आलेख - क्या भूलूँ क्या याद करूँ : अपने को बेरहमी से बेनकाब करने की कोशिश - प्रो. मुश्ताक अली

प्रो. मुश्ताक अली - उत्तर प्रदेश के गाजीपुर के निकट रजवाड़ी में जन्म। स्नातक से डी फिल तक की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। 'माया' पत्रिका का तकरीबन 9 वर्षों तक उप संपादन। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में तकरीबन 23 वर्षों तक अध्यापन और 2 वर्षों तक विभागाध्यक्ष पद का दायित्व निर्वहन। अनेक पुस्तके प्रकाशित। पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार प्राप्त


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       उनमें हिन्दी में स्त्री और दलित विमर्श के बाद आने वाली आत्मकथाएँ अन्य वजहों से भले चर्चित रही हों, लेकिन उससे पहले हिन्दी में मौलिक आत्मकथाएँ बहुत ही कम रही हैं, साहित्यकारों की तो और भी कम। जिन साहित्यकारों ने अपनी आत्मकथाएँ लिखी हैं उनमें बाबू श्यामसुंदर दास की 'मेरी आत्मकहानी', पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की 'आत्मकथा', राहुल सांकृत्यायन की 'मेरी जीवन यात्रा', यशपाल की 'सिंहावलोकन' और पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' की 'अपनी ख़बर' प्रमुख रही हैं लेकिन आत्मकथा लिखने के लिए जिस प्रकार की ईमानदारी और साहस की अपेक्षा की जाती है, 'अपनी खबर' को छोड़कर प्रायः सबमें नदारद रही है। 'अपनी खबर' की भी सीमा रही है, क्योंकि वह भी 'उग्र' के जीवन के थोड़े से ही प्रसंगों की झाँकी प्रस्तुत कर पाई है। अन्य आत्मकथाओं में भी लेखकों के बाहरी संसार का ही चित्र प्रस्तुत हुआ है, जिन अंतरंग, अनछुए और अकथनीय प्रसंगों का उद्घाटन किया जाना चाहिए, उन पर प्रायः परदा पड़ा हुआ है। आत्मकथा लिखना बड़े साहस का काम है जैसा कि शरत चंद्र चटर्जी ने स्वयं कहा है- "मैं आत्मकथा नहीं लिख सकता, क्योंकि न तो मैं इतना सत्यवादी हूँ और न इतना बहादुर ही जितना कि एक आत्मकथा के लेखक को होना चाहिए(आवारा मसीहा, पृष्ठ ३२५) लेकिन हरिवंश राय बच्चन' की आत्मकथा 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' बेहद सच्चाई के साथ लिखी गई लगती है, क्योंकि लिखते वक्त बच्चन जी ने बड़ी ईमानदारी और बहादुरी का परिचय दिया है। आत्मकथा लेखक से अपने प्रति जिस बेरहमी की उम्मीद की जाती है, बच्चन जी लिखते वक्त अपने प्रति वैसे ही बेरहम रहे हैं। यह और बात है कि गोविन्द मिश्र ने उन पर यह आरोप लगाया है कि बच्चन ने अपने जीवन के अहम प्रसंग उठाए अवश्य लेकिन वे अपने प्रति कोमल बने रहे जबकि राजेन्द्र यादव ने बच्चन की आत्मकथा के चारों खंडों में केवल पहले खंड 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' को ही प्रामाणिक माना है। उन्हें ऐसा लगता है कि तेजी का उनके जीवन में आगमन दूसरे खंड को असहज और झूठ बनाता है। (दैनिक जागरण की पत्रिका 'पुनर्नवा', पृष्ठ ७)दरअस्ल क्या भूलूँ क्या याद करूँ' (१९६९) बच्चन जी की योजना का एक-तिहाई भाग है। इतने ही बड़े दो अन्य भागों की उन्होंने घोषणा की थी- 'नीड़ का निर्माण फिर' (१९७०) और 'जीवन की आपाधापी में। लेकिन बाद में उन्होंने अपनी आत्मकथा के तीन से चार भाग कर दिए। तीसरे का नाम 'जीवन की आपाधापी' से बदलकर उन्होंने 'बसेरे से दूर' (१९७७) कर दिया और चौथे भाग का नाम रखा- 'दशद्वार से सोपान तक' (१९८५)।


