आलेख - खय्याम और बच्चन - अली अहमद फ़ातमी

अली अहमद फ़ातमी  -- प्रारंभिक शिक्षा मजीदिया हाई स्कूल इलाहाबाद से। उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय सेइलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष से अवकाश ग्रहण करने के बाद स्वतंत्र लेखन। अनेक अवार्ड से सम्मानित, कई पुस्तकों के लेखक एवं हिन्दी-उर्दू के पत्रपत्रिकाओं में अनेक लेख प्रकाशित


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                इसमें संदेह नहीं कि 'हरिवंश राय बच्चन' हिन्दी शायरी के अवाम पसन्द जनता में बेहद लोकप्रिय रहे हैं, लेकिन उनकी यही लोकप्रियता, शोहरत, आलोचकों के लिए समस्या भी बनी रही, कारण यह कि लोकप्रिय व अवामी शोहरत की शायरी पर आलोचना करना आसान नहीं हुआ करता, बिल्कुल उसी तरह जैसे आसान शायरी या अवामी शायरी का सृजन आसान नहीं हुआ करता। उर्दू के अज़ीम शायर 'मिर्जा गालिब' को आम तौर पर मुश्किल शायर कहा जाता है, और उनकी मुश्किल पसन्दी में ही उनकी महानता को तलाश किया जाता है, जबकि सच यह है कि वह मुश्किल कम, गहरे ज्यादा हैं। चूँकि उर्दू की इश्क़िया शायरी में इश्क़ो-मोहब्बत के रंग ज्यादा हैं जो सीधे दिल पर छा जाते हैं, इसलिए शुरू में ग़ालिब को मुश्किल समझा गया, खूब सवाल-जवाब हुए, लेकिन धीरे-धीरे धुंध साफ़ होने लगी और ग़ालिब की गहराई समझ में आने लगी शायद इसीलिए 'फ़िराक गोरखपुरी' ने कहा था कि उर्दू शायरी के पास दिल तो था 'ग़ालिब' ने उसे दिमाग़ दिया। लेकिन 'ग़ालिब' केवल इसलिए बड़े नहीं हुए कि उनके पास दिमाग था, बल्कि वह इसलिए भी बड़े हुए कि उनके पास आसान शायरी का अच्छा खासा सरमाया था जिसे अवाम ने समझा व पसन्द किया। हालाँकि इस आसान शायरी में भी 'ग़ालिब' ने मुश्किल और गंभीर सवालात उठाए जैसे-"दिले-नादाँ तुझे हुआ क्या है?", "अब क्या चीज़ है हवा क्या है?" "नींद क्यों रात भर नहीं आती?" आदि।


            सच तो यह है कि शायरी को क्लासिकी स्थान उसी समय मिलता है जब वह ख़ास व आम दोनों वर्गों में न केवल मशहूर हो बल्कि मक़बूल भी हो और यह स्थान 'मीर' 'ग़ालिब' को मिला, 'कबीर' 'सूर' 'तुलसी' को मिलायहाँ कहने का मकसद केवल इतना है कि हमने शायरी की अवामी समझ और विशेष आलोचकों व प्रोफ़ेसरों की समझ के बीच नासमझी की एक दीवार खड़ा कर रखी है। कुछ शायरों की अवामी शोहरत भी उन्हें सवालात के घेरे में खड़ा कर देती है जिसका शिकार 'कबीर' हुए 'नज़ीर' हुए-शायद बच्चन जी भी हुए। देखिए इलाहाबाद के, बच्चन के पड़ोसी लेखक व पत्रकार विशन टंडन क्या कहते हैं- 


            "मधुशाला ने बच्चन जी को लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचाया, पर उस कृति ने उन्हें अप्रतिष्ठित भी बहुत किया। बिना सोचे-समझे उनकी आलोचना की गई, जिसने आगे भी उनका पीछा नहीं छोड़ा-" (हरिवंश राय बच्चन, पृ. ७) 


          टंडन जी ने एक बात और कही जिस पर गौर करने की जरूरत है


          "उनकी कृतियों को ठीक से समझने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया-"


