आलेख - डॉ. हरिवंश राय बच्चन : अनुवाद के सैद्धांतिक आधार - मनीष प्रसाद

मनीष प्रसाद - जन्म : 19 जुलाई 1991, आसनसोल, पश्चिम बंगाल शिक्षा : एम.ए., एम.फिल. (अंग्रेजी), पीएचडी (जारी)-अंग्रेजी विभाग, काजी नजरुल विश्वविद्यालय, आसनसोल, पश्चिम बंगाल सम्प्रति : असिस्टेंट प्रोफेसर, अंग्रेजी विभाग, फैकल्टी ऑफ लिबरल आर्ट्स, आई.सी.एफ.ए.आई. यूनिवर्सिटी, त्रिपुरा


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                                      मिट्टी का तन, मस्ती का मन


                                      क्षण न भर जीवन, मेरा परिचय।


      क्षण न भर जीवन, मेरा परिचय। हरिवश राय बच्चन' जी ने १९६४ में बोरिश पास्तरनाक की कविता 'हेमलेट' की उपर्युक्त पंक्तियों का जब अनुवाद किया था, तब वे हिंदी के प्रसिद्ध कवि के रूप में स्थापित हो चुके थे। यहाँ तक कि साहित्यिक यात्रा में वे हिंदी जगत को कई महत्त्वपूर्ण रचनाएँ दे चुके थे जिनमें कुछ मौलिक थीं और कुछ अनूदित। उन्हें सबसे अधिक प्रसिद्धि जिस पुस्तक से मिली, वह थी-मधुशाला (१९३५)। इसका मॉडल उन्होंने फिट्जगेराल्ड के उमर खय्याम की रुबाइयात के अनुवाद के आधार पर तैयार किया था। फिट्जगेराल्ड की रुबाइयात भी जिन्दगी को उसी रूप में रेखांकित करती है, जिस रूप में उपर्युक्त पंक्तियों के माध्यम से बच्चन दिखाते हैं। दिलचस्प बात यह है कि यह भी बच्चन की अनूदित पंक्तियाँ हैं, मौलिक नहीं। फिर भी यह इतनी ताजी लगती हैं कि हम इसे मौलिक से कम नहीं मान सकते। बच्चन जी को हिंदी में प्रायः एक 'हालावादी कवि' कहकर छोड़ दिया गया है। यद्यपि सचाई यह है कि इससे इतर उनकी रचनाओं के विविध आयाम हैंएक कवि होने के साथ-साथ वे एक सफल अनुवादक भी रहे हैं। दुर्भाग्य से बच्चन के अनुवाद को जिस गंभीरता से देखा जाना चाहिए था, अभी तक नहीं देखा गया है। उनकी कविता पर बात करते वक्त उनके अनुवाद को साथ में जोड़कर देखने की कोशिश अभी तक नहीं की गई है। जबकि सच यह है कि उनकी कविताएँ और अनुवाद के बीच अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। यहाँ बच्चन के अनुवाद के सिद्धांत के माध्यम से उनके इन्हीं संबंधों को कुछ हद तक सामने लाने की कोशिश की गई है।


    बच्चन जी आधुनिक भारत के प्रमुख लेखकों और अनुवादकों में से एक रहे हैं। उन्होंने १९३५ में एडवर्ड फिट्जगेराल्ड के अंग्रेजी अनुवाद से खय्याम की मधुशाला को हिंदी में अनूदित किया। शेक्सपियर की चार प्रमुख त्रासदियों - मैकबेथ (१९५९), ओथेलो (१९६१), हेमलेट (१९६७) और किंग लीयर (१९६९) का अनुवाद हिंदी में किया। इसके अलावा उन्होंने उत्तरी अमेरिकी और रूसी कवियों के कविताओं का अनुवाद और डब्ल्यू.बी येट्स की चयनित कविताओं का अनुवाद मरकत द्वीप का स्वर (१९६५) शीर्षक से किया।