      अब सवाल यह है कि बच्चन जी को आत्मकथा लिखने की जरूरत क्यों पड़ी? बकौल विजयमोहन सिंह पृथक् से आत्मकथा ज्यादातर मीडियाकर लेखक ही लिखते हैं। लेकिन बच्चन जी के बारे में ऐसा तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि उत्तर छायावाद और छायावादोत्तर काव्यधारा में बच्चन जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जिनकी ९ खंडों में रचनाकली प्रकाशित हो, जिन्हें साहित्य एकेडमी, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार तथा एफ्रो लैंड नेहरू पुरस्कार तथा एफ्रो एशियन राइटर कांफ्रेंस का लोटस पुरस्कार मिल चुका हो, उससे भी अधिक जिन्हें 'पदाभाषण अलंकृत किया जा चुका हो, उन्हें मीडियाकर लेखक कहना उनके प्रति कदाचित् अन्याय होगा। यानी अपने समय के मशहूर साहित्यकार द्वारा आत्मकथा लिखने का अवश्य कोई और कारण रहा होगा। बच्चन जी ने 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' के पहले संस्करण की भूमिका में लिखा है, "मुझे कई वर्षों से लग रहा था कि जब तक मैं अपने अंतर में उठती स्मृतियों को चित्रित न कर डालूँगा तब तक मेरा मन शांत न होगा।" क्या बच्चन जी ने केवल अपने मन की शांति के लिए ही आत्मकथा लिखी या उनका कोई और उद्देश्य था? क्या अपने पाठकों के लिए वे महात्मा गांधी के सत्य के प्रयोग की तरह कोई जीवन-दर्शन पेश करना चाहते थे या उनका कुछ और ही उद्देश्य था? बच्चन जी ने 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' के पहले संस्करण की भूमिका में लिखा है-


      "यह आत्मचित्रण मैंने किस मनोवृत्ति से किया है पर जिन शब्दों में उसे मैं बता सकता था उनसे कहीं अधिक समर्थ और सशक्त शब्दों में आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व फ्रांस का एक महान् लेखक मानतेन अपना आत्म चित्रण करते समय उसे व्यक्त कर चुका है। जब-जब मैंने इस आत्मचित्रण के लिए लेखनी उठाई है तब-तब मैंने उसे स्वस्ति-वाचन की श्रद्धा से पढ़ लिया है, और आपसे यह प्रार्थना करना चाहूँगा कि जब-जब आप इस आत्मचित्रण को पढ़े, आप उसे भी पढ़ लें।"


    आइए देखते हैं कि मानतेन ने आत्मचित्रण करते समय क्या लिखा है-


    "पाठकों, यह किताब ईमानदारी के साथ लिखी गई है। मैं आपको पहले से आगाह कर दूँ कि इसके लिखने में मेरा एकमात्र लक्ष्य घरेलू अथवा निजी रहा है। इसके द्वारा परसेवा अथवा आत्मश्लाघा का कोई विचार मेरे मन में नहीं है। ऐसा ध्येय मेरी क्षमता से परे है। इसे मैंने अपने संबंधियों तथा मित्रों के व्यक्तिगत उपयोग के लिए तैयार किया है कि जब मैं न रहूँ (और ऐसी घड़ी दूर नहीं है) तब वे इन पृष्ठों से मेरे गुण-स्वभाव के कुछ चिह्न संचित कर सकें और इस प्रकार जिस रूप में उन्होंने मुझे जीवन में जाना है उससे अधिक सच्चे और सजीव रूप में वे अपनी स्मृति में रख सकें। अगर मैं दुनिया से किसी पुरस्कार का तलबगार होता तो मैं अपने आपको और अच्छी तरह सजाता-बजाता, और अधिक ध्यान से रंग-चुंगकर उसके सामने पेश करता।"


