आलेख - येट्स के भारतीय संबंधों की पड़ताल : डब्ल्यू.बी. येट्स एंड ओकल्टिज्म - डॉ. महेंद्र प्रसाद कुशवाहा एवं डॉ. शांतनु बनर्जी

डॉ. महेंद्र प्रसाद कुशवाहा, जन्मतिथि : 15 जनवरी 1981, भरकट्टा, गिरिडीह, झारखण्ड सम्प्रति : स्नातकोत्तर हिंदी विभाग, टी.डी.बी. कॉलेज, रानीगंज, पश्चिम बर्द्धमान, पश्चिम बंगाल में अध्यापन।


एवं


डॉ. शांतनु बनर्जी, जन्म : 24 अप्रैल 1979, पुरुलिया, पश्चिम बंगाल सम्प्रति : अंग्रेजी विभाग, काजी नज़रुल विश्वविद्यालय, आसनसोल, पश्चिम बंगाल में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत


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कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डब्ल्यू. बी. येट्स पर पीएचडी करने वाले डॉ. हरिवंश राय 'बच्चन' पहले भारतीय हैं। १९५२ में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में वे इसके लिए पंजीकृत हुए थे और १९५४ में उन्होंने 'डब्ल्यू. बी. येट्स एंड ओकल्टिज्म' विषय पर पीएचडी की उपाधि हासिल की थी। हालाँकि १९३९ में वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पीएचडी के लिए 'डब्ल्यू. बी. येट्स एंड इंडियन लोर' शीर्षक से पंजीकृत हुए थे, पर सामग्री के अभाव में उन्होंने यह कार्य अधूरा छोड़ दिया था। १९५२ में जब उन्हें कैम्ब्रिज से पीएचडी करने का मौका मिला तो उन्होंने अपने उसी अधूरे काम को पूरा करने का मन बनाया। वे अपने कार्य में लग भी गए, पर अपने शोध निर्देशक टी. आर. हेन और जी. जी. हाफ की सलाह पर उन्होंने अपना विषय बदलकर 'डब्ल्यू. बी. येट्स एंड ओकल्टिज्म' कर लिया और इसी विषय पर उन्हें पीएचडी की उपाधि मिली। उनकी पीएचडी की यह थीसिस पुस्तक रूप में पहली बार १९६५ में मोतीलाल बनारसी दास से इसी शीर्षक से अंग्रेजी में प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक में उन्होंने येट्स की कविता में आए भारतीय सन्दर्भो की विस्तृत विवेचना की है


      हरिवंश राय बच्चन' हिंदी के प्रसिद्ध कवि, गद्यकार और अनुवादक हैं। उनका साहित्य विपुल है। हिंदी के आलोचकों ने उन्हें 'हालावादी कवि' कहकर उनके साहित्यिक वैभव को सीमित कर दिया है। वे हिंदी के उन विरले कवियों में से हैं जिनकी जड़ें हिंदी समाज के साथ-साथ इंग्लैंड और आयरलैंड के समाज में भी समाई हुई हैं। उनके साहित्य के विविध आयाम हैं, पर दुर्भाग्य से हिंदी आलोचकों ने उनके उन आयामों को पकड़ने की बजाय उन्हें 'हालावादी कवि' कह अपनी भूमिका की इतिश्री मान लीया है। हरिवंश राय 'बच्चन के विविध आयामों में से एक महत्त्वपूर्ण आयाम डब्ल्यू. बी. येट्स पर किया गया उनका शोध है। इस आलेख में उनकी इसी शोध पुस्तक 'डब्ल्यू. बी. येट्स एंड ओकल्टिज्म' के आधार पर उनकी महत्ता को प्रतिपादित करने की कोशिश की गई है।


