आलेख - बच्चन स्वयं निकले, पर दिल में अटका रहा इलाहाबाद - कुमार वीरेन्द्र

कुमार वीरेन्द्र - जन्म : 1974, आलोचक प्रकाशित पुस्तकें : कहे बिन रहा न जाए, हिन्दी का भविष्य : भविष्य की हिन्दी, आदिवासी विमर्श और हिन्दी साहित्य, अमृत राय : चिंतन और सृजन, छायावादयुगीन कविता पुस्तक समीक्षासंप्रति : एसोशिएट प्रोफेसर, हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज-211002


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      कविवर हरिवंश राय बच्चन सन् १९५६ में इलाहाबाद से दिल्ली के लिए निकल गए, आगे चलकर दिल्ली से बंबई के लिए निकल पड़े और फिर बम्बई से सदा के लिए निकल गए। स्वयं तो निकल गए, पर इलाहाबाद 'अनियाले तीर' की तरह उनके दिल में अटका रहा, 'जिगर के पार' न हो सका। भला हो भी कैसे, चाहनेवालों ने नसीहतें और कसमें दी थीं। उनमें से एक राय कृष्णदास भी थे, जिन्होंने २६ मार्च १९७६ को लिखे एक पत्र में नसीहत दी थी कि 'आप लोग बम्बइया हो गए, किन्तु इलाहाबाद को भी दिल के एक कोने में जगह दिए रहिए हालांकि इलाहाबाद एक ऐसा शहर है कि जिसने भी इसे छोड़ा उसको इलाहाबाद ने भी छोड़ दिया और जिसने इसे छोड़कर भी न छोड़ा, उसको यह भी नहीं छोड़ताहक़ीक़तन इलाहाबाद आदमी को अपनी गहरी गिरफ्त में ले लेता है। बच्चन इलाहाबाद से भागे, लेकिन आत्मकथा कहने जब-जब बैठे तब-तब मुड़-मुड़ कर उन्होंने इलाहाबाद को देखा, फिर-फिर याद किया या कहिए कि फिर-फिर जीने-जूझने की कोशिशें की। यहाँ तक कि बच्चन यात्रा पर भी निकले तो इलाहाबाद की स्मृतियाँ आगा या पीछा करती रहीं या कौंधती रहीं। सन् १९७९ में जब वह सपरिवार दार्जिलिंग गए तो कंचनजंघा की चोटियों की खूबसूरती पर फ़िदा होने के लिए उन्होंने पंत को याद किया। पंत के 'स्वर्णकिरण' की ये पंक्तियाँ उनके कानों में गूंज उठीं- 'मानदंड भू के अखंड हे/पुण्य धरा के स्वर्गारोहण प्रिय हिमाद्रि, तुमको हिमकण से/घेरे मेरे जीवन के क्षण/कब से शब्दों के शिखरों में तुम्हें चाहता करना चित्रित/शुभ शांति में समाधिस्थ हे/शाश्वत सुन्दरता के भूमृत!'


    ___हॉलैंड की यात्रा पर गए तो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हॉलैंड हॉल छात्रावास में बिताए गए दिन बहुत याद आए। शोध करने कैम्ब्रिज गए तो उन्हें इलाहाबाद ही याद आता रहा, उन्होंने लिखा कि 'लिखता हूँ अपनी लय-भाषा सीख इलाहाबाद नगर से।' इलाहाबाद की अनुभूति के क्षण घड़ी की सुई से नहीं नपते। बच्चन ने लिखा 'अनुमानो उसकी गहराई मत मेरी इस अल्प गगर से।'


    दिल्ली के बुलावे पर हरिवंश राय बच्चन इलाहाबाद के 'दशद्वार' से फरवरी १९५६ में निकले, दस बरस विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषाधिकारी के पद पर रहे और छह वर्ष राज्यसभा के मनोनीत सदस्य के रूप में। 'दशद्वार', १७ क्लाइव रोड, इलाहाबाद से हरिवंश राय बच्चन ने विदा ली तो ड्राइवर की सीट तेजी बच्चन ने संभाली, वह स्वयं बगल में बैठे, अमिताभ-अजिताभ पीछे की सीट पर बैठे और नीलनवेली छोटी-सी फोर्ड प्रिफेक्ट कार पहली बार दिल्ली तक की चार सौ मील लम्बी यात्रा पर हुंकार देकर चल पड़ी। पीछे उडते धलि-कणों में जैसे बच्चन के पिछले अड़तालीस वर्षों की स्मृतियाँ ही उन्हें पिछुआने का असफल प्रयत्न करने लगी। बच्चन उसी ग्रैंड ट्रंक रोड (जिसे पहले पहल शेरशाह सूरी ने बनवाया था), पर चल पड़े, जिससे होकर सदियों पहले उनके पूर्वज मनसा और उनकी पत्नी संभवतः तिलहर से इलाहाबाद चक तक भूखे-प्यासे, पाँव-पियादे आए होंगे ।


      २२ फरवरी १९५६ को इलाहाबाद को अलविदा कहने के पूर्व २१ फरवरी को बच्चन ने सपरिवार कार से इलाहाबाद की परिक्रमा की, उन स्थलों की परिक्रमा, जिनकी स्मृतियाँ सदैव उनका पीछा करती रहीं-सेंट मैरीज़ कॉनवेंट (जहाँ अमिताभ-अजिताभ ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा शुरू की थी), बरार नर्सिंग होम (जहाँ अमिताभ पैदा हुए थे), पुरानी कायस्थ पाठशाला (जहाँ हरिवंश राय बच्चन ने छठे दर्जे से आरम्भ करके हाई स्कूल तक की परीक्षा पास की थी), मुहल्ला चक (जन्म से लेकर प्रथम विवाह तक की उनकी क्रिया-कलाप भूमि), चकेश्वरी देवी मंदिर (बच्चन के पुरखे मनसा का इलाहाबाद में प्रथम शरण स्थल), मुट्ठीगंज (जहाँ बच्चन के पिताजी ने मकान बनवाया था, जिसमें उन्होंने 'प्रारंभिक रचनाएँ' से लेकर 'एकांत संगीत' तक की रचना की थी और उल्लास-अवसाद के बहुतेरे प्रसंगों से दो-चार हुए थे), जमुना पुल (जिस पर वे सैकड़ों बार तरह-तरह के मूड में घूमेफिरे थे), बाई का बाग (जहाँ उनकी प्रथम पत्नी श्यामा का मायका था), राम बाग (जहाँ उनके परबाबा मिट्ठलाल का बनवाया शिव मंदिर था), गवर्नमेंट कॉलेज (जहाँ से उन्होंने इंटर की परीक्षा दी थी), जगत तारन स्कूल (जहाँ तेजी बच्चन ने कुछ दिनों तक अध्यापन किया था), कमला नेहरू अस्पताल (जहाँ अजिताभ पैदा हुए थे), आनन्द भवन (जहाँ सरोजिनी नायडू ने नेहरू-परिवार से इनकी मैत्री कराई थी), इलाहाबाद विश्वविद्यालय (जहाँ उन्होंने अध्ययन-अध्यापन किया था), कुंडू बाग (जहाँ के एक मकान में तेजी लाहौर से पहली बार आकर ठहरी थीं और जहाँ से बच्चन-तेजी का विवाह हुआ था और जहाँ पास के एक-दूसरे मकान में इन्होंने अपने 