    यदि बच्चन जी पाठकों से मानतेन का यह वक्तव्य पढ़ने की गुजारिश करते हैं तो सवाल यह उठता है कि क्या जिन-जिन बातों की ओर मानतेन ने इशारा किया है, उन्हीं की ओर बच्चन जी भी इशारा करते हैं। इसके लिखने में मानतेन का उद्देश्य एकमात्र घरेलू रहा है। इसने उसे अपने संबंधियों तथा मित्रों के व्यक्तिगत उपयोग के लिए तैयार किया है ताकि उसके न रहने पर वे उसके गुण-स्वभाव से कुछ चिह्न संचित कर सकें और जिस रूप में उसे जीते जी जाना है, उससे अधिक सच्चे और सजीव रूप में अपनी स्मृति में रख सकें। एक और महत्वपूर्ण बात की ओर मानतेन इशारा करता है कि अगर वह दुनिया से किसी पुरस्कार का तलबगार होता तो अपने आपको और अच्छी तरह सजाता-बजाता और अधिक ध्यान से रंग-चुंगकर पेश करता। दरअसल वह चाहता है कि लोग उसे सरल, स्वाभाविक और साधारण रूप में देख सकें। यानी बच्चन जी की ख्वाहिशें भी मानतेन की तरह ही रही हैं और उन्होंने भरसक कोशिश की है कि उनके जीवन की जो सच्चाई रही है, वह बिना रंग-रोगन के अपनों के सामने आ सके। लेकिन यदि बच्चन जी अपनों को यह सब बताना चाहते हैं तो उस पर अपने पाठकों की प्रतिक्रिया क्यों जानना चाहते हैं यानी बात कुछ और ही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि गोस्वामी तुलसीदास की तरह स्वांत:सुखाय को परांत:सुखाय में बदलना तो नहीं चाहते? पाठकों से यह उम्मीद क्यों? बहरहाल जैसे मानतेन अपने आत्मचित्रण का विषय स्वयं है, वैसे ही बच्चन जी भी ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ' के विषय स्वयं हैं। अपने तीस वर्षों की स्मृतियों को उन्होंने अनेक कोणों से पकड़ने की कोशिश की है जिसके तहत उन्होंने अपनी सात पीढ़ियों की और सात पीढ़ियों द्वारा देखे हुए ज़माने की तस्वीरें पेश की हैं यानी राधा से लेकर श्यामा तक और मनसा से लेकर कर्कल तक की छवियाँ इसमें सिलसिलेवार अंकित हुई हैं।


    दरअस्ल आत्मकथा 'आत्म' और 'कथा' दोनों के ही संयोग से बनती है। आत्म से तात्पर्य लेखक के अंत: और बाह्य दोनों से है और कोई भी आत्मकथा तभी सफल हो सकती है जब उसमें आत्म के साथ कथा तत्त्व भी शामिल हो और उसकी हर घटना, उसका हर पात्र, उसकी हर परिस्थिति स्वयं लेखक के इर्द-गिर्द घूमती हो। आत्मकथा में आत्म के भी कई आयाम हैं, मसलन वैयक्तिकता (Subjectivity), आत्मोद्धाटन (Self Revelation), आत्मविश्लेषण (Introspection) या आत्मनिरीक्षण और आत्म गोपन (Self Concealment)। आत्मकथा क्योंकि सफलता या असफलता के चरम बिन्दु पर पहुँचे हुए व्यक्ति का आत्म आकलन है जो बिना आत्मविश्लेषण या आत्मनिरीक्षण के संभव ही नहींक्योंकि व्यक्ति जब पीछे मुड़कर देखता है तभी उसे समझ में आता है कि उसने अपने जीवन में किन वजहों से क्या खोया और क्या पाया है। उसके लिखने के पीछे शायद यह उद्देश्य भी छिपा रहता है कि जो उसे पढ़े, वह उससे कुछ सीख ले सके, साथ में उसे आनंद भी प्राप्त हो सके। 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' के पढ़ने से केवल आनंद ही नहीं मिलता पाठक स्वयं अपना भी विश्लेषण करने लगता है। जहाँ तक वैयक्तिकता का सवाल है तो जब हम किसी की आत्मकथा पढ़ते हैं तो हम उसके जीवन के सर्वसुलभ और सुपरिचित पक्ष के बारे में ही नहीं जानना चाहते, हम उसके जीवन के उन अनुभवों के बारे में जानना चाहते हैं जो सबके सामने नहीं है। क्या भूलँ क्या याद करूँ' पढ़ने के बाद हरिवंश राय 