    __ ऐसे में उनके अनुवाद सिद्धांत को जानना बहुत महत्त्वपूर्ण है। बच्चन जी की पहचान हिंदी और अंग्रेजी साहित्यिक क्षेत्र में एक लोककथा की तरह है। उनके रचनात्मक व्यक्तित्व की कई परतें हैं जो पर्दे के पीछे छिपी हुई हैं। उनके निबंध 'शिकायत है-बच्चन को बच्चन से' में वे लिखते हैं कि वे अंग्रेजी साहित्य के छात्र और प्रोफेसर थे बावजूद इसके उन्होंने हमेशा अपनी कविता और गद्य हिंदी में लिखे। इसका नतीजा हुआ कि उन्हें कभी भी मुख्य धारा के भारतीय अंग्रेजी लेखकों में जगह नहीं मिली। मधुशाला के प्रकाशन से पूर्व "मिलन यामिनी" तक उनके बारह काव्य- संग्रह हिंदी में प्रकाशित हो चुके थेइसके बाद वे कैम्ब्रिज गए और डब्ल्यू बी येट्स पर अंग्रेजी में अपनी पीएचडी की उपाधि डब्ल्यू बी येट्स और ओकल्टिज्म (१९५४) शीर्षक प्राप्त की। इसके बीच वे हिंदी तत्कालीन मख्यधारा के कवियों से हटकर अनुवादक के रूप में अपना कार्य करते रहे। इतना ही नहीं कैब्रिज से लौटने के बाद भी अनुवाद का उनका यह कार्य जारी रहा।


    इस तरह से देखा जाए तो बच्चन जी हिंदी के कवि के साथ-साथ एक महत्त्वपूर्ण अनुवादक के रूप में भी हमारे सामने उपस्थित होते हैं। अनुवाद का उनका यह कार्य उतना ही मौलिक है, जितना की उनकी रचनाएँ। रचना और अनुवाद का उनके साहित्यिक जीवन में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध रहा है। जाहिर है कि उन्होंने अनुवाद सिर्फ अनुवाद के लिए नहीं किया, बल्कि अनुवाद के माध्यम से अन्य भाषा-भाषी लेखकों और उनकी संस्कृतियों को जिया है। जीने के इस दौर में उन्होंने अनुवाद के बारे में गहरे रूप से सोचा, समझा और उस पर अपना अभिमत भी दिया है।


  बच्चन जी के अनुसार अनुवादकों को शब्दों की बजाय विचारों के अनुवाद पर ध्यान देना चाहिए। सिर्फ अनुवाद के लिए अनुवाद नहीं किया जाना चाहिए, अनुवाद में भी मूल की शुद्धता होनी चाहिए। बच्चन जी ने लिखा है कि जब उन्होंने अनुवादक के रूप में अपनी रचनात्मक यात्रा शुरू की, खासकर उमर खय्याम के अनुवाद के साथ, तब उन्होंने यह महसूस किया कि उनका मन दो हिस्सों में विभाजित हो गया है- एक काव्य रचनात्मक मन और दूसरा मानवआत्मा, जो मनुष्य जीवन के विभिन्न आघात से पीडित है। उन्होंने हमेशा अपने मानव-आत्मा के अनुसार सोचने और काम करने की कोशिश की है, लेकिन ऐसा कभी नहीं हो पाया। बच्चन जी का मानना रहा है कि मूल लेखक और अनुवादक दोनों की चिंताएं समान तो होती हैं, पर दो अलग व्यक्ति होने के नाते दोनों की अनुभूति में भी समानता हो, यह जरूरी नहीं है। एक अनुवादक के सामने सबसे बड़ी चुनौती अनुभूति की इसी समानता को हासिल करना होता है। जब तक अनुवादक और मूल लेखक की चिंता-अनुभूति समान नहीं होगी, तब तक अनुवादक कभी रचना के अनुवाद में सफल नहीं हो सकता। इसलिए ' उनका मानना रहा है कि अनुवाद को मूल रचना के समतुल्य बनाने कालए अनुन के लिए अनुवादक को दो चीजों से हमेशा सावधान रहना चाहिए -एक. अनवाद में शब्द केवल ऊपरी अर्थ न दे, और दूसरी तरफ अर्थ पूरी तरह से भावना और अनुभूति के साथ सामने आ सके। इसीलिए बच्चन जी अनुवाद को 'ट्रांसलिटरेशन' न मानकर 'ट्रांसक्रिएशन' मानते हैं।