वैवाहिक जीवन का प्रथम वर्ष बिताया था), एडेल्फी ((जहाँ रहते हुए उन्होंने प्रथम स्वाधीनता दिवस मनाया था, जहाँ विभाजन के फलस्वरूप तेजी बच्चन के कई रिश्तेदारों ने पंजाब से भागकर शरण ली थी, जहाँ महात्मा गाँधी की हत्या का हृदयविदारक समाचार उन्होंने सुना था और जहाँ उन्होंने उनके बलिदान से संबंधित 'सूत की माला' और 'खादी के फूल' की रचना की थी), पायोनियर प्रेस बिल्डिंग (जहाँ बच्चन के पिताजी ने १६ वर्ष की उम्र से लेकर ६० वर्ष की अवस्था तक क्लर्की में बिताई थी), ८-ए, बैंक रोड (जहाँ सुमित्रानंदन पंत पहली बार बच्चन परिवार के साथ रहने को आए थे और जहाँ अमिताभ ने अपने जीवन के शुरुआती दो वर्ष देखे थे और यहीं अमिताभ की एक गंभीर बीमारी के दौरान बच्चन जी ने आजीवन मदिरा न छूने का व्रत लिया था), दिलकुशा (जहाँ कुछ समय वे कवि नरेन्द्र शर्मा के साथ रहे थे), बेली रोड (जहाँ वसुधा' में बच्चन जी कविवर सुमित्रानंदन पंत के साथ कुछ समय ठहरे थे और जहाँ रहते हुए इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में उनका अध्यापकीय जीवन आरंभ हुआ था), फाफामऊ पुल (जिस पर से न जाने कितनी बार उन्होंने गंगा के ऊपर सूर्योदय और सूर्यास्त का दृश्य देखा था और आधी रातों को चाँद-तारों की छाया में गंगा की लहरों का झलझल विलास भी और जिस पर तेजी बच्चन के साथ उन्होंने कई वासंती शामें बिताई थीं), ब्वायज़ हाई स्कूल (जहाँ अमिताभ-अजिताभ पढ़ रहे थे), स्ट्रेची रोड (जहाँ अमिताभ की तीसरी-चौथी वर्षगांठ मनाई गई थी और जहाँ इंदिरा गाँधी अपने सुपुत्र राजीव गाँधी को लेकर आईं थीं और जहाँ बच्चन ने 'सतरंगिनी' के कई  गीत लिखे और जहाँ 'नागिन' पर तेजी बच्चन ने नृत्य किया था और जहाँ रहते बच्चन जी की माँ का निधन हुआ था) और ऑल इंडिया रेडियो (जहाँ पंत के साथ बैठकर हिन्दी प्रोड्यूसर के रूप में कार्य किया) की स्मृतियों को संजोते- देखते-निहारते वह 'दशद्वार' लौटे और दूसरे दिन सुबह दिल्ली के लिए निकल गए।


      मंत्रालय में हिन्दी के बढ़ते हुए काम को देखते हुए बच्चन जी ने हिन्दी अनुभाग में एक सहायक अनुवादक की नियुक्ति करा लीइस पद पर उन्होंने इलाहाबादी पहचान के अजित कुमार (जो पहले अजित शंकर चौधरी थे और किरोड़ीमल कॉलेज में हिन्दी के लेक्चरार थे) की नियुक्ति कराई। यह वही अजित कुमार थे, जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बच्चन जी की कक्षा के विद्यार्थी रहे थे और कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा के सुपुत्र थे और लड़कपन उन पर महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की छाया भीपड़ी थी। निराला की छाया पड़ना स्वाभाविक था क्योंकि कुछ दिनों के लिए निराला अजित कुमार के माता-पिता के साथ उन्नाव में रहे थे और वहीं रहते हुए निराला ने 'कुकुरमुत्ता' शीर्षक कविता लिखी थी और इसका प्रथम प्रकाशन अजित कुमार के पिता राजेन्द्र शंकर चौधरी ने युगमंदिर (उन्नाव) से कराया था। जिस निराला की छाया अजित कुमार पर पड़ी थी, उस निराला को बच्चन जी भली-भाँति जानते थे। एक बार निराला ने बच्चन को कुश्ती के लिए ललकारा था, अमृतलाल नागर चश्मदीद गवाह थे कि बच्चन ने यह कहकर अपने को बचाया था कि 'मैं तो आपका चरण छूने के योग्य भी नहीं हूँ, आपसे कुश्ती क्या लडूंगा' इसके पहले बच्चन ने निराला का लिखा यह वाक्य अवश्य पढ़ लिया था कि 'जब रवीन्द्रनाथ के राजसूय यज्ञ की यश: अश्व बंगाल से छूटा तो उसे मैंने गढ़ाकोला में पकड़ा।' बच्चन ने आत्मकथा में लिखा है कि आधुनिक हिन्दी में दो साहित्यकारों के चरित्र बड़े विचित्र, बीहड़, बेहंगम और बेढंगे थे। उनमें एक थे 'निराला' और दूसरे थे 'उग्र'। मध्ययुगीन वर्जनाओं, निषेधों, दमनों, कुंठाओं का चरम पर पहुँचकर जहाँ विस्फोट हुआ था, वहीं इन दो विभूतियों ने अवतार लिया था। उनके प्रति मन में आदर का भाव भी उठता और उनसे डर भी लगता था। कभी-कभी उन पर क्रोध और यदा-कदा उनसे घृणा भी हो सकती थी, पर उनकी उपेक्षा किसी हालत में नहीं की जा सकती थी।'


