समय-संवेद्य - हमारी संस्कृति और कलाओं में महात्मा गाँधी -डॉ. सेवाराम त्रिपाठी

डॉ. सेवाराम त्रिपाठी-22 जुलाई 1951 को ग्राम जमुनिहाई जिला सतना मध्य प्रदेश में जन्म1972 से मध्य प्रदेश शासन उच्च शिक्षा विभाग में प्राध्यापक। अब अवकाश प्राप्त। दो वर्ष तक मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल में संचालक और संयुक्त संचालक के दायित्वों का निर्वहन। कविता और आलोचना की कई पुस्तकें प्रकाशित।


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मोहनदास करमचंद गांधी का रिश्ता भारतीय स्वाधीनता आंदोलन, भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक संघर्षों एवं अन्य कई रूपों में रहा है। अपने कृतित्व के विविध आयामों से उन्होंने महात्मा गांधी के रूप में पहचान और ख्याति अर्जित की। उनके वक्तव्यों एवं भाषणों के जो रिकॉर्ड मिलते हैं उनको सुनते हुए, उनके बोलने के अंदाज ने मुझे कभी भी प्रभावित नहीं किया, लेकिन उनके कृतित्व और आचरण की गूंज बहुत लम्बे समय तक रहती है। धीरे-धीरे मैं यह जान पाया कि मेरे मन में उनकी कुछ असंगतियों और अंतर्विरोधों के बावजूद उनसे एका है। उनके जीवन में सहजता, सादगी, सरलता और आचरण का सौन्दर्य रहा है। उनके आचरण की सुगंध धीरे-धीरे प्रसरित होती रहती है। अफीका एवं अन्य देशों की प्रारम्भिक यात्राओं में उनकी वेश-भूषा में भले ही पश्चिमी प्रभाव रहे हों, लेकिन उनके जीवन मूल्यों में तड़क-भड़क, चमक-दमक के लिए कभी भी कोई स्थान नहीं था। सत्य के रास्ते पर चलने के कारण उन्हें ताकतवर और निर्भीक बनाया, इसलिए वे वह सभी कुछ कह सके, जिसकी सामान्यतः लोग हिम्मत नहीं कर सकते। शायद गांधी जी को अहसास हो गया था कि उनके सामने मौत घूम रही है, लेकिन किसी भी डर की वजह से उन्होंने कभी भी काम करना बंद नहीं कियागांधी डरने वालों आदमियों में से नहीं थे। पाकिस्तानी शायर अफ़जाल अहमद की कविता के मार्फत कहना चाहूंगा। "वे हमारे मारे जाने का ख्वाब देखते हैं। और ताबीर की किताबों को जला देते हैं। वो हमारे नाम की कब्र खोदते हैं। और उसमें लूट का माल छिपा देते हैं। अगर उन्हें मालूम भी हो जाए/ कि हमें कैसे मारा जा सकता है। फिर भी वे हमें मार नहीं सकते।" गांधी जी की जिन्दगी किसी धोखे और भ्रम की जिन्दगी नहीं थी उनका जीवन खुली किताब की तरह था।


    सत्य की व्याख्या करते हुए गांधीजी ने कहा था कि - "सत्य सर्वदा स्वावलम्बी होता है और बल तो उसके स्वभाव में ही होता है।" गांधी ने अपने जीवन में जो प्रयोग किए वे किताबी नहीं है, बल्कि जीवन के कठोर संघर्षों, आतपों और कठिनाइयों से उनके मूल्य उपजते हैं। उनकी निरंतर साधना और तपस्या से फलीभूत हुए हैं। गांधी के यहां जीवन के विभिन्न रूपों और व्यापारों से निष्कर्ष निकाले गए थे। वे निष्कर्ष उनके अपने थे और फैसले भीवे राष्ट्रीय जनजीवन के प्रायः सभी पक्षों को प्रभावित करने में सक्षम रहे हैं। उनका जीवन प्रयोगों की अन्तहीन साधना भूमि रहा है। बिना प्रयोग किए उन्होंने किसी को सहज रूप में स्वीकारा भी नहीं। महात्मा गांधी ने अपने जीवन में व्यापक प्रयोग किए हैं। स्वाधीनता संघर्ष, सामाजिक संघर्ष, गैर-बराबरी के खिलाफ संघर्ष, उनकी आत्मा की आवाज़ थे और इस आवाज को कभी भी उन्होंने दबाया नहीं।