    बच्चन जी के अनुसार किसी देश की कोई भी उल्लेखनीय घटना का प्रभाव उसके साहित्य पर निश्चित रूप से रहता है। एक कवि या लेखक तभी सम्पूर्ण होता है, जब उसकी रचनाओं में अपने देश का प्रतिबिम्ब झलकता है। साहित्य जीवन का प्रतिबिंब है। किसी देश या समुदाय की छवि उसके साहित्य में नहीं मिलेगी, तो कहाँ मिलेगी? अपने रचनात्मक जीवन के आरंभिक चरण से ही बच्चन को अपने देश की दयनीय स्थिति, उपनिवेशवादियों की अधीनता और सांप्रदायिक दंगों ने आतरिक रूप से छू लिया था। मधुशाला उनकी पहली ऐसी प्रकाशित कृति है जिससे उन्हें एक कवि-अनुवादक के रूप में लोकप्रियता मिली। बच्चन जी ने इस अनुवाद के कारण को स्पष्ट करते हुए माना है कि जब उन्होंने उमर खय्याम के रुबाइयात का अनुवाद किया तब देश में अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन चल रहा था, पर भारतीयों को अपेक्षित सफलता हासिल नहीं हो पा रही थी। ऐसे में निराश भारतीयों के भीतर उत्साह भरने के लिए इस रचना का अनुवाद ज़रूरी था। १९३० के दशक में भारतीयों में अपनी स्वतंत्रता को लेकर असमंजस की स्थिति थी। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और अन्य भारतीय क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी, दूसरे गोलमेज सम्मेलन से लौटने के तुरंत बाद महात्मा गाँधी की गिरफ्तारी आदि घटनाओं ने राष्ट्रवाद की मान्यताओं और विश्वास को चुनौती दी थी। ऐसे में बच्चन जी को लगता था कि जिस तरह फिट्जगेराल्ड के लिए उमर खय्याम की फारसी कविताओं का अनुवाद विक्टोरियन संकट के खिलाफ नाराजगी व्यक्त करने का तरीका बना था, लगभग उसी तरह खय्याम की मधुशाला इस देश की स्वतंत्रता-पूर्व संकट से बाहर आने का एक माध्यम हो सकता है।


    बच्चन जी हिंदी में एक शेक्सपियर मंच बनाना चाहते थे, जहाँ भारतीय दर्शकों के सामने शेक्सपियर के नाटक खेले जा सकें। इसीलिए उन्होंने मैकबेथ, ओथेलो का अनुवाद किया और इसे रेडियो नाटक के रूप में पहली बार खेला गयाबाद में - ये दर्शकों के सामने मंच पर भी खेले गए जिनमें नेहरू और इंदिरा गाँधी से लेकर पृथ्वीराज कपूरजैसे गणमान्य लोग उपस्थित थे। इसके अलावा शेक्सपियर के नाटकों का बच्चन का अनुवाद शेक्सपियर के इन नाटकों के पूर्ववर्ती अनुवाद से बच्चन जी के असंतोष को भी जाहिर करता है। शेक्सपियर पहले से ही हिंदी में थे। इसके बारे में बच्चन जी ने मैकबेथ के अपने अनुवाद की प्रस्तावना में लिखा है। उन्होंने लिखा है कि शेक्सपियर के इसके पहले के अनुवाद उस तरह के नहीं थे, जैसा वे चाहते थे। उनका मानना था कि शेक्सपियर बाइबिल की तरह ही भारतीयों को अंग्रेजी का सबसे बड़ा उपहार है। इसीलिए उन्होंने शेक्सपियर के चार त्रासदियों का अनुवाद काव्य-गद्य संवादों के रूप में किया। ये शेक्सपियर की ऐसी रचनाएँ थीं, जिसे किसी हिंदी शेक्सपियर अनुवादक ने उस रूप में नहीं किया था, जिस तरह से बच्चन जी ने किया है, जिनमें उनके समकालीन रांगेय राघव, रघुवीर सहाय जैसे लेखक भी शामिल हैं। अपने अनुवाद के माध्यम से वे शेक्सपियर हिंदी मंच तो बनाना ही चाहते थे, इसके साथ-साथ हिंदी नाटककारों के लिए 'त्रासदी' को एक मॉडल के रूप में भी लाना चाहते थे। इसके अलावा सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि वे स्वतंत्रता के बाद के पहले दशक से ही नाटक के माध्यम से हिंदी भाषा को बढ़ावा देना चाहते थे।


