कविता - बाजार - मुकेश कुमार, शोधार्थी

कविता -  बाजार  - मुकेश कुमार,  


                                                शोधार्थी (एम. फिल), हिन्दी विभाग, अम्बेडकर भवन हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय


बाजार


 


देहरी के पार जब भी पांव रखता हूँ


बाहर जाने के लिए


तो बाहर उल्लंघन करते आदमी दिख ही जाते हैं


लोग हर चीज के अब


दाम लगाते हैं,


क्योंकि


जैसे ही उन्हें मालूम पड़ा


कि बाजार में हर चीज़ की एक निश्चित कीमत है


तो आदमियों ने


खुद को बाजार के हवाले कर दिया


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