        डॉ. हरिवंश राय बच्चन ने अपनी पुस्तक 'प्रवास की डायरी', 'बसेरे से दूर' और अपने कई निबंधों में लिखा है कि कैम्ब्रिज और आयरलैंड (१९५२ से १९५४ तक) में बिताए दो साल उनके जीवन के सबसे रचनात्मक और प्रेरणादायक वर्ष थेइन दो वर्षों में उन्होंने वहाँ के लोगों और उनकी संस्कृति के बारे में जितना जाना, उसने उनके मन को पूरी तरह से बदल दिया। पश्चिमी औपनिवेशिक राजनीति अपनी संस्कृति को पूर्व से श्रेष्ठ मानकर गर्व करती है और पूर्व को 'अदर' के रूप में देखती है। भारतीय राष्ट्रवादी हमेशा पश्चिम की इस औपनिवेशिक राजनीति पर सवाल उठाते रहे हैं। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के बाद इस दृष्टि में बदलाव आया। कई पश्चिमी कलाकारों और लेखकों ने पूर्व की संस्कृति, परंपरा और विचार प्रक्रिया में शरण ली। विज्ञान, बुद्धिवाद, नैतिकता और धर्म के बीच से उपजे संघर्ष भारतीय उपनिषदों की छाया में हल होते नज़र आने लगे। डब्ल्यू. बी. येट्स भी ऐसे ही पाश्चात्य लेखकों में से एक थे। उन्होंने भारतीय परंपरा, संस्कृति, धर्म, दर्शन आदि को गहरे अर्थों में देखा, समझा और अपनी कविता का आधार बनाया है। १९५२ में यही आधार बच्चन जी के शोध का विषय बना। प्रोफेसर टी. आर. हेन और ग्राहम हफ उनके पर्यवेक्षक हुए। बच्चन जी के लिए जातीय भाषा और साहित्य दोनों ही इसकी संस्कृति को समझने के सबसे महत्वपूर्ण स्रोत हैं। उनके लिए संस्कृति एक लिफाफे की तरह है जिसमें राष्ट्र का हर एक कोड और अंतर्राष्ट्रीय संचार के लिए सभी आवश्यक तत्व होते हैं।


    बच्चन जी के लिए अपनी व्यक्तिगत क्षमता में एक कवि किसी भी उम्र या देश के किसी भी विचार का अध्ययन करने और उसे अपनाने या किसी अन्य के साथ गठबंधन करने के लिए स्वतंत्र है। आयरलैंड सात सौ सालों से ब्रिटिश शासन से आजादी पाने की कोशिश कर रहा था। अपनी ताकत का एहसास होने के बाद आयरलैंड कला और साहित्य के माध्यम से पूरे यूरोप में खुद को प्रोजेक्ट करना चाहता थायेट्स आधुनिक युग के सबसे बड़े अंग्रेजी कवि के रूप में जाने जाते हैं क्योंकि येट्स ने आयरिश पुनर्जागरण के इस चरण में सबसे अधिक योगदान दिया है। फिर भी येट्स को यदि हम आयरिश राष्ट्रवादी आंदोलन का मुखपत्र मानते हैं तो यह गलत होगा। व्यक्तित्व और स्वतंत्रता की येट्स की अपनी धारणा थीवे एक राष्ट्रवादी कवि जरूर थे, लेकिन कभी भी वे सिर्फ आयरलैंड के कवि होकर नहीं रहना चाहते थे। उनके सामने उदाहरण के रूप में इतालवी कवि दांते खड़े थे। येट्स एक महान यूरोपीय कविता लिखना चाहते थे, लेकिन उन्हें पता था कि महान कविता एक महान युग में दृढ़ विश्वास के साथ ही लिखी जा सकती है। दांते के 'डिवाइन कॉमेडी' के पीछे कैथोलिक ईसाई धर्म था, जबकि येट्स के समय में ईसाई धर्म डार्विन और हक्सले की वैज्ञानिक खोजों से उड़ चुका था। ऐसे में येट्स को लगा कि जब तक कोई व्यवस्था, नियम, भक्ति या धर्म नहीं हो जाता, तब तक उच्च स्तर की कविता या जीवन के लिए कोई नई संभावना नहीं खोजी जा सकती।


    येट्स ने दुनिया भर में इसके लिए खोज की। उन्होंने आयरिश किसान के अंधविश्वास, मेस्मेरिज्म, प्राचीन ग्रीस और मिस्र के उच्चतम विचारों, यहूदी कबाला, भगवद् गीता और उपनिषदों, मैडम ब्लावात्स्की की थियोसॉफी आदि का गहन अध्ययन किया और इसके माध्यम से एक पद्धति बनाने की कोशिश की। बच्चन जी जब येट्स पर शोध कार्य के लिए गए तो उन्होंने अपना ध्यान येट्स की इसी नई पद्धति या कहें गुप्त और गूढ़ स्रोतों पर केंद्रित किया।