          इस आखिरी वाक्य पर विश्वास तो नहीं होता कि हिन्दी साहित्य में कोई भी ऐसा नशीला, सजीला मैख़ाने की महक में डूबा लेखक व आलोचक नहीं गुज़रा जिसने बच्चन को पूरे तौर पर समझा या समझाया हो। लेकिन जब मैं उर्दू साहित्य में अवामी शायर 'नज़ीर अकबरावादी' का हाल देखता हूँ कि जिसे दहाइयों उर्दू तहज़ीब व तनक़ीद ने मुंह नहीं लगाया और उसे बाज़ारी शायर कह कर बाहर रखा तो बच्चन के बारे में टंडन के इन कार्यों पर थोड़ा सा विश्वास होने लगता है। अगर यह सच है, तो गौर करने की बात यह भी है कि इस सोची समझी, नासमझी में बच्चन की अत्यधिक शोहरत आड़े आती रही। 'नजीर' की तरह अवामी शायर या वसीम व बशीर की तरह मंच का शायर समझ कर - तथाकथित लेखकों व आलोचकों ने समझने की कोशिश नहीं की, शायद इस बिन्दु पर टंडन जी दुरूस्त हों।


          __ कोई कितना और कुछ भी कहे कि शायरी का शख्सियत से कोई लेना-देना नहीं होता, समाज और काल से भी कोई मामला नहीं होता, लेकिन एक बड़ी सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि हर शायर और हर दौर की शायरी की एक समाजी व तहजीबी पृष्ठभूमि होती है और बच्चन की भी थी, इसे भी सरसरी तौर पर समझने की ज़रूरत है।


        हरिवंश राय बच्चन एक कायस्थ घराने में पैदा हुए (१९०७), इस ज़माने में कायस्थ परिवारों में उर्दू फारसी पढ़ाए जाने का रिवाज़ था। प्रारम्भिक शिक्षा के लिए पिता ने पंडित और मौलवी दोनों को बुलवाया। टंडन लिखते हैं-


        "पुरोहित जी और मौलवी साहब दोनों ही बुलाए गए, पहले ने पट्टी पर श्री गणेश लिखवाया, दूसरे ने पट्टी की दूसरी तरफ 'बिसमिल्लाह रहमान रहीम'। उसके बाद पंडित जी तो न दिखाई दिए पर मौलवी साहब रोज़ पढ़ाने के लिए आने लगे-"


        कई साल तक बच्चन जी ने मौलवी साहब से उर्दू पढ़ी, उसके बाद जब स्कूल पहुंचे तो उर्दू छूटी और हिन्दी पकड़ीशुरुआती शिक्षा में बहरहाल उर्दू की अहम भूमिका रही, जो पूरे तौर पर हिन्दी की ओर आ जाने के बावजूद, पृष्ठभूमि में अपना काम करती रही, जिसका सबसे बड़ा सुबूत 'ख़य्याम' की रूबाइयों का गहन अध्ययन है, जिसने आगे चलकर 'मधुशाला' को जन्म दिया जो बच्चन के लिए अमृत बन गई।


         संवेदनशील बच्चन ने काफ़ी संघर्ष के दिन गुज़ारे, लोकमान्य तिलक के जनाज़े को कंधा दिया, गाँधी जी के विचारों के घेरे में रहे, लड़खड़ाए, गिरे, फिर उठे। अपनी आत्मकथा में एक जगह लिखते हैं-


          "पन्द्रह सोलह बरस का था, लड़खड़ाया, गिरा, संभला। इस गिरने और संभलने से जो मैंने पाया वह शायद बहुतों ने पहाड़ की चोटी पर चढ़कर न पाया हो-"