    बच्चन सुमित्रानंदन पंत को भी पसंद करते थे और उन्हें 'कवियों में सौम्य संत' मानते थे। सन् १९६४ में बच्चन की कविताओं का संकलन 'अभिनव सोपान' शीर्षक से प्रकाशित हुआ, इसकी भूमिका पंत ने लिखी थी। पंत जी की स्वर्ण जयंती पर बच्चन ने 'दशद्वार' (१७ क्लाइव रोड, इलाहाबाद) के लॉन पर एक उत्सव का आयोजन किया था। इस अवसर पर डॉ. रामकुमार वर्मा ने कहा था कि 'हमारी शुभकामना है कि पंत जी सौ बरस जिएं और इसी प्रकार हम उनकी शतवार्षिकी मनाएं।' बच्चन जी ने मजाक में कहा था कि 'पंतजी तो ब्रह्मचारी हैं, शायद सौ बरस जी भी जाएं, पर हम उनके सौ बरस पूरे करने तक कहाँ जीने वाले हैं,' काल की विडंबना कि पंतजी बच्चन और रामकुमार वर्मा के पहले चले गए। पंत की चुनी हुई कविताओं का संकलन बच्चन जी के संपादन में राजपाल एण्ड सन्ज से निकला, जिसमें बच्चन ने २५-३० पृष्ठों की भूमिका लिखी और पंत का जीवन क्रम, रचना क्रम आदि व्यवस्थित ढंग से परिशिष्ट में लगाया। सन् १९६१ में बच्चन जी ने 'त्रिभंगिमा' काव्य-संग्रह का प्रकाशन किया। इसमें पंत ने पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित अपनी कविताओं को चुनकर संगृहीत किया। वे कविताएं तीन प्रकार की थीं-छन्दोबद्ध, मुक्त छन्द और लोकधुनों पर आधारित। बस, इसी बात को ध्यान में रखकर संग्रह का नाम दे दिया 'त्रिभंगिमा'। बच्चन ने 'त्रिभगिमा' अपने तीन इलाहाबादी अग्रजों को ही समर्पित किया-


                             'कवि-शार्दूल निराला


                                कवि-श्री महादेवी


                           और संतों में सुमधुर कवि


                                 सुमित्रानंदन पंत


                                        को'


        सन् १९६१ में ही हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से 'आधुनिक कवि' ग्रंथमाला के अंतर्गत बच्चन की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन प्रकाशित हुआ, जिसकी भूमिका स्वयं बच्चन ने लिखी हालांकि यह संकलन आज भी प्रचलन में है, लेकिन इसे अब प्रतिनिधि कविताओं का संकलन कहना मुनासिब न होगा क्योंकि बच्चन ने सन् १९६१ के बाद भी कई अच्छी कविताएं लिखीं, जो इसमें शामिल नहीं हैं।


    सन् १९६३ में बच्चन जी एक सप्ताह की छुट्टी लेकर इलाहाबाद इसलिए आए कि उनके ७५ वर्षीय मामा विध्येश्वरी प्रसाद जी, जो कि इलाहाबाद के पुराना कटरा में रहते थे, की मृत्यु हो गई थी। पंत जी के साथ ठहरकर उन्होंने मामा जी की इच्छानुरूप 'उनकी पाई-पाई दान-पुन्न में लगा दी' तथा इलाहाबाद कचहरी के आधे दर्जन बार चक्कर लगाकर मामा जी के मकान का उत्तराधिकार प्राप्त किया और मय सरोसामान आठ हजार रुपए में बेचकर दिल्ली वापस चले गए, हाँ मामा जी की दो-तीन प्रिय पुस्तकें बच्चन जी अवश्य लेते गए। मई १९६४ में जवाहर लाल नेहरू की अस्थियां संगम में विसर्जित की गई, अस्थि-विसर्जन के लिए प्रयाग आने वाली गाड़ी में बच्चन जी भी आए, उधर कलकत्ता से अमिताभ बच्चन भी आए थे।


    ____ बच्चन जी पंत के साथ कुछ समय रहे, इलाहाबाद जब-जब आए पंत के साथ ठहरे, पंत की कविताओं को खूब पसंद किया, उन्हें कवियों में सौम्य संत कहा, पंत ने सर्वाधिक पत्र बच्चन को ही लिखे। पर जैसा कि इलाहाबाद का मिज़ाज़ है, ठठाकर हंसना और कुप्पा की तरह गाल फूलाना दोनों क्रियाएं एक ही समय पर केवल यहीं संभव है, यहाँ दोस्ती और दुश्मनी एक ही साथ होती है या हो सकती है, 'तुम्हीं से मुहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई।' पंत ने बच्चन पर मुकदमा किया और बच्चन को कचहरी के चक्कर लगाने पडेदोनों के बीच तिरसठ था, छत्तीस हो गया। सन् १९७० में पंतजी की ७०वीं वर्षगांठ के अवसर पर बच्चन ने 'बच्चन के नाम पंत के सौ पत्र' प्रकाशित किए। इसके पहले पंत की हीरक जयंती पर बच्चन ने पंत के सवा सौ (१२७) पत्रों को 'कवियों में सौम्य संत' नाम से प्रकाशित किया था। पंत के साथ बच्चन जी की तीस वर्षों की मैत्री थी और इस अवधि में बच्चन को पंत जी ने तकरीबन ७०० पत्र लिखे थे। अनुमान है कि मित्रता के स्तर पर इतने पत्र न तो पंतजी ने किसी और को और न ही बच्चन ने किसी और को लिखे होंगे। बच्चन ने पंतजी के हर पत्र को इसलिए प्रकाशित कर देना चाहा कि पंत जैसे रचनाकार को समझने की आवश्यकता भविष्य समझेगा और उनके पत्रों द्वारा उनके चरित्र का एक बड़ा स्वाभाविक और सच्चा रूप उद्घाटित हो सकेगा। पूर्व में प्रकाशित किए गए तकरीबन सवा दो सौ पत्रों के बाद के पत्रों को पंत की इकहत्तरवीं वर्षगांठ पर बच्चन ने सन् १९७१ में 'पंत के दो सौ पत्र' प्रकाशित किए।