गांधी भारत की आत्मा को समझते थे, इसलिए वे एक ऐसे भारत की कल्पना करते थे, जिसके निर्माण में सभी का हाथ हो। कुछ लोग तो अपनी ही आत्मा को नहीं समझते। उनके पास स्वार्थों का जखीरा होता है, इसलिए गांधी विरल व्यक्तित्व हैं। उन्हीं के शब्दों में- "मैं ऐसे भारत के लिए काम करूंगा, जिसमें गरीब से गरीब यह महसूस करेगा कि यह उसका देश है और जिसके निर्माण में उसका भी प्रभावशाली हाथ है। ऐसा भारत जिसमें न उच्च वर्ग है, न निम्न वर्ग, जिसमें अस्पृश्यता अथवा उत्तेजक मुद्दों या सदियों के अभिशाप को कोई स्थान नहीं है। जहां स्त्रियों को वही अधिकार है जो पुरुषों को- यह मेरे स्वप्नों का भारत है।" गांधी जी के सामने राष्ट्र में उपस्थित अनेक मुद्दे थे जिससे उन्हें दो-चार होना पड़ा- मसलन भूख, गरीबी, अस्पृश्यता, कुसंस्कार, दलितों और स्त्रियों की समस्याएं और असमानाताएं भी। गांधी की एक स्पष्ट दिशा है जिसमें किन्तु परंतु नहीं है। हां, समस्याओं और स्थितियों को लेकर मंथन वहां जरूर होता है, उनके निर्णय साफ-साफ दो टूक और प्रभावी होते थे।


    स्वराज पर उनका एक कथन याद आया "स्वराज जितना किसी राजा के लिए होगा उतना ही किसान के लिए, जितना किसी धनवान के लिए होगा उतना ही भूमिहीन खेतिहर के लिए, जितना हिन्दुओं के लिए होगा उतना ही मुसलमानों के लिए। जितना जैन, यहूदी और सिक्खों के लिए होगा, उतना ही पारसियों और ईसाइयों के लिए। उनमें जाति-पाति धर्म और दर्जे के भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं होगा।" इस तरह की बातें गांधी जी आजादी के पहले व्यक्त करते रहे और इसी की समूचे भारत में अलख जगाते रहे!


    गांधीजी ने बड़ों-बड़ों से लोहा लिया। साम्राज्यवादी ताकतों के मंसूबों को ध्वस्त किया। अपनी जीवन शैली और कर्म शैली से। भारतीय सामाजिक जीवन में उनके कई तरह के प्रभाव अक्सर रेखांकित होते रहे हैं। उनकी यह क्षमता अकृत, अद्भुत, बेमिसाल और प्रभावशाली रही है। हाड़ मांस के इस आदमी में ऐसी क्या ऊर्जा थी? ऐसी क्या ताक़त थी और ऐसा क्या जादू था कि बडे-बडे राजाओं-महाराजाओं, साम्राज्यवाद के तथाकथित पुरोधा भी उनसे आंख मिलाने की हिम्मत नहीं कर पाते थे? यह था उनमें भीतर का आत्मबल उनके चरित्र की दृढ़ता की गहराई। इंग्लैण्ड वे अपनी पारम्परिक वेश-भूषा में गए अर्थात रबर की चप्पलें, लाठी, चश्मा और अधनंगा शरीर। उन्होंने कभी यह भी नहीं विचारा कि वे भारत के प्रसिद्ध वकील भी रहे हैं। उनके मूल्यों एवं पक्षधरताओं में जो भी आया, उन्होंने उसे अपनाया और उसके लिए वे किसी से भी टकरा गए। मेरे मन में प्रश्नांकन होता है कि आखिर इस गांधी नाम के आदमी में ऐसा क्या करिश्मा था कि बड़ी से बड़ी हस्तियां उनसे प्रभावित रहीं। चाहे वह रोम्या रोला, जवाहर लाल नेहरू जैसे कई अन्य हस्तियां रही हों। कई तो उनसे असहमति दर्ज होने के बावजूद उनके व्यक्तित्व के आकर्षण में बंधने को बाध्य हुए हैं - जैसे सूर्यकांत त्रिपाठी निराला।