          मेहनत के ये सुबह-शाम, जीवन का यह संग्राम, एक संवेदनशील व्यक्ति और कवि के जेहन में केवल रोटी-रोजी तक सीमित नहीं रहते बल्कि इन टकराहटों से जीवन दर्शन जन्म लेता है जो कविता का प्रेरणास्रोत बनता है। दर्शन का कोई ओर छोर नहीं होता, वह ज़िन्दगी के काँटे भरे मैदानों में उगता है तो मैखाने (शराबख़ाने) से भी छलकता है। एक जगह, कैदो-बन्द, रस्मो रिवाज, संघर्ष : दूसरी ओर नशे में डूबी आज़ादी व सरशारी जो घीसू-माधव जैसे ग़रीब व कमज़ोर पात्रों को भी थोड़ी देर के लिए राजा बना देती है। नशे की खुमारी ज़िन्दगी की सरशारी में बदलते देर नहीं लगती, एक अजब सा रोमान अंगड़ाई लेने लगता है; वह रूमान, जो संग्राम से भरा हो जीवन का नया दर्शन दे जाता है, इसी दर्शन ने बच्चन के अन्दर मौजूद कवि को आवाज़ दी और केवल पच्चीस वर्ष की अवस्था में उनका पहला काव्य संग्रह 'तेरा हार' (१९३२) प्रकाशित हुआ। ट्युशन से एक मामूली नौकरी की तरफ आए, वह भी एक पत्रिका के सेल्समैन, खूब शेर जमा कीजिए, दिलचस्प हादसात व मुलाकात की सूचना बनाई, अनुवाद किए, इसी काम धंधे में अंग्रेजी में "रुबाइयाते-ख़य्याम" किताब हाथ लगी। उसके अध्ययन में डूब गए, जैसे कोई समुद्र में डूबता है, उसका अध्ययन करते, अनुवाद करते और उसी अंदाज़ से मधुशाला के चौपदे लिखते। टंडन जी ने लिखा है - 


    "दिन भर की मेहनत के बाद रात को बच्चन


      रूबाइयाते-उमर खय्याम के अनुवाद की कापी


      तैयार करते या मधुशाला के चौपदे लिखते।"


      ख़य्याम की रूबाई बच्चन को क्यों पसन्द आई, जो उनकी कल्पना और रचना का सरमाया बन गई। 'मधुशाला' ख़य्याम की रूबाइयों की कोख से किस प्रकार जन्मी, इसके लिए कुछ बातें ख़य्याम और उनकी रूबाइयों के बारे में जानना जरूरी है।


    फ़ारसी साहित्य के शायर उमर खय्याम, जिसका असली नाम 'उमर गयासउद्दीन' था और 'ख़य्याम' उपनाम, खुरासान देश का शहर नेशापुर उसका वतन था। वह केवल शायर न था बल्कि दार्शनिक, ज्योतिषी और हकीम भी थायूँ तो फ़ारसी साहित्य में ग़ज़ल और मसनवी की बड़ी परम्परा रही है और बड़ा ख़ज़ाना है। लेकिन 'उमर खय्याम' ने तमाम परम्पराओं से हर बार रूबाई (चौपाई) का रास्ता अपनायायूँ भी रूबाई की विधा दर्शन, अध्यात्म आदि के लिए मशहूर है। ख़य्याम को शराब व शबाब के द्वारा दर्शन की ही बातें करनी थी, कोरा-रूखा-फीका दर्शन किसे पसन्द आता है। दूसरा अहम पहलू यह है कि ख़य्याम ने उस समय शायरी की जब मुसलमानों का आपस में बड़ा विरोध था, अलगअलग धार्मिक खेमों में तक़सीम थे, ज़िन्दगी का कोई बड़ा मक़सद, मिशन न था और न ही कोई लीडर या रहनुमा। आपस का यह विरोध कई सदियों से चला आ रहा था लेकिन पाँचवी शताब्दी हिजरी में पहुँचते ही उमर खय्याम ने ये सब अपनी आँखों से देखा। ख़य्याम शुरू से ही इंसानों से प्रेम करते थे, इंसान-दोस्त थे, प्रगतिशील विचारों के थे, वे धार्मिक होते हुए भी खुले जेहन के थे। उनका मानना था कि समाज और दुनिया का अध्ययन, मानवता को समझने के लिए जरूरी है। वह दुनिया की हर चीज को भगवान की देन समझते थे और चाहते थे कि इंसान इस देन की कद्र करे। वे बादशाहों के करीब जरूर थे पर फ़कीरी उनका अस्ल मिजाज थाशेरो-शायरी से शुरू से ही दिलचस्पी थी लेकिन सूफियाना मिज़ाज़ की वजह से उन्होंने रूबाई का रास्ता पकड़ा, इसलिए कि जनता को जो संदेश देना चाहते थे उसके लिए लम्बी कविताएं मुनासिब न थी, रूबाई की चार पंक्तियों में वह बात प्रभावपूर्ण अंदाज में कही जा सकती थी। खय्याम का कमाल यह है कि उन्होंने रूबाई जैसी गम्भीर आध्यात्मिक विधा में शराब-शबाब, सागरमीना आदि का बयान इतनी खूबसूरती से किया कि कुछ लोगों को 