    पंत जी ने इस पर एतराज करते हुए बच्चन को पत्र लिखा कि 'संकलन में से १० पत्र या तो निकाल दिए जाएं या उनमें से कुछ अंश, जो वे कहें हटा दिए जाएं-पत्रों से उन अंशों को बिना निकाले पुस्तक बाजार में न आने दी जाए।' लेकिन बच्चन जी इसके लिए तैयार न हुए और पंत को लिखा कि 'मेरी दृष्टि में पत्रों का महत्त्व इस बात में है कि वे जैसे लिखे गए हैं, उनको उसी रूप में छापा जाए। आप पत्रों को 'सेंसर' करके छापने के पक्ष में हैं। आइए हम असहमत होने के लिए सहमत हों। अगर आपके पास मेरे पत्र पड़े हों और आप उन्हें कभी छापना चाहें, तो मैं कभी आप से नहीं कहूँगा कि पहले मुझे उन्हें सेंसर करने दीजिए। बच्चन के दाग, दोष, कमियाँ, त्रुटियाँ, शैतानियाँ संसार को मालूम ही हो जाएंगी, तो क्या? न देगी दुनिया जो देती रही हो, बस न। (अगर) 'सौ पत्र' की कुछ बातों से कुछ लोग नाराज़ हो गए आपसे, तो क्या बिगड़ गया आपका? और दो सौ पत्रों से भी कुछ 'लोग बिगड़ेंगे, तो आपका क्या बिगाड़ लेंगे।'


    इससे पंत जी बेहद नाराज़ हुए और अपने वकील के माध्यम से इलाहाबाद, जिला जज की कचहरी में बच्चन जी के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया और वकालतनामे में बच्चन जी के पिता के नाम के आगे लिख दिया- 'Father's name not known' (पिता का नाम अज्ञात), जबकि 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' इसके दो वर्ष पहले निकल चुकी थी और उसकी एक प्रति पंतजी के पास मौजूद थी, जिसमें बच्चन जी के पिताजी का पूरा विवरण उपलबध था। पंतजी ने उस वकालतनामे में यह लिखा था कि - 'पंत के दो सौ पत्र' उनकी साहित्यिक कृतियाँ हैं, कि उनपर उनका कॉपीराइट है, कि ये पत्र बिना उनकी अनुमति के छापे गए हैंउन्हें छापने की जो अनुमति उन्होंने १९६० में दी थी, वह सिर्फ़ १९६० तक के पत्रों के लिए थी, कि जो पत्र 'पंत के दो सौ पत्र' में छापे गए हैं, वे १९६२ से १९६७ तक के हैं जिनके लिए पहली अनुमति लागू नहीं होती, कि बच्चन ने पत्रों को प्रकाशित कर अवैध लाभ उठाना चाहा है, कि प्रकाशन से जो लाभ हो उसके हक़दार सुमित्रानंदन पंत हैं, इसलिए कचहरी की ओर से संकलनकर्ता (बच्चन) और प्रकाशक (सुरेन्द्र कुमार, प्रोप्राइटर, सन्मार्ग प्रकाशन, दिल्ली) पर यह स्थाई प्रतिबंध लगाया जाए कि वे पुस्तक बाज़ार में न बिकने देंऔर आगे वे सुमित्रानंदन पंत के कोई पत्र न तो प्रकाशित करें और न मूल पत्रों को किसी संग्रहालय को दें(बच्चन ने भूमिका में लिखा था कि मैं पंतजी के मूल पत्रों को किसी अच्छे संग्रहालय को देना चाहता हूँ, यदि उनकी इसमें रुचि हो, साथ ही यदि वह उनको सुरक्षित रखने का आश्वासन दे सके)।


    मुकदमा दायर करने और प्रतिबंध लगवाने की ख़बर पंतजी ने समाचार पत्रों में छपा दी। फिर बच्चन को सम्मन मिला कि फलाँ तारीख को इलाहाबाद जिला जज की कचहरी में हाजिर हों। बच्चन जी इलाहाबाद आए और वकील के माध्यम से हलफ़नामा बनाकर कचहरी में दाखिल कर दिया कि १९६० में जो अनुमति पंतजी ने दी थी, वह केवल १९६० तक के पत्रों के लिए नहीं थी, बाद के पत्रों के लिए भी थी, कि १९६० के बाद के पत्र तो 'पंत के सौ पत्र' में ही थे, पर प्रकाशन के साल-भर बाद भी उन्होंने उस पर कोई आपत्ति न की थी, कि अगर यह मान भी लिया जाए कि अनुमति केवल १९६० तक के पत्रों के लिए थी, तो १९७० के एक पत्र में उन्होंने अपनी अनुमति दुहराई थी और दो सौ पत्र केवल १९६२ से १९६८ तक के पत्र हैं, कि अनुमति देते समय न तो उन्होंने उन्हें संशोधित कर छपाने की बात लगाई थी और न अपने कॉपीराइट अधिकार से रॉयल्टी पाने की, फिर भी अगर वे रॉयल्टी चाहते हैं, तो मैं देने के लिए तैयार हैं। संशोधित कर पत्रों को छपाने के लिए मैं तैयार नहीं हूँ और ख़ासकर तब, जब वे स्वयं अपने पत्रों को अपनी 'साहित्यिक कृति' कहते हैं। हाँ, अगर वे चाहते हैं कि आगे मैं उनके पत्र न प्रकाशित कराऊँ, तो मैं नहीं कराऊँगा, पर जब वे कहते हैं कि उसे किसी संग्रहालय को भी न दूँ, तो वे शायद अपने अधिकार के बाहर की बात करते हैं। बहरहाल अभी मेराइरादा उन्हें किसी संग्रहालय को देने का नहीं है, और इस संबंध में मैं पंत जी का आदेश मानने को बाध्य नहीं हूँ।' पर उस दिन पंत जी कचहरी में हाज़िर नहीं थे और उनके वकील ने मुकदमे की तारीख बदलवा दी। इस बीच पंतजी ने सन्मार्ग प्रकाशन के स्वामी सुरेन्द्र कुमार के पिता प्रेमनाथ को इलाहाबाद बुलाकर उनसे एक समझौतानामा लिखा लिया, जिसके अनुसार प्रेमनाथ ने वादा कर लिया कि वे 'पंत के दो सौ पत्र' से वे अंश निकाल देंगे, जो पंत जी कहेंगे। इस आधार पर पंतजी ने मुकदमा वापस लेने की अर्जी कचहरी में दे दी। बच्चन जी के वकील ने यह आपत्ति की कि बच्चन जी (प्रतिवादी) ने अनुबंध सुरेन्द्र कुमार से किया था, प्रेमनाथ से नहीं, इसलिए वह समझौतानामा की शर्ते मानने के लिएबाध्य नहीं हैं। इस पर भी पंतजी ने अपना पक्ष कमजोर पड़ता देखकर-मुकदमा वापस लेने का ही फैसला किया। फलस्वरूप 'पंत के दो सौ पत्र' से एक अक्षर नहीं हटाया गया, वह पुस्तक मूल रूप में बिकती रही। नियति ने दो कवियों के बीच यह विचित्र खेल किया, दोनों के बीच की आत्मीयता खत्म कर काँटा बो दिया।