    एक घटना याद आई- कांग्रेस का सम्मेलन हो रहा थाअध्यक्ष पद हेतु गांधी जी ने डॉ. पट्टाभि सीतारमैया को खड़ा किया और दूसरी ओर से सुभाषचंद्र बोस लड़े। गांधी जी ने घोषणा की थी, पट्टाभि सीता रमैया जीतते हैं तो मैं जीतता हूं नहीं तो अपने को हारा हुआ मानूंगा लेकिन जीते सुभाष चंद्र बोस। अंत में सुभाष बाबू गांधी जी के पास गए और बोले कि बापू मैं त्याग पत्र दे रहा हूं। यह था उनके आकर्षण का जादू।


    पिछले वर्षों बीसवीं शताब्दी के लोगों का एक सर्वेक्षण हुआ था। उस सर्वेक्षण में दुनिया की नामचीन हस्तियां रही हैं विभिन्न क्षेत्रों से। गांधी, लेनिन, माओ त्से तुंग प्रसिद्ध वैज्ञानिक, लेखक, दार्शनिक, चित्रकार, फ़िल्मकार, अभिनेता, अभिनेत्रियां, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य सामाजिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों के प्रभावशाली व्यक्ति और व्यक्तित्व, लेकिन अन्ततोगत्वा उस सर्वेक्षण में महानायकों की कोटि में महात्मा गांधी का ही चयन हुआ। यह गांधी के व्यक्तित्व और प्रभावशीलता के जादू का ही करिश्मा था। इसी के साथ उनके सत्य और अहिंसा के मूल्यों का। धीरे-धीरे ही सही, हमारे यहां काबिज सत्ताओं ने गांधी जी के अभूत प्रभाव को कम करने के निरंतर प्रयोग करे। उसे इस रूप में जानना चाहिए कि- महात्मा गांधी की मूर्ति परप्रतीक रूप में गोलियां दागीं। _कुछ ने उन्हें चतुर बनिया कहकर संबोधित किया। वैसे गांधी पर तरह-तरह के आरोप भी लगते रहे हैं। वैचारिक उठा-पटक भी हई है। उन सभी में गांधी अपने कृतित्व और आचरण के कारण जीतते रहे।


    भारत की समूची कलाओं में महात्मा गांधी का चित्रण सबसे ज्यादा और प्रभावशाली ढंग से होता रहा है। फ़िल्म, नाटक, साहित्य, चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्य कलाओं एवं रेखांकनों में। महात्मा गांधी लोकगाथाओं में और लोकगीतों में भली-भांति प्रतिष्ठित हैं। मनोज सिंह का यह कहना है कि - "गांधी को उनके जीवन काल में ही एक अवतार मान लिया गया, चंपारण में भी लोगों ने उनको उसी रूप में देखा, उनको उद्धारक के रूप में माना गया, इसलिए उनके जीवनकाल में ही उनकी मूर्तियां बनीं और वे लोकगीत का भी हिस्सा बने। गांधी जब तारणहार के रूप में आएंगे तो वे गीत संगीत में ढलेंगे ही।" भोजपुरी का एक गीत मुझे स्मरण आ रहा है- "मोरे चरखवा का टूटे न तार/ चरखवा चालू रहेगांधी महात्मा दूल्हा बने हैं।दुल्हन बनी सरकार/ चरखवा चालू रहे।" यही नहीं हमारे लोकगीतों में गांधी को भिन्न-भिन्न रूपों में चिह्नित किया गया है। लोक मे गांधी के स्वराज्य के अनेक रूप हैं- "गांधी तेरो राज सुपनवां/ हरि मोरा पूरा करिहैं न।" उसी तरह एक गोंड गीत में कहा गया है- "बादल गरजता है/ मालगुजार गरजता हैफिरंगी के राज का सिपाही गरजता है/हे राम! हो हो हो गांधी राज होने वाला है।" फणीश्वरनाथ रेणु का एक उपन्यास है मैला आंचल- उसमें एक छोटा गीत इस प्रकार है "कथि के चढिए आइल वीर जमाहिर/ कथि पर गंधी महराज/चलु सखि/ हाथी चढल आवे भारथ माता/ डोलि में बैठल सुराज/चल सखि देखन को।" (मैला आंचल पृष्ठ-२२४) उसी तरह इसी उपन्यास में मुझे लोकगीत की कुछ पंक्तियां याद आईं- “एक छोटी चवन्नी चांदी की / जय बोलो महात्मा गांधी की।"