धोखा हुआ कि ख़य्याम अंदर से कुछ और हैं और बाहर से कुछ और, लेकिन अगर आप इन रूबाइयों को गौर से पढ़े तो साफ़ अन्दाज़ा होगा कि शराब, शराबखाना आदि तो केवल प्रतीक है, इसकी आड़ और इशारे में तो जिन्दगी और समाज पर बातें की जा रही है। इन रूबाइयों में बला की सादगी और संजीदगी तो है साथ ही पाकीजगी और गहराई है। शुरू में गलतफ़हमी जरूर हुई, लेकिन खुरासान से निकल कर उनकी आवाज विदेशों में पहुँची। विशेषकर यूरोप में तो इन रूबाइयों का नयापन, जीवन-दर्शन, खूबखूब पसन्द किया जाने लगा। लोग खय्याम के पुजारी हो गए, एक नए प्रकार की शायरी, नए प्रकार के साहित्य का ज्ञान हुआ और देखते-देखते खय्याम पूरी दुनिया में छा गए। फिर तो खय्याम की शायरी के अनुवाद पर अनुवाद होने लगे।


        डॉ. अब्दुर रहमान बिजनौरी ने ग़ालिब के हवाले से लिखा है- “हिन्दुस्तान में दो ही किताबें आसमानी हैंएक वेद दूसरी "दीवाने-ग़ालिब" लेकिन यूरोप में मुकद्दस बाइबल के बाद अगर शोहरत का मुकाम कोई किताब रखती है तो वह केवल रूबाइयाते-उमर खय्याम है। अब मैं यहाँ उमर खय्याम की रूबाइयों के चन्द उर्दू अनुवाद बतौर नमूना पेश कर रहा हूँ ताकि हिन्दी के पाठक समझ सकें।


       इस सुबह निदा (आवाज) आई ये मैखाने से 


       कहता था कोई रिन्द (शराबी) से, दीवाने से


 


       उठ देर न कर जाम को भर ले जल्दी


       पहले तेरा पैमाना छलक जाने से


 


      वह मर्द नहीं सब जिसे रूसवा समझें


    या उसको बदी (बुराई) के खौफ से अच्छा समझें


    फैलाए जो अपना हाथ सबके आगे


    किस दिल से भला रिन्द उसे अपना समझें


    अल्लाह ने इंसान को मिट्टी से गढ़ा है


    और गम भी ज़माने का मुक़द्दर में लिखा है


    मैख़ारी (शराब पीना) से तुम आज मुझे रोक रहे हो


    इफ़लास (मुफलिसी गरीबी) ने पहले ही मुझे रोक रखा है


    ये किस को बसर है कि कल क्या होगा


    हर हाल में आज खुश रहना होगा


    इस चाँदनी रात में पियो दिल भर कर


    हम हों न हों चाँद चमकता होगा


    दुनिया से कभी जिन्से-वफ़ा (मोहब्बत) मत माँगो


    और गर्दिशो-दौरां (जमाने के उतार-चढ़ाव) से सिला मत मांगो (ज्यादा)


  दरमाँ (इलाज) की तलब दरदे-सिवा (ज्यादा) कर देगी 


    बस दर्द को अपना लो दवा मत माँगो


    जब हाथ में होगी मेरे सागर की जवानी


    सरशारी की, मस्ती की, मसरत (खुशी) की कहानी


    हर बात में लाएगी नया रंग नया रूप


    फ़ितरत की तपिश और ये बातों की रवानी


           ये कुछ मिसालें हैं जिससे साफ अन्दाजा होता है कि खय्याम ने शराबखाने को दुनिया और शराब को दुनिया की नशा बनाकर पेश किया है और सूफ़ियाना तर्ज पर जिन्दगी के दर्शन और अध्यात्म को प्रस्तुत किया है। केवल चार पंक्तियों में ऐसे बड़े-बड़े दर्शन प्रस्तुत कर दिए हैं जो बड़ी-बड़ी कविताएं नहीं प्रस्तुत कर सकीं, इसीलिए इनका सारांश ही इनका जादू हैइस सारांश में जिन्दगी करवटें लेने लगे तो फिर सारांश ही जिन्दगी की तस्वीर और तकदीर बन जाती है। मिसालें और भी है पर अब मुझे बच्चन की 'मधुशाला' के बारे में कुछ कहना है।