    वर्ष २००३ के जनवरी महीने के एक दिन शिक्षकों, कर्मचारियों, विद्यार्थियों, बुद्धिजीवियों ने लगातार इंतजार किया। शिक्षकों, कर्मचारियों, विद्यार्थियों ने अंग्रेजी विभाग के इर्द-गिर्द और बुद्धिजीवियों, नागरिकों ने सड़कों के इर्द- गिर्द बिना कुछ खाए-पिए पूरे दिन पल-पल इंतजार कियाइलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रावासों के अंत:वासी और डेलीगेसी के पुरावासी बार-बार अपनी निगाहें अंग्रेजी विभाग के सामने वाले मुख्य द्वार पर उठाते-टिकाते-दौड़ाते-गिराते रहे, एक अंबेसडर कार आकर अंग्रेजी विभाग के निकट रूकी, लोग उधर की ओर भागे, लपके, झाँके, पर कार में वह या उनका कुछ न दिखा, जिसके इंतजार में सुबह से शाम हो गई थी। ख़बर बीती रात ही फैली थी कि हरिवंश राय बच्चन का अस्थि-भस्म संगम में प्रवाहित किए जाने के पूर्व अंग्रेजी विभाग लाया जाएगा और उसे लेकर स्वयं अमिताभ बच्चन आ रहे हैं। पर ख़बर-खबर भर ही रह गई और हजारों प्रशंसक बच्चन जी के अस्थि-भस्म को अंतिम प्रणाम निवेदित करने से वंचित रह गए। शहर के नागरिकों ने अस्थि-कलश को अंतिम प्रणाम अवश्य निवेदित किया क्योंकि बच्चन जी की अस्थियां बम्हरौली हवाई अड्डे से सीधे संगम तट ले जाई गईं। बच्चन जी की कविताई के दीवानों ने उस दिन पाया कि इलाहाबाद की सभी प्रमुख होर्डिंग पर बच्चन की काव्य पक्तियों वाले फ्लैक्स लगे हुए हैं। इलाहाबाद शहर के हर छोटी-बड़ी सड़क के किनारे लगाए गए फ्लैक्स-बैनर पर प्रायः पक्तियां वहीं थीं, जो इलाहावादियों की ज़बान पर पहले से चढ़ी हुई थीं, 'राह पकड़ा एक चला चल' जैसी पंक्तियाँकिसी अन्य कवि के दिवंगत होने पर इलाहाबाद ने काव्यपंक्तियों से युक्त होर्डिंग पहले कभी न देखा था। हालांकि यह साहित्यकारों का ही शहर रहा है।


    सन् १९५६ के बाद हरिवंश राय बच्चन ठीक से इलाहाबाद कभी न आए। सन् १९८४ के लोकसभा के चुनाव के दरम्यान अमिताभ बच्चन के लिए जन-समर्थन जुटाने महज सप्ताह भर के लिए भले वह यहाँ आए, पर इसका साहित्यिक प्रयोजन न था। और न ही वह इलाहाबद में क्लाइव रोड स्थित ब्रजमोहन व्यास के उस मकान में गए, जहाँ किराए पर रहते हुए उन्होंने उसका नाम 'दशद्वार' रखा था। हाँ, मामा के मकान का उत्तराधिकार प्राप्त करने और पंत द्वारा किए गए मुकदमे में हाजिरी लगाने कचहरी अवश्य आए।


    दिल्ली के बुलावे पर बच्चन जी फरवरी १९५६ में ही इलाहाबाद के 'दशद्वार' से निकल गए थे। आम तौर पर मनुष्य अपनी जन्म-स्थली या कर्मस्थली से निकलता है या विदा लेता है तो उसे पीडा होती है, पर बच्चन जी को इलाहाबाद छोड़ने में आत्मिक संतोष की अनुभूति हुई, मानो वह इसकी प्रतीक्षा' ही कर रहे हों। बम्बई स्थित अपने घर का नाम 'प्रतीक्षा' उन्होंने अकारण नहीं रखा था।


    दिल्ली के बुलावे की खशी का बीज इलाहाबाद की उपेक्षा में निहित था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने तो कई रूपों में उनकी उपेक्षा की ही थी, इलाहाबाद की साहित्यिक बिरादरी ने भी उन्हें उस समय वह मान न दिया, जिसके वे हक़दार थे। वो तो युवा थे, जनता थी, जिसने बच्चन को जी भर कर सुना भी और मन भर कर देखा भी। उनके विद्वेषी तो अत्यंत निम स्तर पर उतर पड़े थे, यहाँ तक कि जब वे कैम्ब्रिज से पी-एच.डी. की उपाधि लेकर लौटे तो वेतनवृद्धि भी नहीं की गई, जिसमें यह दुर्भावना अंतर्निहित थी कि 'बेटा, तुमने बहुत बड़ा खर्च उठाया, बड़ी मेहनत की, तुम्हारे परिवार ने शारीरिक कष्टों और मानसिक तनावों के दिन बिताए, पर आर्थिक दृष्टि से तुम्हारा मूल्य कानी कौड़ी भी नहीं बढ़ा।'