उन पर बनी फिल्मों में गांधी के प्रभाव


      'गांधी' (रिचर्ड एटनबरो) 'मैंने गांधी को नहीं मारा', 'लगे रहो मुन्ना भाई', 'जागृति' आदि आदि। नाटको म - 'हत्या एक आकार की' (ललित सहगल) 'मी नाथूराम गोड़से बोलतोय' (मैं नाथूराम गोडसे बोल रहा हूँ)। राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक विभिन्न क्षेत्रों में हजारों-हजार आलोचनाओं, , मतभिन्नताओं के बावजूद उन्हें सराहा गया. उनके प्रभाव को स्वीकारा गया। गांधी के नाम से भारत एवं समूची दुनिया में अनेक तरह के सरकारी, गैरसरकारी, स्वयंसेवी संगठन काम कर रहे हैं। भारत में तो इनकी एक तरह से बाढ़ है। महात्मा गांधी ने जो प्रयोग किए हैं, वे खुले आम किए हैं। उनकी आलोचनाएं भी काफी हुई हैं, लेकिन अन्ततोगत्वा उन्हें एक तरह से स्वीकृत मिली है और यह स्वीकृति उनकी सादगी, जीवन्तता, खरेपन और मूल्यों की स्वीकृति है। कथनी-करनी के एक होने की स्वीकृति है। गांधी जी ने अनेक संस्थाओं को स्थापित किया था, जैसे गांधी सेवक संघ, ग्रामोद्योग संघ, चर्खा संघ, हरिजन सेवक संघ, गो सेवा संध, आदिम जाति सेवक संघ, तालीमी संघ, राष्ट्रभाषा प्रचार सभा, दक्षिण भारत प्रचार सभा इत्यादि। महात्मा गांधी के चिन्तन में बाहरी विकास के साथ ग्रामीण जीवन के विकास का सपना ज़्यादा था। वे लघु कुटीर उद्योग धंधों के विस्तार की बात करते थे। १९०९ में प्रकाशित 'हिन्द स्वराज्य' पुस्तिका उनके विचारों का बीज रूप है। आगे दरिद्रनारायण और रामराज्य का विस्तार इन्हीं सन्दर्भो में है। उन्होंने भाषाओं के विकास पर भी ध्यान दिया। वे भारत के अंतिम छोर पर खड़े आदमी को मुख्य धारा में लाना चाहते थे। हिन्दी भाषा के विकास के लिए उनके द्वारा किए गए कार्यों का सुफल अब धीरे-धीरे दिखाई पड़ने लगा है।


    यूँ तो समूची भारतीय भाषाओं में विभिन्न लोक शैलियों एवं लोक संस्कृतियों में गांधी के व्यक्तित्व, कृतित्व और प्रभाव का भरपूर चित्रण हुआ है। हिन्दी भाषा, साहित्य और तमाम बोलियों में उनके बहुविध चित्रण हुए हैं। गांधी पर नाटक लिखे गए- 'गांधी बनाम अम्बेडकर', 'गांधी वर्सेज महात्मा'। फ़िल्में भी अनेक हैं- 'गांधी माई फादर (२००७)' निर्देशक फिरोज खान, गांधी के सबसे बड़े बेटे हरिलाल गांधी मेकिंग ऑफ महात्मा' (१९९६) निर्देशक श्याम बेनेगल। 'द लीजेण्ड ऑफ भगत सिंह' , निर्देशक राज कुमार संतोषीइसमें गांधी के अनेक आयामों को स्पर्श किया गया है। 'सरदार वल्लभ भाई पटेल पर' (१९९३) - निर्देशक जब्बार पटेल, गांधी के जीवन दर्शन को केन्द्र में रखकर। 'हे राम!' (२०००) (निर्देशक कमल हासन) हिन्दू-मुस्लिम रोल पर 'पड़ोसी' (निर्देशक व्ही. शांताराम) तथा 'दो आंखे बारह हाथ' (निर्देशक व्ही. शांताराम)। 'मैंने गांधी को नहीं मारा' (२००५), 'वेलकम बैक गांधी' (२०१४) एवं 'मोहनिया : युग पुरुष गांधी महात्मा गांधी' (२०११)।


