आलेख - हैं लिखे मधुगीत मैंने हो खड़े जीवन समर में.... लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता

लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता - जन्मतिथि : 03.01.1983 शिक्षा : एम.ए. (हिंदी), पी-एच.डी., काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी संप्रति : असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज प्रकाशित कृति : 'जिसे वे बचा देखना चाहते हैं' काव्य संग्रह (2015)


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कविता हिन्दी साहित्य के केंद्र में रही। आधुनिक काल में इसे केद्र में रखने का बहुत श्रेय आलोचकों को भी जाता है, किन्तु बहुत कम कवि हैं, जिन्हें उनके युग में या युग के बाद अपना समानधर्मा आलोचक मिला हो। यह संयोग कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, निराला, मुक्तिबोध जैसे को ही मिल पाया। ज़्यादातर कवि उस आलोचना की भेंट चढ़ गए, जो रचना के संश्लिष्ट परतों या कहें कि बहुआयामी रहस्यों को उद्घाटित करने में असमर्थ रहे। इस संदर्भ में निर्मल वर्मा का यह कथन "हिंदी आलोचना का यह दुर्भाग्य रहा है और शायद सिर्फ हिंदी आलोचना नहीं कि कलाकृति के बहुआयामी भूल-भुलैया में जाने से कतराती है। कोई कृति नितांत व्यक्तिक पीड़ा में सामाजिक संदर्भो को खोल सकती है और सामाजिक यथार्थ के बीच व्यक्ति का रहस्यमय मनोसंसार उद्घाटित कर सकती है। कला के इस अंतविरोधी चरित्र में उसे ज़्यादा विश्वास नहीं। वह एक सीधा-साधा रास्ता अपनाना पसंद करती है, जहाँ एक खास अर्थ को चुना जा सके और फिर उस एकांगी अर्थ की शूली पर कलाकृति के समूचे चरित्र को टांगा जा सके ? निर्मल वर्मा के इस कथन को हिंदी साहित्य की उस परम्परा से भी जोड़ कर देखा जाना चाहिए, जिसने अपनी रचनाधर्मिता से हिंदी को न सिर्फ व्यापक पाठक समुदाय दिया, बल्कि उसकी निजी अनुभूति का भी प्रखर स्वरूप बनकर उभरा।


    ___ 'छायावाद' की प्रगीतात्मकता को जिस तरह सराहा गया और बाद के आलोचकों ने जैसी प्रतिष्ठा दी, वह बाद के दौर में दुर्लभ होती चली गई। 'छायावादोत्तर युग' के गीत नितांत व्यक्तिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के रूप में ही देखे-समझे गए। इस पूरी काव्य धारा को व्यक्तिवादी कठघरे में खड़ा कर दिया गया और सारी ताकत इस बात को सिद्ध करने में लगा दी गई कि इस कविता का कोई व्यापक सरोकार नहीं सिद्ध होता। इस तरह घोर आत्मपरकता या कि एकाकी होने का आरोप लगाकर उसे मुख्य धारा से दरकिनार कर दिया गया। परिणाम यह हुआ कि गीत विधा वैक्तिक सीमा में ही कैद हो गई।


    परिवेश में अपने आप को खोलना, अपनी गिरहों को खोलना; बेहतर नहीं माना गया। जब कभी किसी रचनाकार ने यह साहस किया तो उसे सामाजिक स्वीकृति ही न मिली। न उस समाज से जिसके सांचे को वे तोड़ रहे थे और न ही उस लेखकीय समाज से जिसे उनके समय में बौद्धिक और संवेदनशील की संज्ञा मिली थी।