बच्चन की हम ऐसी कितनी ही बातें जानकर आश्चर्यचकित होते हैं जो दुनिया की नज़र में नहीं थीं। शायद इनके पहले लिखी आत्मकथाओं में वैयक्तिकता का अभाव रहा है। इस सिलसिले में बाबू श्यामसुंदर दास की 'मेरी आत्म कहानी' का उल्लेख किया जा सकता है। जहाँ तक आत्मोद्धाटन का प्रथ है तो साहित्य के अन्य रूपों में आत्मोद्घाटन प्रच्छन्न रूप में मौजूद रहता है लेकिन आत्मकथाओं में यह प्रच्छन्न रूप में दिखाई देता है। उपन्यासों में तो पात्रों के जरिए लेखक अपनी बात कहता है लेकिन आत्मकथाओं में तो वह स्वयं बोलता है बशर्ते कि वह ईमानदारी से बोले। हरिवंश राय बच्चन अपनी ऐसी कितनी ही बातें उद्घाटित करते हैं जो पहले उनके बारे में लोग नहीं जानते थे। आत्मगोपन तो आत्म कथाओं में सबसे अहम भूमिका निभाता है क्योंकि कोई भी लेखक अपनी आत्मकथा में अपने आपको कुरूप या भौंड़े रूप में प्रस्तुत नहीं करना चाहता, इसलिए बहुत सारी बातें छुपा जाता है लेकिन बच्चन जी ने महात्मा गाँधी की तरह अपनी सारी गोपनीय बातें अपने पाठकों के सामने उजागर कर दी है बिना यह सोचे कि उनके आत्मीय जन उनके बारे में क्या सोचेंगे? 'कर्कल' के साथ अपने अंतरंग संबंधों की आत्मस्वीकृति ऐसी ही है जिसमें वे स्वीकार करते हैं- "वे बचपन से ही मुझे बहुत प्यार करते थे, अब वे मेरे लिए अनिवार्य हो गए थे..... अब वे मेरे साथी, पड़ोसी, धर्म के भाई ही नहीं थे; मेरे प्रेमी भी थे और मेरा भी उनके प्रति अनन्य प्रेम था। हम एक-दूसरे से अभिन्न थे। अब हम दोनों में बहुत सी निजी और गोपनीय बातें भी होती।" (पृष्ठ १३६-३७)


    यद्यपि बच्चन जी ने उन निजी और गोपनीय बातों का खुलासा नहीं किया लेकिन चंपा से कर्कल की शादी की बात से उनके मन में डर बैठ गया था कि चंपा कहीं कर्कल को उनसे छीन न ले लेकिन कर्कल ने आश्वस्त किया था कि 'जो मेरा होगा, वह तुम्हारा भी होगा। हम शरीर से ही दो हैं, प्राण से एक।" यही नहीं बच्चन जी ने लिखा था कि कर्कल ने उन्हें यहाँ तक आश्वस्त किया था कि लोकलाज का भय न होता तो कर्कल अपनी सुहागरात को मुझे साथ ले जातेकर्कल के मन में शायद यह शंका थी कि चंपा उनसे अधिक मुझे प्यार करती है पर मुझे छोड़कर उन दोनों ने अपने प्यार की दुनिया की शायद ही कभी कल्पना की हो। (वही, पृष्ठ १४३) कर्कल की मृत्यु के बाद तो चंपा से उनके रिश्ते इतने प्रगाढ़ हो गए कि वह उनसे गर्भवती तक हो गई थी। हालांकि इसके लिए चंपा अपने को ही दोषी मानती थी लेकिन बच्चन जी भी ४५ वर्षों बाद यह सोचकर चकित थे कि उस अधपढ़ी सी लड़की में ऐसा क्या था जो उसने अपने को काफी पढ़ा-लिखा समझने वाले दो नवयुवकों को अपनी बातों में उलझा रखा था, यदि उसे और समय मिला होता तो शायद जीवन भर उलझा कर रखती। (वही, पष्ठ १४३)