    टी. आर. हेन मानते हैं कि येट्स जीवन भर मनोवैज्ञानिक साहित्य और अपनी प्रथाओं के प्रति चिंतनशील थे। भारतीय विद्वानों के साथ अपनी मित्रता और उपनिषदों के पढ़ने से उन्हें अधिकांश उपर्युक्त गुप्त और गूढ़ ज्ञान प्राप्त हुआ थामहान कवियों की परंपरा का पालन करते हुए येट्स ने अपने सभी अनुभवों को रचनात्मक कार्यों में संरक्षित किया। इस कार्य को वे हमेशा व्यवस्थित और तर्कसंगत रूप से नहीं कर पाए, लेकिन विभिन्न वस्तुओं, पुस्तकों, लोगों, विचारों आदि से उन्होंने स्वयं के लिए एक विशेष संश्लेषण का निर्माण करते हुए अपने दिल की 'पुरानी-चीर-और-हड्डी-दुकान' में संग्रहीत कुछ कुंवारी धातु से उसका निर्माण करते रहेइसके बावजूद अपनी थीसिस में बच्चन जी ने उस पहलू की पड़ताल करने की कोशिश नहीं की जो येट्स के लिए दिलचस्प रहा हो लेकिन गूढ़ और गुप्त न हो। उन्होंने १९२५ में 'ए विजन' प्रकाशित होने के बाद येट्स द्वारा पढ़े जाने वाले दार्शनिकों की भी जांच नहीं की। अपनी थीसिस में बच्चन जी ने डब्ल्यू. बी. येट्स की कविता पर भारतीय गुप्त और गूढ़ विद्या, कबाला, स्वीडनबॉर्ग, बोझे और थियोसोफी का प्रभाव दिखाने की कोशिश की है। बच्चन जी ने अपनी थीसिस में यह दिखाया है कि येट्स का अपना सिद्धांत और दर्शन है जिसे येट्स ने अपनी कविता में सचेत रूप से सन्निहित किया हैइसके अलावा उनका एक और दर्शन है जिसके बारे में येट्स सचेत नहीं हैं, पर वे उनकी कविता में हैं और उसे उनकी कविता से हटाया नहीं जा सकता है।


      टी.आर. हेन ने बच्चन जी को येट्स की कविता में उनके गूढ़ अध्ययनों, लोक-विद्या में उनकी रुचि और उनकी मानसिकता आदि के बारे में बताया था। बच्चन जी मानते हैं कि येट्स ने केवल अपनी कविता के लिए मनोविज्ञान का उपयोग नहीं किया है, बल्कि उन्होंने इसे सभी के स्पष्टीकरण के रूप में देखा है। वे मानते हैं कि आत्मा और ईश्वर के रहस्य, जीवन और मृत्यु, दुनिया और उससे परे की दुनिया को जानने की जरूरत है। येट्स ने अपने जीवन के पिछले बीस वर्षों में गंभीरता और श्रमशीलता से अपने अनुभवों और विचारों को एक प्रणाली के रूप में तैयार किया और उन्होंने १९२५ में 'ए विजन' को अंतिम रूप दिया।


    अपनी युवावस्था में येट्स मोहिनी चटर्जी की मदद से थियोसोफिकल सोसायटी के संपर्क में आए थे। वे १८८५ में डबलिन में मोहिनी चटर्जी द्वारा सिखाए गए 'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या' जैसे अद्वैत दर्शन के प्रभाव में रहे। येट्स अपने और अपने आदर्श-आदमी और मुखौटा के बीच विभाजन के प्रति सचेत थे। इसके लिए दोनों के बीच लंबी और लगातार लड़ाई चलती रहती थी। ऐसे संघर्ष में से उनकी कविता बनी है। अंततः आदमी हारता है और मुखौटा जीतता है, बल्कि मुखौटा आदमी बन जाता है। बच्चन जी की अपनी व्याख्या है कि येट्स अभी तक खुद को सीधे-सीधे व्यक्त करने की कोशिश में लगे थे और इसीलिए अपने व्यक्तित्व से इतर अर्थ को विकसित करने में सफल नहीं हो पा रहे थे। अंततः उन्होंने 'मास्क के पीछे से' बात की।