    गांधी पर उपन्यास आया पहला 'गिरमिटिया' (गिरिराज किशोर) जो महात्मा गांधी के जीवन, विचार और मान्यताओं से ओत-प्रोत है। इसी तरह हिन्दी कविता में गांधी की अभूतपूर्व स्वीकृति है और व्यंग्य में भी उनका बहुविध चित्रण हुआ है। हिन्दी कविता में या तो उनके समूचे जीवन चरित्र का गायन-अनुगायन हुआ है अथवा उनके जीवन के कुछ पक्षों को रेखांकित किया गया है। जहां तक मैं सोचता हूं गांधी, गांधीवाद और गांधीदर्शन का अनेक बार परीक्षण हुआ है। भारत में कुछ ऐसे विकास विरोधी तत्व, पीछे की ओर लौटने वाले मनोविज्ञान, साम्प्रदायिक और कट्टरपंथी ज़रूर रहे हैं, जिन्होंने गांधी के मूल्यों का हमेशा मखौल उड़ाया। गांधी के विचारों को खत्म करने की कोशिश की। उनके महत्व को गिराने का प्रयास किया। अविश्वास तो उनका मूल मंत्र रहा ही। गांधी को उन्होंने पूरी तरह खारिज करने की कोशिश की, लेकिन किसी के खारिज करने से साहसी, जुझारू और कथनी-करनी का एका करने वाली प्रतिभाएं जीवन में निरंतर विस्तार पाती हैं, उन्हें कोई अलग नहीं कर सकता। उन्हें न तो कोई खारिज कर सकता, न तो खत्म।


    हिन्दी कविता में महात्मा गांधी की उपस्थिति पहले पहल द्विवेदी युग के कवि ठाकुर गोपाल शरण सिंह के महाकाव्य 'जगदालोक' में दिखाई पड़ती है। इस महाकाव्य में गांधी के जीवन और कृतित्व का अभिधात्मक तरीके से वर्णन हुआ है। "गांधी जी की दिव्य साधना/ सफल हुई है अनुपम/विजय हुए विश्व में फिर से, सत्य अहिंसा संयम।" समूचा महाकाव्य गांधी के आदर्शों, जीवन मूल्यों को , सहजता से वर्णित करता है। दो अंश दृष्टव्य हैं - "जिसके स्वर में अखिल राष्ट का भाव विमल था/ कोमलता के साथ ओजमय विशयन की थी वरवाणी आ आत्मिक बल था/जिसकी वाणी सदा के लिए मौन वह अनुपम प्राणी।" (पृ. ३०७) "बापू को मिल गई कीर्ति वीरोचित गति की/पर होगा किस भांति पूर्ति भारत की क्षति की/जो कलंक का लगा देश के सिर पर टीका/ सालेगा वह क्या न सदा बन कण्टक जी का।" (पृ. ३१३) इस महाकाव्य की भूमिका में श्री पुरुषोत्तमदास टण्डन ने लिखा है - "जगदालोक के रचनाकार ठाकुर गोपाल शरण सिंह ने हिन्दी साहित्य में ऊंचे आदर्श का एक सुन्दर काव्य प्रस्तुत किया है। इसमें महात्मा गांधी जी के जीवन की मुख्य घटनाओं तथा उनकी साधना और उसके फलों के चित्रण में गांधी जी के समय की राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों की रूपरेखा है और गांधीजी ने इन स्थितियों में अपने आदर्शों की पूर्ति के लिए जिन साधनों का उपयोग किया, उनकी गाथा है।" (भूमिका) के जन्म से लेकर स्वाधीनता संघर्ष की कथा की विभिन्न घटनाओं के माध्यम से नरेश मेहता जी ने गांधी जी के कार्यव्यापारों और जनजीवन में उनकी व्याप्ति को विधिवत चित्रित किया है - "धार्मिक उदात्तता कहीं नहीं/आश्रम मठ सबमें दुराचार/गांधी जी ने सोचा क्रांति तभी/संभव है जब यह देश जगे/पुरुषार्थ तभी जगेगा जब/जब यह देश हाथ से कर्म करे।" इसी कविता में नरेश जी ने गांधी को अलग तरह से चित्रित किया है- “परम पुरुष वह लौट गया/पावन चरित्र का दे चंदन/विश्व एक परिवार बने/मैं चला सुखी हों सारे जन।।"