    वे चंपा की तुलना कीट्स की तरह Dryad of the trees वृक्षपरी से और श्यामा की पी.वी. शेली की स्काईलार्क से किया था। बच्चन जी ने रानी से भी अपने संबंधों को स्वीकार करते हए लिखा है, "मैं यदि रानी के निकट से निकटतम आया तो उसके पहल करने पर। रानी मेरे जितने निकट खिंची और मुझे उसने जितने निकट खींचा, वहाँ पर समाज ने खतरे का निशान लगा रखा है। पर खतरे से औरत डरती है, मर्द नहीं डरता। मैं डरा था, रानी नहीं डरी थी। जिसने अंदर कवच पहन रखा हो वह तीर से क्यों डरे?" (वही, पृष्ठ १९५) लेकिन राधा, चंपा, श्यामा और रानी का बच्चन जी के जीवन में महत्वपूर्ण योगदान है। कीर्ति कुमार ने तो लिखा है- "बच्चन जी के काव्य में जो पारदर्शी अभिव्यक्ति है, लगता है वह उन्हें अपनी पूर्वजा राधा से मिला है। चंपा ने उन्हें 'करेज ऑफ़ कनविक्शन' दियायह सीख कि अपने पापों को छिपाकर 'साधु' बनने से अपने पापों को स्वीकार कर ईमानदार बनना और कठिन काम है। बच्चन जी के इस युग के काव्य में जो लापरवाही मस्ती और ठेगे से वाला भाव है, वह चंपा के संसर्ग से मिला हुआ लगता है। श्यामा से उनकी संवेदना और भाव प्रवणता को स्फूर्ति मिली और रानी ने उन्हें कलाकार की तटस्थता दी। इन चारों नारियों को समझे बिना न तो मनुष्य बच्चन को समझा जा सकता और न ही कवि बच्चन को।" (एक टेलीस्कोपिक दस्तावेज, वीणा, जुलाई १९७०, पृष्ठ ३४)


    ऐसे ही इंग्लैण्ड प्रवास के बारे में बच्चन जी ने लिखा है- "इंग्लैंड ऐसे मुक्तशील देश में नौ उम्र लगने के कुछ फायदे हैं, कुछ नुकसान भी और मैंने इच्छा या अनिच्छा से दोनों ही उठाए।" (पृष्ठ ६२) लेकिन बच्चन जी ने बताया नहीं। बहरहाल, ऐसी बहुत सी बातें हैं जिन्हें वे भूलना ही बेहतर समझते हैं।


    कथा तत्त्व की दृष्टि से जब हम 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि यह आत्मकथा बहुत ही सुसंबद्ध तरीके से लिखी गई है क्योंकि बच्चन जी ने इसे क्रमबद्ध, सुसंगत एवं कलात्मक ढंग से पेश किया है। स्वरूप की दृष्टि से देखने पर यह आत्मकथा 'मिश्र आत्मकथा' के अंतर्गत आती है क्योंकि इसमें बच्चन जी ने आपबीती के साथसाथ जगबीती पर भी उतना ही ध्यान दिया है। जहाँ तक प्रस्तुतीकरण का प्रश्न है तो 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' प्रत्यक्ष आत्मकथा के अंतर्गत रखी जा सकती है क्योंकि बच्चन जी ने इसकी प्रस्तुति कालक्रमानुसार की है।


