कविता - पुश्तैनी घर - मुकेश कुमार,
शोधार्थी (एम. फिल), हिन्दी विभाग, अम्बेडकर भवन हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय
पुश्तैनी घर
शहर के किसी तंग मुहल्ले में
हमने दूसरा मकान ले लिया है
किराये पर
बेटा अक्सर बोलता है
शहरों का मिजाज भी देखना चाहिए
अब वहाँ सिर्फ
मेरी पुरानी साइकिल के दो पंचर है
धूल लगी कुछ कापियाँ है
रामायण की अध फटी एक जिल्द है
पुराने कपड़े है
और
पिता का खादी का कुर्ता
एकल परिवार ने नष्ट कर दिया है
अपने बेहुदा शौक से
आपसी बातचीत को
अब किसी खास मौके पर ही इकट्ठे होते हैं परिवार के लोग
या किसी शोक - सभा में दिख ही जाते हैं
घड़ी दो घड़ी के लिए
एक साथ
बड़ा अजीब लगता है
कितना कुछ खो चुके हैं हम
नये चलन की इस आड़ में
अफ़सोस !
सम्पर्क : समरहिल, शिमला-१७१००५, हिमाचल प्रदेश मो. नं.: 8580715221