    गांधी को सभी कवियों ने अपने-अपने कोणों से देखा परखा है। हरिवंश राय बच्चन की एक कविता है 'खादी के फूल से' जो उन्हें अलग तरह से व्याख्यायित और परिभाषित करती है। इसमें गांधी के महत्वांकन के अतिरिक्त उसमें उनके कर्म सौन्दर्य का भी चित्रण किया है- "उनके जीवन में था ऐसा जादू का रस/कर लेते थे वे कोटि-कोटि को अपने बस/उनका प्रभाव हो नहीं सकेगा कभी दूर/जाते-जाते/ बलि-रक्त-सुरा/वे छना गए।" और अंतिम अंश में गांधी की हत्या से उपजे विषाद और उनके अमरत्व की करुणा की धारा है। गांधी की मृत्यु के बाद का एक अलग तरह का मूल्यांकन है- "उस महाशोक में भी मन में अभिमान हुआ/धरती के ऊपर कछ ऐसा बलिदान हुआगों प्रतिफलित हुआ धरणी के तप से कछ ऐसा जिसका अमरों/ के आंगन में सम्मान हुआ/ अवनी गौरव से अंकित हों नभ के मूल्यांकन है- "उस महाशोक में भी मन में अभिमान हुआ/धरती के ऊपर कछ ऐसा बलिदान हुआगों प्रतिफलित हुआ धरणी के तप से कछ ऐसा जिसका अमरों/ के आंगन में सम्मान हुआ/ अवनी गौरव से अंकित हों नभ के लेखे/ क्या लिए देवताओं ने ही यश के ठेके/अवतार स्वर्ग का ही पृथ्वी ने जाना है। पृथ्वी का अभ्युत्थान/स्वर्ग भी तो देखें।।'ऐसे बहुत कवि भी रहे हैं जिन्होंने गांधी, गांधीवाद और उससे उपजे अन्तर्विरोधों को और गांधी के नाम पर की जा रही ठगी और पाखण्ड को अपनी कविताओं में बाकायदा दर्ज किया है। इस तरह के कवियों में नागार्जुन का स्वर और उनका मूल्यांकन लहजा सबसे भिन्न है। गांधी के सन्दर्भ में उनकी कई कविताएं हैं। यहां मैं उनकी एक कविता का जिक्र कर रहा हूँ। वह कविता है 'तीनों बंदर बापू के'। इसे कई संदर्भो में पहचाना जा सकता है। इस कविता में गांधी के नाम पर चल रही तरह-तरह की दुकानदारी,छल-कपट और ठगी की तथा घोर पाखण्ड की कठोर भत्सना अत्यंत आत्मीय लहजे में बींध देने वाले व्यंग्य में की गई है। यूं तो पूरी कविता उद्धत करने योग्य है। इस कविता को मैं गांधी शताब्दी की तीखी प्रतिक्रिया के रूप में मानता हूं- "बापू के भी ताऊ निकले तीनों बंदर बापू के/सौंवी बरसी मना रहे हैं तीनों बंदर बापू के/बापू को ही बना रहे हैं तीनों बंदर बापू के। एक अंश और देखें -सेठों का हित साध रहे हैं तीनों बंदर बापू के/सत्य अहिंसा फांक रहे हैं तीनों बंदर बापू के/पूंछों से छवि आंक रहे हैं तीनों बंदर बापू के/दल से ऊपर दल के नीचे तीनों बंदर बापू के/मुस्काते हैं आंखें मीचे तीनों बंदर बापू के।।"


