये सोचकर
कहीं तसव्वुर में न आ जाओ तुम,
संवरकर, एक पल के लिये।
रास्ते में खड़ी हूँ-
तुम्हारी एक झलक के लिये।
मुझे एक बार झलक उसकी,
सपने में भी तो दिखा दे।
सारे गरल छिपा लुंगी अपने सीने में।
कोई मुस्कान तो दे दे इस अधर के लिये।
रास्ते में खड़ी हूँ-
तुम्हारी एक झलक के लिये।
मैं धुंये को पिये जा रही हूँ,
एक सहर के लिये।
माधुरी चित्रांशी