    जब भी व्यक्तिवाद को मूल्यांकन का आधार बनाया गया तो उसके साथ कितना न्याय हो पाया, यह हमसे छिपा नहीं है। जबकि इस व्यक्तिवाद की ज़रूरत क्योंकर है, इसे आप 'तद्भव' की एक सम्पादकीय टिप्पणी से महसूस करें, "हमारे यहाँ साहित्य में व्यक्तिवाद को बहुत हिकारत की दृष्टि से देखा जाता है, यूं तो कोई भी वाद कम-से-कम निर्विवाद नहीं रह जाता है, किन्तु व्यक्तिवाद पर प्रहार कुछ ज़्यादा ही हुए हैं। प्रहार के दौरान अक्सर उस प्रकार के लेखन को भी निशाना बनाया जाता है जिसमें लेखक द्वारा निजी सच कहने की, अपने अस्तित्व के यथार्थ को बयान करने की चेष्टा रहती है। विरोध के दरमियान यह भुला दिया जाता है कि 'मैं' की तलाश या 'मैं' का विश्लेषण या 'मैं' का चित्रण एक उच्चतर सामाजिक परिवेश और उच्चतर मस्तिष्क के माध्यम से ही सम्भव होता है। जिस व्यवस्था में बाहरी दबावों में ही आदमी पिस रहा होता है, उसकी ऊर्जा और उसका समय जीवन को बचाए रखने में ही खर्च हो जाते हैं। उसमें उसके पास इतनी फुर्सत नहीं बचती है कि वह आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया से गुजर सके।


    इससे यह भी अर्थ लिया जाना चाहिए कि इसके पीछे आलोचना का वही भाव काम कर रहा था, जिसकी वजह से किसी रचनाकार को उसकी सहज प्रकृति से काट देने की कोशिश होती है। यह दौर सामाजिक रूप से परिवर्तनशील तो था ही साहित्यिक रूप से भी कई प्रयोगों से गुजर रहा था। रचना का महत्त्व इस बात से आंका जा रहा था कि वह सामाजिक संघर्ष में, राष्ट्रीय चेतना निर्मित करने में और कला को नूतनता देने में कितनी भूमिका अदा कर रही है। व्यक्तिवादी धारा वैक्तिक संघर्ष और जीवन के यथार्थ पर अधिक बल देने वाली रचानाएँ लेकर सामने आ रही थी।


    जहाँ एक और आलोचकों द्वारा इस धारा को महत्त्व नहीं मिला, वहीं दूसरी ओर कई आलोचकों ने इसके महत्त्व को प्रतिपादित करने का भी प्रयास किया। विजयदेव नारायण साही ने इस धारा पर लिखते हुए कहा- "यह विश्लेषण करना संभव है कि लघु-महत के सम्बन्ध में न सिर्फ हिंदी में युग परिवर्तन हुआ, बल्कि उसी तरह हिंदी का काव्य टोन भी बदला और हिंदी साहित्य ने नए ढंग से उस सम्बन्ध को देखने की कोशिश की। इस दृष्टि से नई कविता और छायावाद के बीच भी एक मंजिल है, जिसके प्रमुख स्वर बच्चन, भगवतीचरण वर्मा और दिनकर आदि हैं, जिन्हें बीसवीं सदी के तीसरे दशक की अभिव्यक्ति मान सकते हैं।''३


    जिन कवियों की बात विजय देव नारायण साही कर रहे हैं, वे ही कवि अन्य आलोचकों के निशाने पर सबसे ज्यादा रहे हैं। लेकिन, उन निशानों का क्या जिसकी परवाह जनमानस नहीं करती। जनाकांक्षाओं की साध को जो कवि जितनी ही सघनता से अभिव्यक्त कर ले जाता है, वही उसका चहेता हो जाता है। 'छायावादोत्तर युग' में जिस कवि को सबसे ज्यादा लोगों द्वारा कठघरे में खड़ा किया गया, वे बच्चन थे। 'मधुशाला' (१९३५ ई.) के प्रकाशन के साथ ही बच्चन के आलोचकों की संख्या बढ़ गई; जबकि इस दौर में बच्चन जीवन की त्रासदियों से गुजर रहे थे। इस संदर्भ में 'मधुकलश' (१९३७ ई.) की भूमिका में वे लिखते हैं- "इधर तो मैं और मेरे परिवार के लोग दुर्भाग्य, मौत और बीमारी से संत्रस्त और आतंकित थे, उधर साहित्य की दुनिया में कलम और जबान दोनों ही मेरे खिलाफ चल रही थी। जबानें तो जुबानी जमा-खर्च करती हैं, पर कलम की काली करतूतें तत्कालीन पत्र-पत्रिकओं के कालमों में अब भी जीवधारी खजाने की तरह ईर्ष्या, द्वेष, अहम्मन्यता और स्पर्धा के रूपों की संरक्षता में बंद पड़ी हैं। कोई मेरे उद्गारों को वासनामय बताता, कोई मेरे गान को निराशा से भरा, कोई मेरी पैरोडी लिखता, कोई मेरा उपहास करता, कोई मुझे पथभ्रष्ट कहता।