        जैसा कि कहा जा चुका है-बच्चन ने शुरू से ही उर्दू पढ़ रखी थी, हो सकता है कि थोड़ा बहुत फ़ारसी भाषा का ज्ञान भी रहा हो, आगे बढ़कर वे हिन्दी की ओर ज़रूर चले गए लेकिन उर्दू का शायराना मिजाज़ बहरहाल कहीं न कहीं काम करता रहा और आगे बढ़कर वह अंग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी हुए और बाद में अध्यापक भी। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के उस्ताद हुए, उसी दौर में आगे-पीछे बच्चन ने अंग्रेजी में खय्याम की रूबाइयों को पढ़ा और फिर पढ़ते ही चले गए। एक वाक़ए के तहत जब उनको नौकरी छोड़नी पड़ी तो फिर जिन्दगी संघर्ष के चौराहे पर आ खड़ी हुई, उस समय एक हिन्दी के कवि को फारसी के शायर खय्याम की रूबाइयों ने बड़ा सहारा दिया१९४६ ई. में अपने एक लेख में साफ तौर पर स्वीकार किया- 


      “भावों और विचारों में जो प्रथम उथल-पुथल हुई थी उसमें मुझे उमर खय्याम की रूबाइयों में प्राणों की प्रतिध्वनि मिली। रूबाई पढ़ता तो ऐसा लगता जैसे यह मेरी लिखी हुई है-"


      और बच्चन न केवल उस रंग में डूब गए बल्कि रूबाइयात का हिन्दी अनुवाद करने लगे। खय्याम की रूबाइयों, हाला, प्याला, मदिरा का जिक्र इस क़दर मनमोहक और लुभावना था कि अनुवाद पे अनुवाद होने लगे और मदिरा की वह धारा जो थोड़ी बहुत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के यहाँ झलकती थी और बाद में रुक सी गई थी, उसमें एक बाढ़ सी आ गई लेकिन जो प्रभाव, तथ्य और संदेश बच्चन के यहाँ दिखाई दिया शायद कहीं और नहीं। इसका कारण शायद यह था कि बच्चन ने खय्याम की शायरी दिमाग से कम दिल से ज्यादा लिया, सपनों में बसा लिया, एक जगह लिखते हैं-


    __ "रात को तकिए के नीचे रहती, दिन को जेब में --- --- खैय्याम की दुनिया की रंगीनी ने मुझे इतना मोह लिया कि अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए भी मझे सबसे उपयुक्त प्रतीक वही जान पड़े जिनकी ओर खय्याम ने संकेत किया था-हाला, प्याला और मधुशाला-"


      'नए पुराने झरोखे' (१९६१) में एक लेख में भी बच्चन ने लिखा - 


    "मेरे काव्य जीवन में रूबाइयाते-उमर खय्याम का अनुवाद एक विशेष स्थान रखता है। उमर खय्याम ने रूप, रंग, रस की एक नई दुनिया मेरे आगे नहीं उपस्थित की, उसने भावना, विचार और कल्पना के सर्वथा नए आयाम मेरे लिए खोल दिए- खय्याम के प्रति मैंने स्वीकार किया।


      तुम्हारी नदिया से अभिसिक्त हुए थे जिस दिन मेरे प्राण


      उसी दिन मेरे मुख की बात हुई थी अंतरतम की तान"


                                                                    (आरती और अंगारे)


      हाला, प्याला के वज़न पर मधुशाला, इस त्रिकोण को इस तरह देखिए - 


      कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला


       कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला


       कितनी जल्दी साक़ी का आकर्षण घटने लगता है


       प्राप्त नहीं थी वैसी, जैसी, रात लगी थी मधुशाला


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      साकी मर-खपकर यदि कोई आगे कर पाया प्याला


      पी पाया केवल दो बूंदों से न-अधिक तेरी हाला


      जीवन-भर का, हाय, परिश्रम लूट लिया दो बूंदों ने


      भोले मानव को ठगने के हेतु बनी है मधुशाला


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      किस्मत में खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला


      ढूंढ रहा था मैं मृगनयनी, किस्मत में थी मृगछाला


      किसने अपना भाग्य समझने में मुझ सा धोखा खाया


      किस्मत में था अवघट, मरघट, ढूँढ रहा था मधुशाला


      याद न आए दुखमय जीवन इससे पी लेता हाला


      जग चिन्ताओं से रहने को मुक्त उठा लेता प्याला


      शौक, साध के और स्वाद के हेतु पिया जग करता है


      पर मैं वह रोगी जिसकी एक दवा है मधुशाला


                                     ----


      बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला


      बैठी अपने भवन मुअज्जिन देकर मस्जिद में ताला


      लटे खजाने नरपतियों के गिरी गढों की दीवारें


       रहे मुबारक पीने वाले, खुली रहे मधुशाला


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      और ये दो बन्द देखिए जिसमें समाज है और दर्शन है-


      कुचल हसरतें कितनी, अपनी हाय बना पाया हाला


      कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला


      पी. पीने वाले चल देंगे. हाय न कोई जानेगा


      कितने मन के महल दहे, तब खड़ी हुई यह मधुशाला


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      प्याले सा गढ़ हमें किसी ने भर दी जीवन की हाला


      नशा न आया, ढाला हमने ले-लेकर मधु का प्याला


      जब जीवन का दर्द उभरता उसे दबाते प्याले से


      जगती के पहले साकी से जूझ रही है मधुशाला


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      इन बन्दों को अगर खय्याम की रूबाइयों से तुलना की जाए तो कुछ बातें दिलचस्पी के साथ सामने आती है,  यहाँ तुलना मुनासिब नहीं लेकिन यह बात अहम है कि हिन्दी शायरी में ऐसी तरकीबें, इस्तेलाहें सुरूर और मखमूर की भी कमी थी और आगे बढ़कर यह भी कि इन सबको दर्शन, अध्यात्म आदि का हिस्सा बना दिया जाए। बच्चन ने पहली बार तो नहीं लेकिन कुछ नया-नया सा ज़रूर दिया, एक नया रूप और एक नई मायनी दिए। यह अलग बात है कि वह खय्याम की बुलन्दी को नहीं पहुंच पाते, फिर भी बच्चन जैसे भी है और जितने भी हैं वह एक नया कदम तो था जो सराहा गया, खूब-खूब पसन्द किया गया, कहीं-कहीं तो खय्याम के मुकाबले पर खड़ा कर दिया, जैसे खय्याम की एक रूबाई है-


     चूँ फ़ौत शबम बबादा शोईद मरा


     ख़्वाहीद कि रोजे हश पायीद मरा


 


     तलकीन जे शराबो जाम गोयीद मरा


     अज़ ख़ाक दर मैकदा जोयीद मरा


(जब मैं मरूँ तो मुझे शराब से नहलाओ और कयामत के दिन मझे पाना चाहो तो शराब खाने की मिट्टी में मझे तलाश करो।)


      अब बच्चन का यह बन्द देखिए-


      मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसी दल प्याला


      मेरी जिह्वा पर हो अंतिम वस्तु न गंगा जल, हाला


      मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना


      'राम नाम सत्य है' ना कहना, कहना सच्ची मधुशाला


                               ----


      'गालिब' का एक मशहूर शेर है-


      मय से गरज़ निशात है किस दर सियाह को।


      इक गूना बेखुदी मुझे दिन-रात चाहिए।।


     बच्चन पर भी यह कैफियत गुजरी है, इसीलिए वे कहते हैं - 


     याद न आए दुख में जीवन इससे पी लेता हाला


     जग चिन्ताओं से रहने को मुक्त उठा लेता प्याला


     शौक़ साध के और स्वाद के हेतु पिया जग करता है


     पर मैं वह रोगी हूँ जिसकी एक दवा है मधुशाला


                                --


      गालिब ने शायद खय्याम से प्रभावित होकर शेर कहा और बच्चन तो खैर खय्याम से प्रभावित थे ही। बड़े शायरों के यहाँ प्रायः प्रभावित होने और अपने-अपने ढंग से शराब पीने-पिलाने के अलग-अलग अंदाज़ रहे हैं सूफ़ी शायरों ने  तो इसमें दर्शन की झलकियाँ पेश कीं और सुरूर के आलम में खुदा तक पहुँच गए, वली दक्कनी ने कहा था - 


      शगल बेहतर है इश्कबाज़ी का


      क्या हकीकी व क्या मजाज़ी का


           xxxxxxxxxxxxxxx


      लेकिन सब इस ऊँचाई पर नहीं पहुँच पाते। बच्चन के यहाँ भी यह ऊँचाई कम कम है हालाँकि एक जगह वे साफ तौर पर कहते हैं - 