  बच्चन जी की इस आत्मकथा में तत्कालीन इतिहास भी छिपा है। उनका जो तीस वर्षों का प्रारंभिक जीवन है, उसके निर्माण में ऐतिहासिक परिवेश की तो भूमिका रही ही है, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवेश की भी अहम भूमिका रही है। १८५७ के गदर का वर्णन यदि उन्होंने राधा के हवाले से किया है तो उनके बचपन में इलाहाबाद कैसा था, उसका वर्णन करते हुए लिखा है: "हमारे मुहल्ले चक से कुछ फलाँग पर चौक में, सरे बाजार हिन्दुस्तानियों को पकड़-पकड़ कर नीम के पेड़ से लटकाकर फाँसी दी जा रही थी। राधा की शब्दावली में पेड़ों से लटकते हुए आदमी ऐसे लग रहे थे जैसे कटहल के पेड़ में फल लगे हों। ये पेड़ मेरे लड़कपन में चौक में मौजूद थे। जालियाँवाला बाग हत्याकांड के बाद जब लोगों ने इन पेड़ों पर फूल चढ़ाना शुरू कर दिया तो सरकार ने उन्हें कटवा दिया।" (क्या भूलूँ क्या याद करूँ, पृष्ठ ३६) वह जगह आजकल शायद गड़बड़झाला मार्केट के ठीक सामने जहाँ नीम के पेड़ के नीचे पटरियों पर रेहड़ीवाले बैठकर रोजमर्रे का सामान बेचते हैं, लेकिन वे जानते नहीं कि उस स्थल का क्या महत्त्व है।


    बच्चन जी ने लोकमान्य तिलक के इलाहाबाद में आकर 'होमरूल लीग' की शाखा खोलने, महात्मा गांधी के इलाहाबाद आने और उनके द्वारा चलाए जा रहे स्वतंत्रता आंदोलन में रचनात्मक भूमिका यानी खद्दर का प्रचार करने आदि का उल्लेख किया है जिसकी वजह से वे पं. जवाहरलाल नेहरू की नज़र में आए थे और उन्होंने उनकी प्रशंसा की थी। ऐतिहासिक परिवेश के अलावा बच्चन जी का पारिवारिक परिवेश कैसा था, उनके परिवार में कैसे संस्कारों का चलन था, उसका उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा के "टो याद है. मेरा बाल भी, . शायद ५-६ वर्ष की अवस्था में विंध्याचल में उतरवाया गया था। तब तक बलि नारियल की दी जाने लगी थी, पर मैंने बकरे की बलि पहली बार वहीं देखी थी और मेरा बच्चे का नन्हा दिल उससे बहुत घबराया था .... पुरानी लीकों को पीटने में मेरा विश्वास न रह गया था। मेरे लड़कों के पहले बाल उतरवाने को कोई विशेषता नहीं दी गई। मेरी पत्नी कट्टर सिख परिवार की हैं जिनके यहाँ बाल उतारे ही नहीं जाते .... हम दोनों ही रूढ़िमुक्त हो चुके थे। नाई को बुलाकर बाल कटा दिए। सौभाग्य से किसी का बाल बाँका नहीं हुआ।" (वहीं, पृष्ठ ५६) बच्चन जी ने इसमें राधा के हवाले से तत्कालीन सांस्कृतिक परिवेश का भी उल्लेख किया है- "राधा ललितपुर में छह महीने रहीं, वहीं उन्होंने दीवाली मनाई, वहीं होली होली मनाने की वहाँ उन्होंने एक विचित्र प्रथा देखीनिम्र वर्ग की बुंदेलखंडी औरतें कछोटा बाँध, बाँस ले, छोटी-छोटी टोलियों में निकलती है और जहाँ भी ऊँचे वर्ग के मर्दो को देखती हैं, उन पर टूट पड़ती हैं, कहते हुए- "आर बाबूजी का आज झंझा है।" इस प्रथा का विश्लेषण करते हुए बच्चन जी सोचते हैं कि मध्ययुगीन सभ्यता में स्त्रियों और निम्न वर्गों को जिस हीन भावना की कुंठा से निरंतर त्रस्त रहना पड़ता था, उससे होली का यह दिन कितनी मुक्ति प्रदान करता होगा। उनका आकलन है कि हिंदुओं के समाज वैज्ञानिक समाज के बड़े इंजन में ऐसे छोटे-छोटे 'सेफ्टी वाल्व' लगाना नहीं भूलते थे। ‘सेफ्टी वाल्व' की व्याख्या उन्होंने यों की है'ये दुर्निवार विभाव स्रावों की निकासी की सुपासी नालियाँ हैं- तात्पर्य यह कि 'ताड़न के अधिकारी' साल में कम से कम एक दिन तो अपना अधिकार अपने ताड़कों को सौंपने का मौका पा सकें।