    इस मर्मांतक अनुभूति के बीच जब उन्हें आकाशवाणी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ड्योढ़ा वेतन (७५० रुपए प्रति माह) देकर इलाहाबाद केन्द्र का प्रोड्यूसर पद दिया, तो उन्होंने फौरन उसे संभाल लियाहालांकि इलाहाबाद विश्वविद्यालय छोड़ने में उन्हें अर्द्धसंतोष हुआ। वह तो इलाहाबाद नगर ही छोड़ना चाहते थे। वह इसलिए कि उनके परिवार को निन्दित-लांछित किया गया, मनगढंत कलंक आरोपित किए गए, व्यंग्य, उपहास और अपमान का पात्र समझा गया। यहाँ तक कि उनकी पहली पत्नी श्यामा की अर्थी को कंधा देने गाँव वाले भी न आए। तेजी से शादी करने पर गाँव वालों ने पांत-भात से अलग किया सो तो अलग। यहाँ तक कि इलाहाबाद के कुछ बैरियों की ज़बानें और कलमें तेजी और बच्चन पर तो चली ही, नवजात अमिताभ भी न बख्शे गए। एक दोहा छपा, पढ़ाया-सुनाया गया- 'बच्चन के बच्चा हुआ नाम हो बच्चू सूर/माँ और बाप के नाम की छाप रहे भरपूर।' जब १९३३-३४ में 'मधुशाला' लेकर बच्चन जी काव्य-क्षेत्र में उतरे तो फिर मज़ाक उड़ाया गया। 'अभ्युदय' ने तो इलाहाबादी अंदाज में खैयाम बनने की ख्वाहिश करार देते हुए एक विस्फोटक लेख ही छाप दिया, जिसका शीर्षक था 'घुरन के लत्ता कनातन से ब्योंत बांधे।' इलाहाबाद में किसी ने 'अभ्युदय' के इस मत का खंडन तक न किया। भला हो, बनारसी दास चतुर्वेदी का, जिन्होंने 'विशाल भारत' में कलकत्ते से 'मधुशाला' की तारीफ की। इसलिए जब मौका मिला बच्चन ने इलाहाबाद रेडियो स्टेशन में हिन्दी प्रोड्यूसर की हैसियत को छोड़ते हुए १००० (एक हजार) रुपए प्रतिमाह की पगार पर विशेष कार्याधिकारी-हिन्दी (ओएसडी-हिन्दी) का दायित्व संभालने दिल्ली स्थित विदेश मंत्रालय में चले गए। यह प्रोफेसरी नहीं थी, पर सम्मानजनक तो थी। कभी-कभी लगता है कि कभी-कभार वह चीज उस जगह पर नहीं रह पाती, जिस जगह पर होनी चाहिए थी। कहाँ तो बच्चन ने कैम्ब्रिज से डॉक्ट्रेट की डिग्री ली, वह भी ऐसी डिग्री (कैम्ब्रिज से) लेने वाले वे दूसरे हिन्दुस्तानी थे, पचास की उम्र थी, अनुभव था। उन्हें तो अंग्रेजी विभाग का अध्यक्ष होना चाहिए था न कि मंत्रालय में 'बाबू'। लेकिन 'अध्यक्ष' बनाने-मानने की कौन सोचे? उनके लेक्चरार होने पर ही सवाल उठाए जाते थे, वह भी हिन्दी के कंधे पर रखकर, मसलन-'बच्चन हिन्दी के चोर दरवाजे से अंग्रेजी विभाग में घुस आए हैं।' गनीमत है कि इलाहाबाद की हिन्दी और देश के साहित्य ने उन्हें अपना मान लिया इसलिए वे हिन्दी में आज तक समादत हैं, वर्ना अंग्रेजी ने तो उनकी मिट्टी-मंजिल कर दी थी। पता नहीं अंग्रेजी को वह कौनसा रोग है, जिसके कारण वह अपनों से भी पराया-सा और परायों से भी पराया-सा व्यवहार करती है। कमोबेश ऐसा ही व्यवहार अंग्रेजी ने फ़िराक़ गोरखपुरी और राम विलास शर्मा के साथ भी किया। हिन्दी के सुमित्रानंदन पंत, जिनकी कविता को बच्चन स्मृति का वरदान मानते थे, ने उनके व्यक्तित्व को ऐसे देखा-दिखाया, जिसकी कल्पना अंग्रेजी वाले न कर पाए-'घुमड़ रहा था ऊपर गरज जगत-संघर्षण/उमड़ रहा था नीचे जीवन वारिधि-क्रंदन/अमृत हृदय में, गरल कंठ में, मधु अधरों में/आए तुम वीणा धर कर में जनमन-मादन।' अच्छा, ऐसा भी नहीं है कि सभी हिन्दी वाले बच्चन-बच्चन ही कर रहे हों। जब सन् १९३३ में 'सरस्वती' में और सन् १९३५ में 'मधुशाला' पुस्तक शक्ल में आई तो कुछ हिन्दीमठाधीशों ने 'हालावाद' कहकर 'मौज-मस्ती' भर में इसे समेट-सिकोड़कर रख दिया। वैसे तो इलाहाबाद प्रतिभा-प्रसू शहर है लेकिन प्रतिभाओं को यथोचित आदर देने में बहुत कृपण भी है। यह बात दीगर है कि जिस सन् १९०७ में बच्चन जी का जन्म (२७ नवंबर को) हुआ, उस सन् में दो हिन्दी वाले और पैदा हुए महादेवी वर्मा और हजारी प्रसाद द्विवेदीमहादेवी तो इलाहाबाद में बच्चन को देख-समझ भी रही थीं, पर महादेवी ने बच्चन को 'पथ का साथी' नहीं समझा। समझती भी क्यों? बच्चन ने अपने नव प्रयोगों से छायावाद की आभिजात्यता को तोड़कर कविता को लोकभाषा की लय से संपन्न-समर्थ जो बनाया था। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बनारस में रहकर भी बच्चन को पहचान लिया-'छायावादी कवियों ने लाक्षणिक वक्रता से भाषा को दुरूह बना दिया था, 'बच्चन' बहुत ही लोकप्रिय हुए 'निशा निमंत्रण' में उनकी अनुभूतियों की तीव्रता और भावों की सांद्रता ने उन्हें सहृदयों का प्रशंसा भाजन बनाया। बच्चन की कविता में जिस क्षणिक उल्लास की मस्ती का प्रचार किया गया था, उससे कुछ लोग अप्रसन्न भी थे। शायद उपहास के लिए ही शुरू-शुरू में इसे 'हालावाद' नाम दे दिया गया था। वस्तुतः यह हाला एक प्रतीक मात्र है जो तत्कालीन प्रचलित झूठी आध्यात्मिकता के प्रतिवाद का एक प्रतीक मात्र था। मूलतः बच्चन की कविता मस्ती,  उमंग और उल्लास की कविता है। अनुभूतियों की तीव्रता भी उसका एक विशिष्ट गुण है।' यह कारण नहीं है कि बच्चन ने विनम्रतापूर्वक स्वयं स्वीकार किया कि 'जितना मैंने हिन्दी से पाया है उसका एक करोडवां हिस्सा भी नहीं दे सका हूँ।'