    बच्चन जी ने इस क्रम में सिर्फ उन्हीं पुस्तकों का अनुवाद किया है, जो उन्हें सबसे ज्यादा पसंद थे। इन पुस्तकों के अनुवाद से उन्होंने खुद को उनके बहुत करीब महसूस किया है। किसी भी महान लेखक की कृतियों के शब्द, छंद, विचार और भावनाओं के अनुवाद के दौरान जो आनंद और सौन्दर्य की अनुभूति होती है, उसे केवल एक अनुवादक ही समझ सकता है। इसीलिए बच्चन जी ने हमेशा मूल लेखक के करीब रहने की हर संभव कोशिश की हैअनुवादक के रूप में वे एक रचनात्मक कलाकार बनकर अपने अनुवाद का काम अधिक : निस्संग रूप से कर सकते थे। अनवादक की सफलता इस बात में है कि पाठक उनके अनुवाद को पढ़ते वक्त अनुवाद महसूस न कर सके, बल्कि कोई मौलिक रचना की अनुभूति उसे होविकासशील देशों में ऐसे अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही हैअनुवाद से किसी भी भाषा की सहानुभूति शक्ति बढ़ती है। बच्चन जी का मानना रहा है कि अनुवाद दो अलग-अलग भाषाओं और संस्कृतियों के बीच समन्वय स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।


    बच्चन जी के अनुवाद में रूप और वस्तु (फॉर्म एंड कंटेंट) के संदर्भ में कुछ कहना आवश्यक है। अनुवाद स्रोत भाषा पाठ से लक्ष्य भाषा पाठ में होता है। अनुवाद के समय स्रोत भाषा पाठ को एक परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। परिवर्तन की यह प्रक्रिया रूप और वस्तु दोनों ही स्तर पर होती है क्योंकि एक संस्कृति दूसरी संस्कृति से भिन्न होती है, एक भाषा दूसरी भाषा से भिन्न होती है। रूप और वस्तु भी अलग-अलग भाषाओं और संस्कृतियों के अनुसार अलग-अलग होते हैं। इसीलिए अनुवाद के समय रूप और वस्तु का परिवर्तन अपेक्षित होता है। बच्चन जी उन अनुवादकों में से एक हैं जिन्होंने अपनी मातृभाषा में अंग्रेजी पाठ का अनुवाद किया। स्वतंत्रता से पहले उन्होंने अनुवाद का कार्य शुरू किया और उसे स्वतंत्रता के बाद एक लम्बी अवधि तक जारी रखा। इसीलिए समय के साथ-साथ अंग्रेजी और हिंदी इन दोनों भाषाओं में और उन्हें प्रयोग करने वाली संस्कृति में समय के साथ-साथ जो परिवर्तन आया, इनके अन्त:संबंधों में जो बदलाव हुआ उसे वे निरंतर लक्षित करते रहे। शायद इसीलिए बच्चन जी उन अनुवादकों में से एक हैं जो अपनी संस्कृति की आत्मा से अनुवाद को जीवंत करते रहे। उनके सारे अनुवादों को ध्यान से देखने पर यह भी लक्षित किया जा सकता है कि उनके सारे अनुवाद एक दूसरे से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं। सारे अनुवाद के अन्तःसूत्र प्रायः एक से हैं।