  एक तरफ आत्मपरकता का आरोप और दूसरी तरफ 'हालावाद' के प्रवर्तन का श्रेय। यह श्रेय बहुधा वैसा नहीं था, जिससे बच्चन का महिमामंडन होता; बल्कि, बच्चन को उनके समय में और आज के समय में भी हाला और प्याला का ही कवि समझा गयासाहित्य का इतिहास लिखनेवालों ने भी ‘हालावाद' को एक युग की तरह ही देखा-समझा- समझाया। इसका परिणाम यह हुआ कि बच्चन के काव्य व्यक्तित्व का व्यापक उद्घाटन नहीं हो पाया। जिस कवि ने अपने ५१ वर्ष की काव्य-यात्रा में हिंदी को अठाईस काव्य संग्रह दिए हों, उसके मूल्यांकन का आधार सिर्फ 'मधुशाला' को ही बनाया गया। यदि 'मधुशाला', 'मधुबाला' और 'मधुकलश' को छोड़ भी दें तो उसके बाद १९३७ ई. से १९६५ ई. के बीच बच्चन के सोलह काव्य संग्रह प्रकाशित हुए - ""निशा निमंत्रण', 'एकांत संगीत', 'आकुल-अंतर', 'सतरंगिनी', 'हलाहल', 'बंगाल का काल', 'खादी के फूल', 'सूत की माला', 'मिलन यामिनी', 'प्रणय पत्रिका', 'धार के इधर-उधर', 'आरती और अंगारे', 'बुद्ध और नाचघर', 'त्रिभंगिमा', 'चार खेमे चौसठ खाटें' और 'दो चट्टानें' इन रचनाओं में व्यक्तित्व के वैविध्य को देख सकते हैं। ये रचनाएँ जितनी एकान्तिक हैं, उससे कहीं ज्यादा सार्वजनिक। इनमें मनुष्य की लघुता के साथ उसकी विराटता का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। यह अनायस नहीं कि विजय देव नारायण साही ने 'लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस' शीर्षक लेख में 'मधुकलश' के बारे में लिखा है, "न जाने क्यों बच्चन के 'मधुकलश' की चर्चा उतनी नहीं हुई जितनी उनकी 'मधुशाला', 'निशा निमंत्रण' और 'एकांत संगीत' की। न सिर्फ उस पुस्तक में उस युग की काव्यात्मक अनुभूति का काफ़ी बड़ा खजाना है, बल्कि उस काल की प्रधान काव्यात्मक समस्याओं की पूँजी भी है जिसके बगैर उस युग को नहीं समझा जा सकता। यों भी, मेरी समझ में हिंदी की लम्बी कविताओं में- जिनमें शुरू से आखिर तक काव्य-गुण समान रूप से वर्तमान हो 'मधुकलश' की कविताएं बेजोड़ हैं। साही इस लेख में बच्चन की कविता RAI पर गंभीरता से विचार करते हैं। वे 'मधुकलश' के एक गीत 'लहरों का निमन्त्रण' के हवाले से प्रसाद की 'कामायनी' का शुरुआती व अंश सामने रखते हुए बच्चन के प्रतीक पर ज्यादा आकर्षित होते हैं। इस दृष्टि से विचार करने पर बच्चन अपने समय के महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में दिखाई पड़ते हैं!


    जीवन जगत का शायद ही कोई पक्ष ऐसा हो जिसपर बच्चन ने न लिखा हो। जो भी लिखा पानी की तरह पारदर्शी। जिसमें आप देख सकते हैं अपना और अपने समाज का ठीक-ठीक वही चेहरा, जो सचमुच में है। बच्चन को समझने की दृष्टि से मुक्तिबोध का वह कथन भी जरूरी हो जाता है कि कवि को समझने के लिए उसकी गद्य रचनाओं को भी पढ़ना चाहिए, क्योंकि कवि का बहुत कुछ अन्तरंग पक्ष कवि द्वारा लिखित गद्य रचनाओं के माध्यम से समझा जा सकता है। बच्चन की आत्मकथा विशेषकर 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' और 'नीड़ का निर्माण फिर' से गुज़रे बगैर बच्चन के काव्य लोक में प्रवेश करना, आधा-अधूरा प्रवेश करना ही होगा जिसके निष्कर्ष वही होंगे जो दशकों से चले आ रहे हैं, जरूरत है उसे बदलने की।