    हिन्दी कविता में महात्मा गांधी का चित्रण ज्यादातर स्वीकार की मुद्रा में हुआ है। कुछ कवियों ने उनके नाम पर चल रहे प्रपंचों, छलों, धोखों एवं पाखण्डों को भी कविता का विषय बनाया है। हाँ, हिन्दी गद्य में और आलोचनात्मक लेखन में उनका वस्तुपरक, विचारपरक और मूल्यपरक विश्लेषण हुआ है। गांधी पर लिखी गई ऐसी तमाम रचनाशीलता को समय स्थिति और युग की जटिलताओं के परिप्रेक्ष्य में भी देखने-समझने की जरूरत है। अन्यथा हम केवल प्रशंसाओं के बहुत बड़े बाड़े में आ जाएंगे। महात्मा गांधी श्रद्धा के, जिन्दगी के जीवन्त संघर्षों और वास्तविकताओं के जानकार रहे हैं। उनकी आलोचनाएं कम नहीं हुई हैं, लेकिन उनका व्यक्तित्व और कृतित्व सकर्मक रहा है! मैं केवल दो किताबों का जिक्र करना चाहता हूं। पहली है गांधी जी : ए स्टडी (हीरेन्द्र मुखर्जी), और दूसरी किताब है गांधी बेनकाब (हंसराज रहबर) अन्त में . १९५४ में निर्मित 'जागृति' फ़िल्म में प्रस्तुत उस गीत का स्मरण ज़रूरी है जिसको लता मंगेशकर ने गाया था और जिसे सुनकर पण्डित जवाहरलाल नेहरू भी अपने आंसू नहीं रोक पाए थे। उसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं - "दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल/साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल/आंधी में भी जलती रही गांधी तेरी मशाल.../धरती पर लड़ी तूने अजब ढंग की लड़ाई दागी न कहीं तोप, न बंदूक चलाई /दुश्मन के किले पर भी न तूने चलाई/ वाह रे! फ़कीर खूब करामात दिखाई/चुटकी में दुश्मनों को दिया देश से निकाल।।" इस गीत में गांधी के जीवन को उनके संघर्षों को और उनके प्रभाव को चित्रित किया गया है और अतिम अंश बहुत ही मर्मस्पर्शी है - "जग में जिया है कोई तो बापू तू ही जिया तूने वतन की राह में सब कुछ लुटा दिया/मांगा न कोई तख्त न कोई ताज ही लिया/अमृत दिया तो ठीक मगर खुद जहर पिया/जिस दिन तेरी चिता जली, रोया था महाकाल/साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल।।" केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता मुझे बरबस याद आ रही है-"दुख से दूर पहुंचकर गांधी/ सुख से मौन खड़े हो/ मरते खपते इंसानों के / इस भारत में तुम्ही बड़े हो।" गांधी जी पर लिखी जा रही बेशुमार कविताओं में मैं दुर्गा प्रसाद झाला के तत्काल प्रकाशित होने जा रहे संग्रह 'अपने समय से गुजरते हुए' की 'गांधी' नामक एक कविता का जिक्र कर रहा हूं- उसका एक अंश देखें। "कितना/ अच्छा किया तुमने/ बना दी एक पत्थर की मूर्ति उसकी/ कोई चाहे तो करे/ उसका मंगल अभिषेक/ चाहे तो/ तोड़ आए हथौड़े से/ उसका सिर/सबको सुविधा है। अपनी तांत्रिक सिद्धि के लिए/ जिसको मंत्रोच्चार करना हो/करे/ जिसको पोतना हो डामर/ पोते/ क्या फर्क पड़ता है/ मंजिल एक है। रास्ते तो अलग-अलग होते ही हैं। कैसी मजबूरी है/ गांधी को पास रखना भी है। गांधी को गहरे में गाड़ना भी है।" यह गांधी की का व्याप्ति का और उनके महत्व का बहुत बड़ा प्रमाण है।