    येट्स ने मोनियर विलियम्स द्वारा किए गए अनुवाद में कालिदास की शकुंतला को पढ़ा था और उसी के प्रभाव स्वरूप अपने नाटकों में 'करुणा', 'अनसूया', 'विजया' और 'अमृता' शब्दों का इस्तेमाल किया था। बच्चन जी के अनुसार येट्स की 'द सेकेंड कमिंग' शकुंतला का ऋणी है। येट्स के अनुसार सच्चे मनुष्य के रूप में मसीहा का पहला आगमन सफल प्रतीत नहीं होता है, इसलिए दूसरा एक जानवर के रूप में प्रकट होता है। बच्चन जी के अनुसार यह हिंदू धर्म का नरसिंह-अवतार है। नरसिंह-अवतार का 'मैन-लायन' के साथ घनिष्ठ संबंध एक नए रहस्य की ओर इशारा करता है। बच्चन जी इस रहस्य को पकड़ने और इसके रहस्योद्घाटन के लिए कैम्ब्रिज जाते हैं और येट्स पर पीएचडी की उपाधि हासिल करते हैं। बच्चन जी इसे येट्स की कविता पर भारतीय संस्कृति के प्रभाव के रूप में देखते हैं।


    बच्चन जी के अनुसार येट्स ने अपने जीवन और कविता में मोहिनी चटर्जी और गीता के शब्दों को स्वीकार किया है, उनकी भावना को नहीं। गीता के शब्द जीवन से अलगाव को बढ़ावा देने के लिए थे, क्योंकि जीवन में कुछ नया नहीं था। येट्स ने इस विश्वास को स्वीकार कर लिया क्योंकि इससे उन्हें असंख्य अवसरों को फिर से जीने का आश्वासन मिला। येट्स के लिए जीवन का उद्धार वास्तविक जीवन का पुनः जीवित होना था। इसलिए उन्होंने बार-बार जोर देकर कहा कि 'मरकर भी हम बार-बार जिन्दा हो उठते हैं।'


    हिन्दू धर्म में यह मान्यता है कि गलत काम की सजा फिर से जन्म लेकर भुगतनी पड़ती है। यहाँ मुक्ति का अर्थ जन्म और मृत्यु के बंधनों से मुक्ति है। थियोसोफिस्ट्स का मानना है कि प्रत्येक अवतार के साथ आत्मा का उत्तरोत्तर विकास होता है और इसे पूरा करने के लिए ऐसे कई जन्मों की आवश्यकता होती है। येट्स ने इसके साथ पुनः अवतार को भी स्वीकार किया। बच्चन जी के अनुसार येट्स ने इसे स्वीकार किया क्योंकि इससे उन्हें जीवन को बार-बार जीने का आश्वासन मिला। येट्स अपने बुढ़ापे में युवा होना चाहते थे। वे अपने उस जीवन को फिर से जीना चाहते थे जिसे वे पहले ही जी चुके थे। शायद यही कारण था कि वे अपने जीवन के अंतिम दशक में एक ऑपरेशन से गुजरे। इसे हम जीवन से निपटने के लिए उनके एक आधुनिकतावादी दृष्टिकोण के रूप में भी ले सकते हैं, जिसका जन्म पहले विश्व युद्ध के बाद के वातावरण से हुआ था।


    यहूदी कबाला में यह धारणा रही है कि ईश्वर वह है जो दुनिया नहीं है। यह अच्छाई और बुराई दोनों में है। 'द सीक्रेट रोज', 'द वंडरिंग ऑफ ओइसिन' और कुछ अन्य कविताओं में येट्स ने भी यही बात कही है। जब आत्मा और शरीर भौतिक संसार से बाहर हो जाते हैं और बाहर की दुनिया में चले जाते हैं, तो हम सर्वोच्च पर पहुँच सकते हैं, क्योंकि जहाँ कुछ भी नहीं है, वहाँ भगवान है।


    बच्चन जी ने अपनी थीसिस में यह दिखाया है कि येट्स की कविता में मुखौटा का विचार भी कबाला से ही आया था। कबाला के गीत 'द ग्रीन हैमलेट्स', 'द डेथ ऑफ सिंज' और 'द प्लेयर क्वीन' नामक काव्य-संग्रहों में शामिल हैं। १८९० के दशक में एक प्रतीक था -रोज। इसे येट्स ने अपनी कल्पना से पकड़ा और अपनी कई कविताओं और कहानियों में इसका प्रयोग किया। उदाहरण के तौर पर हम उनके काव्य-संग्रह 'द रोज' (१८९३) और 'द सीक्रेट रोज' (१८९७) को देख सकते हैं। ये येट्स की कल्पना में एक प्रमुख प्रतीक बन गए हैं। बच्चन जी को लगता है कि कबाला ने अद्वैत अमूर्तता से येट्स को बचाया है और उन्हें सपनों और छवियों को विकसित करने की एक विधि प्रदान की है जो कालांतर में उनके लिए विश्व-स्मृति (वर्ल्ड मेमोरी) के साथ संवाद करने का साधन साबित होती है।