    बच्चन जी ने अपने कुछ लेखों में अनुवाद और रचनात्मक लेखन के उनके व्यक्तिगत सिद्धांत के बारे में लिखा है। इन लेखों में वे दिखाते हैं कि अनुवाद और रचनात्मक लेखन उनके लिए दो अलग-अलग संस्थाएं न होकर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दूसरे शब्दों में, बच्चन जी के रचनात्मक लेखन को उनके जीवन और अनुभव के फोटोग्राफिक विवरण के रूप में यदि लिया जाए तो उनके अनुवाद को उन तस्वीरों के साए के रूप में लिया जा सकता है। उदाहरण के लिए उनके निबंध "आत्मकथा लेखन की मेरी प्रक्रिया" में उन्होंने लिखा है कि आत्मकथा लिखने की प्रेरणा उन्हें तब मिली जब वे येट्स पर शोध कर रहे थे। अपने शोध कार्य के दौरान ही उन्होंने तय कर लिया था कि यदि वे कभी अपनी आत्मकथा लिखेंगे तो येट्स उनके मॉडल होंगे। उदाहरण के लिए अपने लेखन के उत्तर चरण में लिखी उनकी कृति “जाल समेटा (१९७१)" शीर्षक काव्य-संग्रह की कविताओं में हम फिट्जगेराल्ड के अंग्रेजी अनुवाद, उमर खय्याम और डब्ल्यू.बी.येट्स की कविताओं के प्रभाव को आसानी से देखा जा सकता है। उमर खय्याम की कविताएं मुख्य रूप से कारपेदियम स्वर में जवानी के महत्त्व को रेखांकित करती हैं और डब्ल्यू.बी.येट्स की कविताएँ युवा और वृद्धावस्था के बीच तनाव को दर्शाती हैं। बच्चन जी के “जाल समेटा" में इन दोनों स्वरों को एक साथ सुना जा सकता है। उदाहारण के लिए इसी संग्रह की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं।


                                            मैने सोचा था कि जवानी कायम रखने


                                                को डंबल-मुदगर काफी हैं,


                                                यह दुरुस्त रखेंगे तन को।


                                            हाय, किसी ने पहले क्यों ना बताया


                                                मन भी वृद्ध हुआ करता है?


    उपर्युक्त पंक्तियाँ येट्स की कविता ‘ए सोंग' का अनुवाद है। यहाँ हम देख सकते हैं कि युवा बने रहने और युवावस्था को बनाए रखने का आग्रह है। वक्ता डंबल और मुदगर का सहारा लेता है। वह ऐसा करता है ताकि उसका शरीर जवानी का जोश बरकरार रख सके। फिर भी, उदासी और लापरवाही की भावना उसके पास आती है जब वह समझता है कि वृद्धावस्था भी एक मानसिक अवस्था है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि शरीर को सक्षम रखने के लिए कोई कितनी मेहनत करता है। वह बुढ़ापे की मानसिक दुविधा को शारीरिक सक्षमता के सहारे पार नहीं कर सकता। उसके लिए उसे मानसिक सक्षमता की आवश्यकता होगी। अपनी कविता “बूढ़ा किसान" बच्चन जी फिर से उसी बुढ़ापे के बारे में में बात करते हैं। लेकिन यहाँ युवा और वृद्धावस्था के बीच का तनाव मौजूद नहीं है। किसान के जीवन की कमाई बुढ़ापे की भावना को मजबूत करने में मदद करती है। यहाँ वे जीवन के हिस्से के रूप में बुढ़ापे की स्वीकृति और मृत्यु को चुनौती देते प्रतीत होते हैं। दूसरे शब्दों में यह कविता वृद्धावस्था का उत्सव है और यह येट्स की कविता के अनुवाद के बाद की लगती है।


    उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि बच्चन जी द्वारा किए गए सारे अनुवाद किसी खास प्रयोजन और अनुवाद के उनके निजी सिद्धांतों के आधार पर किए गए है। उन अनुवादों ने न केवल उनके व्यतिगत जीवन को गहरे रूप से प्रभावित किया है, बल्कि इसके प्रभाव उनकी रचनाओं में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। बच्चन जी ने जिन लेखकों का हिंदी में अनुवाद किया है, उन्हें सिर्फ पढ़ा भर नहीं था, बल्कि उन्हें जीने की कोशिश की थीऐसे में आवश्यकता है कि हम उनकी रचनाओं और अनुवाद को जोड़कर पढ़ने और समझने की कोशिश करें। तभी हम उनकी कविताओं और अनुवाद के निहातार्थ को बेहतर ढंग से समझ सकेंगे।


    संदर्भ


बच्चन, हरिवंश राय, बच्चन रचनावली, खंड-४, खंड-५, खंड-६, खंड-७, खंड-८, नई दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, २००६


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