  जहाँ तक 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' की भाषा का सवाल है तो पद्मा सचदेव को लगता है कि बच्चन जी की सरल भाषा और कवि होने के नाते जिन अद्भुत बिम्बों का उन्होंने प्रयोग किया है, वे महत्वपूर्ण हैं। लेकिन नंदकिशोर , नवल बच्चन जी के ब्यौरा देने की क्षमता और उसके गद्य के स्वभाव से बहुत प्रभावित हैं। उनको लगता है कि बच्चन जी को यह गुरू तुलसीदास से मिला है और उस पर आत्मकथा लिखकर कविता के साथ-साथ गद्य में भी अपने को तुलसीदास का योग्य शिष्य सिद्ध किया। बच्चन जी तुलसीदास के शिष्य हैं या नहीं-तय करना बड़ा कठिन है लेकिन कवि होने के नाते बच्चन जी का गद्य निस्संदेह अलंकृत गद्य की श्रेणी में आता है। इसके अलावा इसमें उन्होंने ढेरों मुहावरों और स्थानीय बोलियों का प्रयोग किया है। जरूरत के मुताबिक तत्सम और तद्भव शब्दावली का उन्होंने इस्तेमाल तो किया ही है, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी की व्यवहृत चलताऊ शब्दावली का भी प्रयोग किया है यानी वे हिंदी का ऐसा सरल, सहज, मार्मिक और व्यंजक रूप हमारे सामने लाते हैं जो न संस्कृत के अनुकरण से जाता और न ही अंग्रेजी की नकल से। उनके गद्य में शब्द क्रीड़ा के जहाँ अनेक उदाहरण यत्र-तत्र देखे जा सकते हैं वहीं विचार-स्फलिंग भी प्रायः दीख जाते हैंउनकी आत्मकथा में कितनी ही ऐसी पक्तियाँ मिल जाएँगी जो सूक्तियाँ बन सकती हैं मसलन-