    येट्स मोहिनी चटर्जी के भाषण में आए 'कौड़ी' शब्द से परिचित हुए थे। इसका शाब्दिक अर्थ है - एक छोटा समुद्री शंख। यह 'कौड़ी' शब्द आगे चलकर उनकी कविता में एक प्रमुख प्रतीक का रूप ले लेता है और येट्स की कविता के निर्माण में महत्त्वपूर्ण काव्यात्मक भूमिका निभाता है। येट्स ने अपने रचनात्मक जीवन में कभी भी किसी से कुछ भी तब तक स्वीकार नहीं किया, जब तक कि उसे येटिसयन रंग या येट्सियन टच नहीं दे दिया हो। बच्चन जी के अनुसार येट्स स्वयं परिपक्व होने की प्रक्रिया का प्रतीक बने रहे। वे हमेशा पहले से बेहतर शुरुआत करने के लिए अपनी आरंभिक स्थिति में जाना चाहते थे। उन विषयों में निरंतर वापसी का सुझाव देने के लिए उन्होंने अपनी काव्य तकनीक में 'जायर' प्रतीक का उपयोग किया है। बच्चन जी के अनुसार येट्स ने अपनी पत्नी से कहा था कि उन्होंने अपनी ज़िन्दगी एक ही चीज़ को अलग-अलग तरीकों से कहकर बिताई है। येट्स सुझाव देते थे कि शंकु या जायर की एक चक्र या क्षेत्र बनने की संभावना है। बच्चन जी अपनी थीसिस में 'जायर' के सम्बन्ध में येट्स की इस विशेष अवधारणा की सराहना करते हुए वक्त की चक्राकार गति में येट्स का विश्वास और कविता में उसके प्रयोग का विश्लेषण करते हैं।


    जब आधुनिक विज्ञान ने क्रिश्चियनिटी पर अपना प्रभाव डाला तो धीरे-धीरे ही सही लेकिन लोगों का क्रिश्चियनिटी से विश्वास डगमगाने लगा। ऐसे में लोगों ने 'क्रिश्चियनिटी में _वापसी', 'कबाला में वापसी', 'उपनिषदों में वापसी' आदि कहना शुरू किया। इसके परिणामस्वरूप येट्स ने अपनी रचनात्मक क्षमता से इसके लिए एक पद्धति विकसित की जो न केवल उनकी कल्पना को प्रकाशित करता है, बल्कि अपने आप में स्वतंत्र दिव्यता की घोषणा भी करता है। इसका परिणाम 'ए विजन' था। बच्चन जी की दृष्टि में येट्स की यह पद्धति व्यक्ति और सभ्यता के संघर्ष की चिंता करती है। इसका समर्थन येट्स को भारतीय दर्शन, उपनिषदों और हिंदू गुप्त और गूढ़ विद्या में मिला था। बच्चन जी के अनुसार येट्स १९३० में पुरोहित स्वामी से मिले और आजीवन मित्र बने रहे। पुरोहित स्वामी ने येट्स के साथ मिलकर उपनिषदों की दस पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद किया। 'ए विजन' के दूसरे संस्करण के 'द ग्रेट ईयर ऑफ द एसीट्स' में उपनिषदों के पढ़ने और पुरोहित स्वामी से सीखे गए हिंदू विद्या के बारे में येट्स ने लिखा है।


    बच्चन जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उनकी आयरलैंड की यात्रा के दौरान, श्रीमती जॉर्ज येट्स ने उन्हें बताया था कि 'ए विजन' को दो प्रकार के लोगों को संबोधित किया गया था- एक, वे जो येट्स की कविता के प्रशंसक थे; और दूसरे, वे जिनके जीवन में मुख्य रुचि मनोविज्ञान की खोज थी। संभवतः इसे ही 'ए विजन' में येट्स ने अपनी पद्धति के दो विषयों के बारे में बात की है- मानव आत्मा की प्रगति और मानव सभ्यता की प्रगतिश्रीमती येट्स मानती थीं कि यह पद्धति उनके अवचेतन पर येट्स की चेतना को थोपने का परिणाम था। उनके अवचेतन ने जो कुछ सुना, पढ़ा या जाना और होश में आने के बाद उसे याद करके एक व्यवस्थित रूप देने का काम येट्स ने किया है।