      "मधुशाला के बहुत से पाठक और श्रोता एक समय समझा करते थे, कुछ शायद अबभी समझते हों कि इसका लेखक दिन-रात मदिरा के नशे में चूर रहता है। वास्तविकता यह है कि हैं कि मदिरा से मेरा परिचय बराए नाम है। नशे से इनकार नहीं करूंगा, जिन्दगी ही एक नशा है। कविता भी एक नशा है, और बहुत से नशे हैं। अपने प्रेमियों का भ्रम दूर करने के लिए एक समय मैंने एक रूबाई लिखी थी - 


    स्वयं नहीं पीता औरों को किन्तु पिला देता हाला


    स्वयं नहीं छूता औरों को पर पकड़ा देता प्याला


    पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने सीखा है


    स्वयं नहीं जाता औरों को पहुँचा देता मधुशाला


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    बच्चन से अकसर सवाल किए जाते कि आप शराब नहीं पीते तो फिर ऐसी शायरी क्यों करते हैं। बच्चन ने इनकार तो नहीं किया, लेकिन शराब और नशे के मायनी ज़रूर समझे और समझाए। यूँ भी कायस्थों में शराब पी जाती रही है, इसलिए बच्चन कहते हैं - 


    मैं कायस्थ कुलोद्भव, मेरे पुरखों ने इतना ढाला


    मेरे तन के लहू में पचहत्तर प्रतिशत हाला


    पुश्तैनी अधिकार मुझे मदिरा लेकर आंगन पर


    मेरे परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला


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    उर्दू साहित्य में एक शायर हैं 'रियाज़ खैराबादी' जिन्होंने कभी शराब नहीं पी लेकिन जिन्दगी भर शराब पर शायरी करते रहे, इसीलिए उन्हें 'शायरे-ख़ुमरियत' (शराब का शायर) के उपनाम से याद किया गया। समस्या यह नहीं है कि कोई शायर शराब पीता है या नहीं, देखना यह है कि शराब उसकी शायरी में किस अंदाज से ढल रही है और शायरी क्या और कैसी बन रही है, कहाँ पहुँच रही है और क्या मायनी दे रही है। सच तो यह लगता है कि बच्चन ने जाम को पिया ही नहीं खय्याम को जिया है, एक-एक बूंद में जिन्दगी के बड़े-बड़े दर्शन देखे हैं और फिर उसे हिन्दी शायरी का लिबास पहनाया है। हालांकि फ़ारसी शायरी, उर्दू शायरी और हिन्दी शायरी के मिजाज व तहजीब में बहरहाल फर्क है, बस फर्क को भी समझते चलना चाहिए कि हिन्दी शायरी में इश्क का इजहार आम तौर पर प्रेमिका की ओर से होता है, लेकिन फ़ारसी में बिल्कुल विपरीत है। उर्दु ने कुछ फारसी और कुछ हिन्दी तहजीब - से लिया, जोश व फिराक ने अपनी रूबाइयों में उर्दू-हिन्दी को बहुत करीब करने की कोशिश की है, फिर भी कुछ न कुछ फ़र्क तो कायम रहता ही है, फिर बच्चन के यहाँ तो उर्दू-हिन्दी का फ़र्क कम हिन्दुस्तान और ईरान का ज्यादा है। बच्चन का कमाल यह है कि उसे पूरे तौर पर हिन्दी का रूप न देते हए भी हिन्दी शायरी में पेश किया और शराब को मदिरा और मैखाने को मधुशाला में बदल दिया। खुद एक जगह लिखते हैं- "मैंने उमर खय्याम के हृदय भावना को अपनी भाषा के तार में पिरो कर चढ़ाया है--


      ये कामयाब कोशिश अपनी जगह दुरूस्त और काबिले-तारीफ़, पर यह भी सच है कि खय्याम ने अपनी रूबाइयों में शराब की सरशारी व खुमारी के बावजूद फ़िक्रफलसफे की वह ऊँचाइयाँ छुई है जहाँ हर आते-जाते का पहुँच पाना सम्भव नहीं, बच्चन भी नहीं पहुँच सके हैं। बच्चन के फ़लसफ़े में वह गहराई और ऊँचाई नहीं मिलती जो खय्याम की असल पहचान है, लेकिन बच्चन के खुलूस व सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता। यही सच्चाई व सादगी उनकी शायरी का जेवर बनती है।