    सच पूछा जाए तो अधिक से अधिक हिंदी पाठकों और श्रोताओं को कविता का चस्का लगाने का जितना श्रेय बच्चन को जाता है उतना किसी और को नहीं। दिनकर जो कि बच्चन के समकालीन थे, उन्होंने भी यह काम बढ़-चढ़कर कियाथा। हाँ, यह अलग बात है कि बच्चन ने गंभीर सैद्धांतिक चिंतन में दिनकर की तरह अपने को नहीं लगाया-खपाया। अज्ञेय ने यही सब देखकर कहा था- 'एक ओर मैं हूँ, जो इधर-उधर भागता हुआ भटक रहा हूँ। दूसरी ओर बच्चन जी जैसे सिद्ध पुरुष हैं, जिन्होंने धर्म, राजनीति, चाकरी, जीवन की जटिलता आदि तूफानों से गुजरकर भी अपने सच्चे लक्ष्य को कभी निगाह से ओझल नहीं होने दिया, उल्टे इन सबका उपयोग किया, अपनी रचना को अधिकाधिक संपन्न बनाने के लिए।


    कंटकाकीर्ण जीवन के संघर्षमय मोडों पर दर्धर्ष जिजीविषा उन्हें 'निराला' बना देती थी। बेटी सरोज के असमय गुजरने से उपजे गम से उबरने और अपनी काव्य संवेदना को बचाए रखने की जद्दोजहद के बीच निराला 'गीता' का स्मरण करते हैं-'गीते, मेरी, तज रूप नाम/वर लिया अमर शाश्वत विराम/पूरे कर शुचितर सपर्याय/ जीवन के अष्टादशाध्याय/चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण/कह-"पितः, पूर्ण आलोकवरण/करती हूँ मैं, यह नहीं मरण/'सरोज' का ज्योति:शरण: तरण!' जमाने के विरोधी तेवरों, इलाहाबाद के चौतरफा आक्रमणों ने बच्चन को खिन्न तो किया, लेकिन उनका कवि रूप और निखर गया, 'मधुशाला' को जनता ने ऐसा अपनाया कि इलाहाबाद जैसे नगर से निकलकर उसने गाँव की पगडंडियों से होते हुए लोकगीतों को भी आधार मुहैया कराया। बच्चन ने 'गीता' का स्मरण करते हुए अपनी आत्मकथा में लिखा कि 'गीता पढ़ते हुए मैं दो जगहों पर रुका। एक तो तब जब भगवान् अर्जुन से कहते हैं-अर्जुन, आत्मवान बनो अर्थात् अपने सहज रूप से विकसित गुण स्वभाव व्यक्तित्व पर टिकोदूसरी जगह जब वे कहते हैं कि गुण-स्वभाव-प्रकृति को मत छोड़ो। बच्चन जी, तुम भी आत्मवान बनो।' हेनरी जेम्स जैसे लेखक कहते थे कि हर बड़ा लेखक अपने जीवन और लेखन में जितना भी जुझारु हो, अंततः उसके भीतर मानव जीवन के प्रति एक गहरी आस्था होती है। यह गहरी आस्था बच्चन के पूरे रचना-कर्म में व्याप्त है और विनम्र अभिमान के साथ है। इसके बूते वे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं करते कि 'जनता-जनार्दन के सामने मेरी सृजनशील लेखनी ने मेरी संपूर्ण अपूर्णताओं के साथ मुझे प्रस्तुत कर दिया है।'


    बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया गया में, लेकिन पहला उपदेश उन्होंने सारनाथ पहुँचकर दिया। बच्चन ने 'मधुशाला' की रचना इलाहाबाद के कटघर (मुट्ठीगंज) स्थित मकान में की, पर इसका पहला सार्वजनिक पाठ उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में किया। हाँ, जब बनारस वालों ने सुन लिया, सराह दिया, तब इलाहाबाद ने उन्हें के.पी. कॉलेज ग्राउंड पर सुना, मैदान में जगह भर गई तो चहारदीवारी पर बैठकर सुना। वर्ना शुरू में तो इलाहाबाद ‘मधुशाला' की पैरोडी, 'चायशाला', 'गौशाला' बनाने पर उतारू था। प्रगतिशीलों, परिमलियों, प्रयोगवादियों की नापसंदगी के कारण भी बच्चन सदैव सुर्खियों में रहे। एक बार तो महात्मा गाँधी ने भी उनसे पूछ लिया था कि 'सुना है तुम अपनी कविताओं के जरिए शराब के सेवन का प्रचार करते हो?' क्या इसे 'साहित्यिक त्रासदी' कहना ठीक न होगा? क्या यह देखना ठीक न रहेगा कि बच्चन ने मंच के माध्यम से जनता-श्रोता से सीधा संवाद कायम किया? बल्कि यह कहना ज्यादा वाजिब रहेगा कि जिस दौर में नई कविता (यहाँ तक कि प्रयोगवाद) ने मंच को तिलांजलि दे दी थी और कवि सम्मेलनों में हास्य-व्यंग्य के नाम पर फूहड़ कवियों ने मंच कब्जा लिया था, उस दौर में कविता को बचाने के लिए बच्चन आगे आए और उन्होंने मंच पर कविता की गरिमा को बरकरार रखा। बच्चन मंच के माध्यम से कविता को लेकर जनता के बीच गए, जुड़े पर जनता की शर्तों पर नहीं, हिन्दी की अपनी शर्तों पर। हाँ, यह भी सच है कि भले परिमलवादियों की पसंद सूची में बच्चन का स्थान ठीक से निर्धारित न था, लेकिन सन् १९५३ में इलाहाबाद की भीषण गर्मी में 'परिमल' की एक सौ एकवीं गोष्ठी हरिवंश राय बच्चन के निवास स्थान पर ही हुई, श्रीमती तेजी बच्चन के आतिथ्य में। बच्चन ने इस अवसर पर यह कहने में कोई गुरेज न किया था कि 'मेरा सिद्धांत है कि मैं किसी संस्था का सदस्य नहीं बनूँगा, लेकिन अगर कभी मुझे अपना यह सिद्धांत तोड़ना पड़ा तो उसका मूल कारण 'परिमल' ही होगा। हिन्दी आलोचना ने बच्चन को समकालीन-कविता के परिदृश्य से लंबे समय तक प्रायः बाहर रखा, वह इसलिए कि हिन्दी आलोचना ने मंच की कविता और वास्तविक कविता के बीच एक परोक्ष विभाजन कर रखा था। इस मामले में हिन्दी आलोचना ने उर्दू से कुछ नहीं सीखा। उर्दू में जो मंच पर रहे, वे मुख्यधारा में भी अपनी उपस्थिति का सशक्त एहसास कराते रहे और उर्दू-आलोचना स्वीकारती रही हिन्दी में? बच्चन, शंभूनाथ सिंह, गोपालदास नीरज आदि हिन्दी आलोचकों की नज़र में शुरू में कहाँ थे? एक अच्छी बात रही तो यह कि शमशेर बहादुर सिंह ने 'दोआब' में और विजयदेव नारायण साही ने 'लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस' में बच्चन को पहचानने की कोशिश की और बच्चन की कविताओं को 'जवानी का काव्य' मानने को राजनीतिक और कल्पनाशील के द्वैत के तनाव के रूप में देखा। बच्चन का कल्पनात्मक विजन साही को भाता है। बच्चन की कविता का आवेश, खुमारी, फक्कड़पन साही को आकर्षित करता है। साही जानना चाहते हैं कि 'आखिर विवेकहीन स्थिति में भी अपने को 'अपराजित' समझने वाली पीढ़ी की 'अपराजेयता' का रहस्य क्या है ?' साही विस्मय करते हैं कि यह 'रहस्य' 'भटकन' में ही तो नहीं छुपा है? भटकन में सार्थकता देखने वाले साही बच्चन में सौंदर्य और मृत्यु दोनों का सम्मोहन देखते हैं। हिन्दी के ज्यादा करीब रहे और बच्चन के ही अंग्रेजी विभाग (इलाहाबाद विश्वविद्यालय) से ताल्लुक रखने वाले विजयदेव नारायण साही जब उसी दौर के जयशंकर प्रसाद के साथ हरिवंश राय बच्चन' की तुलना करने बैठते हैं तो यह कह डालते हैं- 'प्रसाद का मनु उस प्रलय प्रवाह में अतीत की भाषा देखता है और बच्चन का मनुष्य भविष्य की। इसके बाद मनु पृथ्वी की ओर लौट आता है और उसका अंत हिमालय से पृथ्वी को देखने में होता है। बच्चन का मनुष्य शायद रुकता नहीं, समुद्र में कूद जाता है' बच्चन की लापरवाह ईमानदारी और 'मधुशाला' की सेकुलर संवेदना को साही पसंद करते थे। फिर भी, इलाहाबाद की हिन्दी आलोचना यह जानने को उत्सुक रही है कि आखिर, जिस दौर में महादेवी वर्मा 'श्रृंखला की कड़ियां' लिख रही थीं, यथार्थ से टकरा रहीथीं, उसी दौर में बच्चन 'श्रृंखला' को 'भुजपाश' कर देने के लिए अपनी प्रिया से आग्रह-अनुरोध कर रहे थे- 'आज तु उच्छवास को उल्लास कर दो/मैं अतीत अजीत से जकड़ा हुआ हूँ भीति-चिन्ता चक्र में पकड़ा हुआ हूँ। श्रृंखला को प्राण तुम भुजपाश कर दो।' ऐसी जगहों पर देखना चाहिए कि छायावादी कवि पंत से बच्चन की कुछ निकटता बनती है क्या? 'बाले, तेरे रूप जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?' पूछने वाले पंत की बच्चन से उस स्तर की मित्रता तो नहीं थी, एक स्तर की निकटता अवश्य थी। इस स्तर पर 'रूमानियत' का कुछ मामला बन सकता हो, तो बनेहाँ, जब बच्चन 'निशा निमंत्रण' में कहते हैं- शाम हो चुकी है/पक्षी घोंसले की तरफ/लौटना चाहता है/और/सोचता है कि बच्चे परेशान होकर घोंसले से झांक रहे होंगे।' तो यह ठीक-ठीक देख लेना होगा कि यह रोमान है या सरोकार? यह भी ठीक से गौर कर लेना होगा कि बच्चन का समय औद्योगिक विकास और रोजी-रोटी की तलाश का समय तो नहीं था? ज्यादातर लोग काम की तलाश में घर से बाहर और बिना काम पाए बाहर से घर की ओर तो नहीं थे, यह देख लेना होगा? यह भी जान लेना होगा कि कहीं यह लोकगीतों के विदेसिया के मर्म का स्पर्श तो नहीं है? यह भी पता लगा लेना होगा कि यह मोह-व्याप्ति है या मोह-भंग?


    सच पूछा जाए तो बच्चन ने अपनी ज्यादा उम्र की कीमत अदा की। माँ, बहन, पत्नी, बाप सभी उनकी बाहों में मरे। जगह-जमीन छूटी। ऐसे में संभव है उनकी कविताएँ ग़म-ग़लत का निमंत्रण जान पड़ें, परंतु ग़म से घबराकर भागने अथवा खुदकुशी का निमंत्रण तो कतई न जान पड़ेंगी, उनके यहाँ तड़प है, पर क्षणवाद नहीं। उनके यहाँ साफगोई है, कविता में भी, जीवन में भी।


    जब फरवरी १९४२ में आकाशवाणी इलाहाबाद की शुरूआत हुई तो पहले दिन जो कवि सम्मेलन हुआ, उसमें सर्वाधिक वाह-वाही बच्चन ने लूटी। फिर १९५५ में तो ये आकाशवाणी में काम ही करने लगे। सन् १९४१ से १९५२ तक वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में लेक्चरार रहे। १९५२ से १९५४ तक कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में रहकर उन्होंने पी-एच.डी. की डिग्री प्राप्त की। हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि प्रदान की। छल-रहित व्यवहार से उन्होंने इलाहाबाद को जीने-जानने-जोड़ने की कोशिशें की, जीवन-संघर्ष में रहकर गीत गाया-'बोझ सर पर कंठ में स्वर'। बचपन में बैगाबंड लफंगा, लेकिन धुनी, परिक्रमी बच्चन का पूरा जीवन बीत गया पर 'जीने की तैयारी में।' सन् १९८५ में इलाहाबाद ने 'मधुशाला' की स्वर्ण जयंती मनाई तो गाँव के चरवाहों ने भी गाया'लड़वाते हैं मंदिर-मस्जिद। मेल कराती मधुशाला।' १८ जनवरी २००३ को उनके सदा के लिए दुनिया छोड़ जाने के बाद इलाहाबाद की स्मृतियों में वे जिन्दा हैं। उनकी आत्मकथा के इस अंश को उद्धृत कर कहें तो-'अक्सर बीते दिनों की ये निशानियाँ बहती-तिरती मेरे दिमाग में आ उभरी हैं और मैं उनके सहारे कल्पना की उस यात्रा पर निकल पड़ा हूँ जो अभी कुछ ही समय पहले कितनी स्थूल, कितनी वास्तविक, कितनी सत्य थी।'


                                                                                                                                सम्पर्क: मो.नं. : 9955971358