    बच्चन जी मानते हैं कि येट्स की कविता हमें समय, जीवन और दुनिया की विषम स्थितियों में भी घबराने और निराश होने की अनुमति नहीं देता है, वह हमें मानवीय गरिमा बनाए रखने और समझदार रहने के लिए चार्ज करता है। बच्चन जी को लगता है कि वर्तमान में येट्स को उनकी कविता द्वारा नहीं, बल्कि उनकी पद्धति द्वारा आंका गया है। बच्चन जी मानते हैं कि जब येट्स ने अपनी उपलब्धियों को खुद के लिए तय किए गए मानकों के आधार पर आंका, तब उन्होंने जितने श्रमसाध्य प्रयोग से अपनी पीढ़ी की परंपराओं को बचाए रखने के लिए जागरूकता स्थापित की, उतना और किसी ने नहीं किया है।


    पश्चिम में गुप्त और गूढ विद्या की व्याख्या की प्रक्रिया भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के साथ शुरू हुई थी। अंग्रेजी विद्वानों ने पहले हमारे देश की प्राचीन भाषा सीखी और फिर इसके प्राचीन साहित्यिक, दार्शनिक और धार्मिक पाठ का अनुवाद करना शुरू किया। इस तरह से भारत की ख्याति पाश्चात्य बौद्धिक समाज में हुई। यूरोप की प्रमुख भाषाओं में भारतीय क्लासिकल साहित्य के अनुवादों ने भारत को पश्चिम में स्थापित करने में मदद की, हालाँकि इसका दायरा कवियों और दार्शनिकों तक ही सीमित रहा। इस प्रकार भारतीय अंधविश्वास, लोक-विद्या और अत्यधिक व्यवस्थित भारतीय दर्शन एक प्रकार से पाश्चात्य ज्ञान का भंडार बन गया, जिनसे पश्चिम को विचार, बिंब, प्रतीक और यहाँ तक कि प्रस्तुति का स्वरूप भी मिला।


    बच्चन जी का मानना है कि येट्स इसी परंपरा के थे। उन्होंने पूर्वी भोगवाद के साथ-साथ भारतीय विद्या में भी गहरी रुचि ली थी और उनके लेखन का काफी हिस्सा इससे प्रभावित है। बच्चन जी ने स्वीकार किया है कि येट्स ने अपने भीतर वाल्टर पेटर का भ्रूण और शंकराचार्य -दोनों को एक साथ समेटकर रखा है। येट्स एक स्वप्नदृष्टा थे- डरपोक, मूडी और उदास; कला को जिन्दगी का सबकुछ समझने वाला, और एक ऐसा दार्शनिक व्यक्ति जो दुःख को भी अपना दोस्त समझता है। बच्चन जी के अनुसार येट्स ने शंकराचार्य के दर्शन को स्वीकार कर लिया था क्योंकि यह उनके स्वभाव और उनके तत्कालीन जीवन की अवस्था के अनुकूल था।


    ___ बच्चन ने एक गैर-ईसाई के रूप में येट्स को पढ़ा, समझा और येट्स के दर्शन के बारे में लिखा है। गैर-इसाई और भारतीय होने के नाते वे येट्स की कविता में आए भारतीय गुप्त और गूढ़ विद्या को निस्संग दृष्टि से देख सके हैं। इसीलिए येट्स के दर्शन के बारे में उनका निष्कर्ष येट्स के लेखन से भी अधिक स्पष्ट तरीके से सामने आ सका है। उन्होंने अपनी थीसिस में इस ओर भी हमें संकेत किया है कि भले ही येट्स ने अपनी कविता के लिए एक नई पद्धति का विकास किया हो, पर उस पद्धति को परंपरा में बदलने में वे सक्षम नहीं हो सके। .  १९५५ में प्रकाशित अपने निबंध 'डब्ल्यू. बी. येट्स' को बच्चन जी ने ऑल इंडिया रेडियो के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए कहा था कि येट्स आधुनिक काल के महानतम कवियों में से एक हैं, यहाँ तक कि टी.एस. एलियट से भी अधिक, जिनके लिए येट्स उनकी पीढ़ी के सबसे बड़े अंग्रेजी कवि थे। साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि एलियट बद्धिजीवियों और विद्वानों के कवि हैं। एक बार जब कोई व्यक्ति एलियट की कविताओं के सभी भ्रमों और संदर्भो के बारे में बताता है, तो एलियट के लिए हमारी रुचि घटने लगती। लेकिन येट्स के साथ ऐसा नहीं है। उनकी कविताएँ बहती धारा की तरह हैं; जितनी बार कोई इसे स्पर्श करता है, उतनी बार उसमें कुछ नई चीजें शामिल होती जाती हैं। बच्चन जी का मानना है कि यह उनकी आयरलैंड यात्रा ही थी जिसने येट्स की कविता और दर्शन को बहुत अच्छी तरह से पढ़ने, समझने और उस पर लिखने का उन्हें अवसर प्रदान किया। इसी यात्रा के दौरान येट्स की कविता के गूढार्थ को समझते हुए उन्होंने खुद को आयरलैंड के साथ पूरी तरह से जुड़ा हुआ महसूस किया और येट्स का अनुवाद और येट्स पर बोलने का अधिकार प्राप्त किया।


    निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि हरिवंश राय बच्चन' की यह पुस्तक डब्ल्यू. बी. येट्स को समझने में तो हमारी मदद करती ही है, इसके साथ-साथ इससे अंग्रेजी के कवियों में आए भारतीय संदर्भो के स्रोत की भी जानकरी हमें मिलती है। किस तरह से मुश्किल की घड़ी में अंग्रेजी के कवियों ने भारतीय ग्रंथों, विचारों और संस्कृतियों का सहारा ले अपनी बात रखी है, इसका अंदाजा भी हम इस पुस्तक से लगा सकते हैं। हम भारतीयों में यह एक आम धारणा रही है कि भारतीय साहित्य ने पश्चिमी साहित्य और साहित्यकारों से बहुत कुछ लिया है। यह तो सच है, पर यह भी उतना ही बड़ा सच ही की पश्चिम के विद्वानों और लेखकों ने भी समय-समय पर भारत से बहुत कुछ सीखा और लिया है। इस पुस्तक से हमारे इस विचार को भी बल मिलता है।


    आज से लगभग तीन वर्ष पूर्व इस जरूरी पुस्तक का हिंदी अनुवाद करने के लिए हिंदी के प्रसिद्ध कवि, आलोचक, गद्यकार और बच्चन जी के शिष्य-मित्र अजित कुमार जी ने हम दोनों को कहा था। वे उस समय बच्चन रचनावली के अंतिम खंड में इस पुस्तक के हिंदी संस्करण को शामिल करना चाहते थे। उनका मानना था कि हिंदी समाज के बीच उनका यह काम जाना चाहिए। बच्चन जी के उन पाठकों और शुभचिंतकों तक वे इस पुस्तक को पहुँचाना चाहते थे जो अंग्रेजी में होने के कारण अभी तक बच्चन जी के इस कार्य को ठीक से नहीं देख पाए हैं। समयाभाव और कुछ तकनीकी कारणों से यह काम तब नहीं हो सका था। इसी बीच काल ने अजित कुमार जी को हम सबसे हमेशा-हमेशा के लिए दूर कर दिया। उनकी मृत्यु की खबर ने हमारी इस योजना को जैसे हमेशा के लिए बंद बक्से में डाल दिया था। इस बीच हमारे शोध छात्र मनीष प्रसाद ने हरिवंश राय 'बच्चन' के अनुवाद पर जब पीएचडी करने का मन बनाया तो फिर से अजित कुमार की बात सामने आ गई और पुस्तक को ध्यान से पढ़ने-गुनने का मौका मिला। इस लेख में जो कुछ भी हमलोग कह पाए हैं, इसका पूरा श्रेय अजित कुमार और मनीष प्रसाद को जाता है। आज यदि अजित कुमार जीवित होते तो उन्हें बहुत अच्छा लगता। काश! हमलोग यह कार्य उनके रहते कर पाते!


सन्दर्भ :


१. बच्चन, हरिवंश राय, डब्ल्यू. बी. येट्स एंड ओकल्टिज्म, दिल्ली : मोतीलाल बनारसी दास, १९६५


२. बच्चन, हरिवंश राय, बच्चन ग्रंथावली, खंड-४, खंड-५, खंड६, नई दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, २००६


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