    जिस ‘हालावाद' का आरोप बच्चन पर लगा, उस 'हालावाद' को भी बहुत ही स्थूल ढंग से समझा गया। जबकि बच्चन ने रुबाइयों में ही उसके उद्देश्य को बार-बार स्पष्ट किया-


    भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,


    कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला!


     कभी न कण भर खाली होगा, लाख पिएँ दो लाख पिएँ !


     पाठकगण है पीने वाले पुस्तक मेरी मधुशाला।


    'मधुशाला' की कविताओं पर लगे आरोप पर बच्चन ने लिखा- 'मधुशाला' लिखकर मैंने कोई वाद नहीं चलाया, कुछ प्रतीकों को लेकर मैंने अपनी भावनाएं व्यक्त की हैं। ये प्रतीक फ़ारसी-उर्दू में बहुत दिनों से प्रयुक्त हो रहे थे। मेरे पहले भी हिंदी में इन प्रतीकों का प्रयोग हो चुका था।" उमर खैयाम, हाफ़िज़ जैसे फ़ारसी सूफी-कवियों ने शराब, साकी, प्याला आदि को प्रतीक बनाकर परोक्ष सत्ता से संबंध जोड़ा तथा बाह्य आडम्बरों का खंडन किया। यही वजह है कि जब हम 'मधुशाला' की रुबाइयों से गुजरतें हैं तो यथार्थ जीवन के संदर्भ ही महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। हरेक रुबाई अपने समय की विसंगतियों की शिनाख्त करती प्रतीत होती है। जब बच्चन यह लिखते हैं - 'सौ सुधारकों का करती है काम अकेली मधुशाला' तो यह समझना मुश्किल नहीं रह जाता कि वे किस मदिरा और बाला की बात कर रहे हैं। जहाँ जीवन-जगत के, व्यक्ति-समाज के, आशा-निराशा, सुख दु:ख के, आदि-अंत के तमाम द्वंद्व नजर नहीं आते। हमारा समाज जिन विसंगतियों की वजह से आज भी पिछड़ा हुआ है और जिन्हें तमाम प्रयासों के बावजूद हम दूर नहीं कर पा रहे हैं, बच्चन उस दौर में ही इससे मुक्त होने का विकल्प देते मालूम पड़ते हैं। --


    धर्म ग्रन्थ सब जला चुकी है जिसके अंदर की ज्वाला,


     मन्दिर-मस्जिद, गिरजे सबको तोड़ चुका जो मतवाला,


     पंडित, मोमिन, पादरियों के फंदों को जो काट चुका,


     कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।


      यही समय था जब प्रगतिवादी और राष्ट्रीय चेतना की कविताएँ लिखी जा रही थीं। समूचा देश स्वतंत्रता आंदोलन में लगा हुआ था,ऐसे में बच्चन की कविता को पाठक तो मिलें; किंतु, आलोचकों को यह लगा कि ये कविताएँ इस अवसर के लिए माकूल नहीं हैं, और उन्होंने बच्चन पर मधुगीत लिखने का आरोप लगा दिया। इसी समय आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जयशंकर प्रसाद के काम पर 'मधुचर्या' का आरोप लगाया था। ऐसे में बच्चन की स्थिति क्या होगी सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। अपने ऊपर लगे आरोपों पर बच्चन ने लिखा-


    राग के पीछे छिपा, चीत्कार कह देगा किसी दिन,


    हैं लिखे मधुगीत मैंने, हो खड़े जीवन-समर में।


    जीवन-समर में खड़े इस कवि पर जिस तरह के हमले हो रहे थे, और जिस तरह के लोगों द्वारा हो रहे थे; यह जानना भी जरूरी है। बच्चन अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, "बेनीपुरी ने तो यहाँ तक धमकी दी थी कि - 'अगर बच्चन बिहार में पाँव रखेगा तो मैं उसको गोली मार दूंगा'। कुछ महीने बाद मुजफ्फरपुर से मेरे लिए एक कवि सम्मलेन का निमंत्रण आया। श्यामा ने कहा-बिहार न जाव,बेनीपुरी तुमका गोली . मार देइहें।१७