      खय्याम के यहाँ दिमाग ज्यादा है, बच्चन के यहाँ दिल ज्यादा है, एक के यहाँ अस्ल है तो दूसरे के यहाँ नक़ल, लेकिन खय्याम की नकल भी आसान नहीं। खय्याम राहत में जीवन दर्शन की बातें करते हैं, बच्चन मुसीबत में रूबाई का सहारा लेते हैं, जिन्दगी की मुसीबतों से बचने की राह निकालते हैं, खय्याम का नशा-ए-शराब बेदार करता, जगाता है, बच्चन शराब की हिमायत इसलिए करते हैं कि इसे पीकर इंसान सारे गम भूल जाता है, लेकिन इस भूल की प्रक्रिया में बच्चन ने भेदभाव भुलाने और मेल मोहब्बत को जगाने की जो बातें कहीं है। वह मधुशाला का पैगाम ही नहीं बल्कि उसकी जान है, एक जगह कहते हैं-


    मुसलमान और हिन्दू हैं दो, एक मगर उनका प्याला


    एक मगर उनका मदिरालय एक मगर उनका हाला


    दोनों रहते एक, न जब तक मस्जिद-मंदिर में जाते


    बैर बढ़ाते मस्जिद-मंदिर मेल कराती मधुशाला।


    इसे एक बड़ा पैगाम मिलता तो है लेकिन कोई कह सकता है कि इसमें कोई बड़ा फ़लसफ़ा नहीं मिलता। चलिए बड़ा फ़लसफ़ा नहीं तो न सही, मोहब्बत अपने आप में सबसे बड़ा इंसानी फ़लसफ़ा होता है। बच्चन को पता है कि शराब केवल शराब नहीं होती, एक शायर के लिए वह शराबे-मोहब्बत होती है और मोहब्बत ही जिन्दगी है, अगर ज़िन्दगी में मोहब्बत के दरवाजे बन्द हो जाए तो फिर जिन्दगी किस काम की। जहाँ मोहब्बत होगी, शायरी की जबान भी अपने आप में साया और नाजुक होगी, इसका इज़हार उससे भी ज्यादा नाजुक। बच्चन के यहाँ इसका ख्याल और इन्तेजाम रखा गया है, यही वजह है कि उनकी आवाज सैकड़ों, हजारों में पहचान ली जाती है और यही पहचान है जो उन्हें खास और आम में बेमिसाल शोहरत दे जाती है, साथ ही दूसरों को परेशानी में डाल देती है। कुछ हिन्दी वालों ने बच्चन को इसलिए पसन्द नहीं किया कि उनकी शायरी में शराब-शबाब ज्यादा है और यह तहजीब के खिलाफ़ है। कुछ ने तो इसलिए विरोध किया कि इसमें फ़ारसी कल्चर ज्यादा है। इन नादान दोस्तों को यह नहीं मालूम कि जैसे जिंदगी का कोई मजहब नहीं होता, वैसे साहित्य का भी कोई मजहब नहीं। कल्चर तो मिलवाँ तहज़ीब से ही जन्म लेता है। दुनिया के बड़े-बड़े शायरों, फनकारों-दानिशवरों के यहाँ आदान-प्रदान की शमए रौशन होती है तभी रौशनी फैलती है और समाज जगमगा उठता है। बच्चन ने भी हिन्दी शायरी में एक नए अंदाज़ की शमा रौशन की जिसकी रौशनी में गंगा-जमुनी तहज़ीब ही नहीं, इंसानी तहज़ीब भी झलकती है। उर्दू लेखक 'महमूद वाजिद' के इन वाक्यों पर बात खत्म की जाती है - 


    "बच्चन की आवाज़ सैकड़ों में पहचानी जा सकती है, उनका लहजा बिल्कुल अलग है। सबसे बड़ी बात यह है कि हिन्दी शायरी को उन्होंने एक नई जेहत (रुख) दी। ये बच्चन का कारनामा है और इसमें वह एक मखसूस (विशेष) मुकाम रखते हैं, हिन्दुस्तान की दूसरी बड़ी ज़बान उर्दू, जो फ़ारसी से इतनी क़रीब है, वह बच्चन के जैसा शायर पैदा न कर सकी यह हिन्दी की खुश नसीबी है।"


 


                                                                   सम्पर्क : मो.नं. : 9415306239