    ध्यान दिया जाना चाहिए- भारत में अनेक विचार धाराए आईं लेकिन गांधी के जीवन ने, उनके आचरण ने प्रायः सभी को प्रभावित किया। उनकी चारित्रिक दृढ़ता हमारी वो ताकत है जो हमें किसी से भी टकराने शक्ति देती ' है। आजादी की लड़ाई जब वे लड़ रहे थे उनहें डराया धमकाया जाता था! लेकिन वे झुके नहीं! उनका एक कथन हमें हर कठिन से कठिन दीवार से टकराने की क्षमता देता है। "अंग्रेजों की शक्ति को मैं पहचानता हूं। वे मुझे मारेंगे तो मार सहन कर लूंगा, जेल ले जाएं तो खुशी से चला जाऊंगा, जान से मार भी देंगे तो मर जाऊंगा। फिर भी मेरी अहिंसक लड़ाई जारी रहेगी क्योंकि मेरे अंदर एक सत्य और न्याय की शक्ति है जो बंदूक की शक्ति से कई गुना बलवान है।" महात्मा गांधी का चित्रण हमारी कविताओं में निरन्तर हो रहा है। नई पीढ़ी ने अभी उनके महत्व को ठीक से पहचाना नहीं है, लेकिन उन्होंने जो नैतिक साहस प्रदान किया है, उसका महत्व दिन-ब-दिन बढ़ता जाएगा। मुक्तिबोध के शब्दों में "महात्मा गांधी ने देश की स्वाधीनता, विश्व कोशांति और मैत्री तथा अन्याय के विरुद्ध अहिंसात्मक प्रतिरोध और मानव हृदय को नैतिक बल प्रदान किया। उन्होंने देश और विश्व के बड़े-बड़े मनीषियों के विचारों को अपने में रंग दिया, भारतीय जनता को नए आध्यात्मिक संस्कार प्रदान किए।" (भारत : इतिहास और संस्कृति)महात्मा गांधी का मूल्यांकन और विश्लेषण करते हुए मुझे लगता है कि हमारे पास या तो भावुकता के लिए जगह होती है या उनकी व्याप्ति की। मुझे ताज्जुब होता है कि अकेले महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई से लेकर भारतीय मूल्यों के लिए संघर्ष, साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए संघर्ष, धर्म निरपेक्षता के खिलाफ संघर्ष और गांव की स्त्रियों के प्रति, आर्थिक स्थितियों के प्रति नैतिक मूल्यों के प्रति, युवकों के प्रति, साफ-सफाई के प्रति, शांति-सद्भाव के प्रति इतना सोच-विचार किया है कि हम आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह सकते। गांधी जी की खासियत यह है कि उन्होंने ईमानदारी से सेक्स संबंधी जो प्रयोग किए थे, उन्हें भी उजागर किया। वे कुछ भी छिपाने के पक्ष में नहीं थे। उनके दिमाग में ग्रामीण भारत का एक सुनहरा चित्र था जिसके लिए उन्होंने किसानों के पक्ष में लघु कुटीर उद्योग धंधों के लिए काम करने की सलाह दी थी। मेरी नज़र में गांधी उस महामानव का नाम है जिससे अनेक तरह की धाराएं .. फूटती हैं। इन डेढ़ सौ वर्षों में गांधी पर अनेक प्रश्नवाचक चिह्न लगे हैं। उनका चरित्र हनन किया गया और एक तबका वह भी था, ग जो गांधी को प्रोग्रेसिव नहीं मानता ।था। वह गांधी को परिवर्तन की राह में रोड़ा भी मानता रहा, लेकिन तमाम खूबियों और खामियों के बावजूद उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का अभी तक बाल बांका नहीं कर पाया। यही हमारे लिए गांधी का महत्व है। उनको कोई फर्क नहीं पड़ता चाहे अच्छा कहें या बुरा। वे बीसवीं सदी के सबसे जीवंत और कर्मशील व्यक्तित्व रहे हैं। गांधी समूचे सर्वेक्षणों में सबसे आगे हैं और सतत् उनके आचरण की सुगंध समूचे संसार में फैलती रहेगी। उनके आदर्शों के पास, उनके मूल्यों के पास अंततोगत्वा जाना ही होगा- यही गांधी का वास्तविक महत्व है। कुछ पंक्तियां यूं तो गांधी के लिए नहीं कही गई लेकिन उसी से गांधी से भाषित और जाज्वल्यमान होते हैं- "सच/ पीड़ा से धुंधली आंखों में/ जलता दिया होता है। सच/ हत्यारों के बीच/ निर्भीक घूमता/ गांधी होता है।" काश हम अपने भीतर गांधी की इस ताकत को जुटा सकें।


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