    इस धमकी का बच्चन पर कोई असर नहीं पड़ा और वे मुजफ्फरपुर गए, सकुशल लौटें। आलोचनाओं के बाद भी बच्चन न तो हतोत्साहित हुए, न ही जनमानस की ओर से मिलने वाली असीम प्रशंसा से फूलकर कप्पा ही। उन्होंने अपनी लेखनी में कोई रुकावट न आने दी। श्यामा की मृत्यु के बाद कुछ ठहराव जरूर आया; किंतु, वह स्थाई न रहा। 'निशा निमंत्रण' से बच्चन ने एक नए दौर की शुरुआत की, जो पहले से ज्यादा वैविध्य लिए हुए थी। बच्चन की सबसे बड़ी विशेषता है,जीवन पर अगाध विश्वास-


    और क्या इतिहास, क्या संस्कृति कि जीवन में मनुज विश्वास रक्खे,


    मैं इसी विश्वास को हर साँस से कहता रहा, कहता रहूँगा।


    बच्चन अपनी मूल प्रवृत्ति में इसी विश्वास को बनाए और बचाए रखने वाले कवि हैं। यह विश्वास जीवन और लोक के गहन बोध से ही अर्जित किया जा सकता है, किसी वायवीय लोक से नहीं। उनकी दुनिया में सबके लिए जगह है, सिवाय आडंबरों के। जब वे कहते हैं-


     आ जा! व्यथित आ जा,/


    दलित आ जा! पतित आ जा!


    स्वागतम् किसको न कहता स्वप्न का संसार मेरा!/


    विश्व को उपहार मेरा।


    इसके साथ ही वे यह भी कहते हैं-प्रार्थना मत कर, मत कर, मत कर! / युद्धक्षेत्र में दिखला भुजबल रहकर अविजित, अविचल प्रतिपल / मनुष्य पराजय के स्मारक हैं मठ, मस्जिद, गिरजाघर!


    बच्चन की कविता को इसी रास्ते पर चलकर बेहतर रूप में समझा जा सकता है। सहज भाषा और लयात्मकता किसी कवि की कमजोरी ही हो, यह जरूरी नहीं। जरूरी यह हो जाता है कि उसकी दृष्टि कैसी है? वह हमें ले जाना कहाँ चाहता है? ईमानदारी के साथ अपनी काव्य-यात्रा में अहर्निश गतिशील हैं। वे उस शक्ति के प्रति भी पूरी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं,जिसकी वजह से जीवन-समर मधुमय संसार में ढल सका-


    नयन करो मत नीचे प्राण, /


    शक्ति तुम्ही हो मुझको देती,


    तुम्हीं तरी जीवन की खेती, /


    तुम्ही जीव हो, प्राण हमारी, और तुम्हीं भगवान।


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संदर्भ


१. वर्मा, निर्मल : लेखक की आस्था, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, द्वितीय संस्करण : २००४, पृ.सं. ६८


२. अखिलेश (संपादक) : तद्भव, इंदिरा नगर, लखनऊ, वर्ष १, अंक २, अप्रैल २०१३, पृ.सं. १


३. साही, विजयदेव नारायण : निबंधों की दुनिया, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, २००७, पृ.सं. ९९


४. कुमार, अजित (संपादक) : बच्चन रचनावली (खण्ड १), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, चतुर्थ संस्करण, २००६, पृ.सं. ११७


५. साही, विजयदेव नारायण : निबंधों की दुनिया, वाणी प्रकाशन, ___नई दिल्ली, प्रथम संस्करण २००७, पृ.सं. १०४


६. कुमार, अजित (संपादक) : बच्चन रचनावली (खण्ड १), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, चतुर्थ संस्करण, २००६, पृ.सं. ३७


७. बच्चन, हरिवंशराय : क्या भूलूँ क्या याद करूँ, राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली संस्करण, २०१२, पृ.सं. २३०


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