१. स्त्री पीटने के ऐसे सूक्ष्म तरीके जानती है कि रोआँ न छुए और लच्छन झाड़ दे।


२. हिन्दू अपनी बगावत का झंडा अपने सिर पर फहराता है।


३. हमारे पूर्वज कितने भोले थे ... हर स्त्री एक अलग भेद है।


४. मरता जीवन में कुछ भी नहीं, केवल रूप बदलता है।


५. कुश्ती का गुर ताक़त नहीं फुर्ती है।


६. स्त्री के आँसुओं के सामने पुरुष बेबस हो जाता है।


७. नारी तो माँ बनने के लिए ही बनी है।


८. पुरुष भावना पर जी सकता है नारी नहीं।


९. जिंदगी और औरत उसी आदमी का सिक्का मानती है जो झिंझोड़कर फेंक दे


१०. कर्म स्वभाव का प्रतिबिम्ब है।


११. जब औरत अपनी ज़बान चलाती है तब मर्द अपनी तलवार म्यान में रख लेता है


१२. मानवता अपनी पीड़ा और प्रकाश के क्षण में प्रायः एक स्वर में बोलती है।


१३. घर इंसान की हैसियत बताता है।


१४. जहाँ शब्द हार मानते हैं वहाँ मौन बोलता है।


१५. कवि का कमरा और कवि का जीवन अस्त-व्यस्त ही रहे तभी अच्छा।


      जहाँ तक आत्मकथा में शैलियों का सवाल है तो मुख्य रूप से आलोचकों ने विवरणात्मक और पूर्व दृश्य (Flash Back) शैलियों का उल्लेख किया है लेकिन इसके अलावा पत्रात्मक, संस्मरणात्मक, वर्णनात्मक, दैनंदिनी और औपन्यासिक शैलियों का भी हवाला दिया जाता है। वैसे 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' में ऊपर से देखने पर इसमें विवरणात्मक और वर्णनात्मक दोनों ही शैलियाँ नज़र आती हैं लेकिन बच्चन जी ने अपनी स्मृतियों के सहारे राधा से लेकर श्यामा तक और मनसा से लेकर कर्कल तक का जो चित्रण किया है, उसे देखते हुए संस्मरणात्मक शैली के साथ उन्होंने पूर्व दृश्य और औपन्यासिक यानी तीनों शैलियों को आपस में मिला दिया है। कोई भी उच्चकोटि का लेखक प्रायः ऐसा ही करता है और बच्चन जी ने भी ऐसा ही किया है। याददाश्त के मामले में बच्चन जी का कोई जवाब नहीं क्योंकि बीते सात पीढ़ियों की बातों को राधा के हवाले नरेट करने की उनकी क्षमता अद्भुत है। राधा की वर्णन शक्ति के तो वे कायल रहे ही हैं, उन सब की बातों को जिस खूबी से याददाश्त के सहारे उन्होंने इस आत्मकथा में संजोया है, उसका कोई सानी नहीं। कथा कहने की उनकी शैली गजब की है। लाला कल्यानचंद की कथा को एक बुजुर्ग के हवाले से उन्होंने कुछ यों व्यक्त किया है। उसका एक नमूना द्रष्टव्य है:


"महाजनी टोले के जैनी सेठ के परिवार में एक लाला कल्यानचंद हुए। वे बड़े अय्याश-तबीयत थे, घर में अकूत धन था। उन्होंने एक वेश्या के लिए, जिसके रूप-यौवन वह बँगला बनवाया। यह बाग लगवाया थावह ऊपर वाले कमरे में रहती थी। हर संध्या को सेठ उससे मिलने को बाग़ में आते और काफी रात गए अपनी हवेली को लौट जाते। वेश्या की देख-रेख के लिए कई नौकर-चाकर थे जो नीचे रहा करते थे, बाग़ में कई माली काम करते थे। पर वह वेश्या सेठ के साईस के ऊपर आसक्त हो गई-छरहरा, गबरू छैला था। साईस आधी रात को अस्तबल से टमटम निकालकर छत के नीचे खड़ी कर देता और हाँकने की ऊँची बैठकी पर खड़े होकर वेश्या को नीचे उतार लेता और सवेरा होने से पहले उसी तरह उसे छत पर चढ़ा देता। 'बैर-प्रीति नहिं दुरै दुराए।' सेठ को कुछ शक पड़ गया। एक रात क़रीब दो बजे अचानक बाग़ में आ पहुँचे। वेश्या अपने कमरे में नहीं थी। छत से उन्होंने देखा तो नीचे टमटम खड़ी पाई। सारी बातें समझ गए। साईस की कोठरी भीतर से बंद थी। सेठ ने बहुत आवाजे दीं पर भीतर से कोई न बोला, न किसी ने साँकल खोली। सुबह दरवाज़ा चीरा गया तो दोनों की लाशें छत से लटक रही थी-दोनों ने खुदकुशी कर ली थी। अकाल मौत मरे थे। दोनों भूत हो गए हैं। आधी रात को साईस अस्तबल आकर बैठता है और वेश्या उसके आगे नाचती है। उसी के घुघुरूओं की 'छुन-छुन' सुनाई पड़ती है। तभी से साईस की कोठरी का दरवाज़ा ईंट से चुन दिया गया, अस्तबल पर ताला डाल दिया गया और सेठ फिर कभी बाग़ में न आए!


    "टमटम का जंग-खाया अंजर-पंजर अस्तबल के बाहर पड़ा था, जिस पर हम बच्चे न जाने कितनी बार चढ़े होंगे, न जाने कितनी बार यह कल्पना की होगी कि उसमें हवा से भी तेज़ दौड़ने वाले घोड़े जुते हैं और उस पर बैठकर हम सारी दुनिया की सैर कर आए हैं। बुजुर्ग ने यह भी बताया था कि साईस कभी-कभी वेश्या को टमटम पर बिठाकर घुमाने भी निकलता है-लोगों ने रात बिरात ऐसा देखा है। मुझे तो कभी ऐसा दृश्य दिखाई न पड़ा, पर 'छुन-छुन' की आवाज़ मैंने बहुत बार सुनी-यह 'हिस्ट्री' सुनने के बाद कुछ अधिक ही-शायद सच शायद कल्पना में।" ( याद करूँ, पृष्ठ ९९) "क्या भल क्या याद करूँ, पृष्ठ ९९)