डॉ.प्रेम तिवारी - दिल्ली के दयाल सिंह कालेज मे हिंदी के प्राध्यापक। गंभीर सामयिक और साहित्यिक विषयों पर लिखने में रुचि। जनवादी लेखक संघ से जुड़े हैं।
--------बीसवीं सदी में गाँधी ने भारत का जो सपना देखा था, उस सपने में देश की शिक्षा व्यवस्था कैसी होनी चाहिए? संभवतः यह भी था, जिस पर गाँधी ने कुछ छिट-पुट कामचलाऊ टिप्पणियां ही की हैं, विस्तार से कुछ लिखने की जरूरत शायद नहीं समझी। गाँधी के शिक्षा संबंधी विचारों को देखकर ऐसा नहीं लगता कि गाँधी सुलझे हुए कोई प्रखर शिक्षाविद थे, इसका कुछ-कुछ अनुमान उनकी टिप्पणियों में आए शिक्षा संबंधी विचारों से लग जाता है। भारतीय समाज के व्यापकता और वैविध्य को सामने रखकर उनके विचारों का विश्लेषण करें, तो वे कहीं-कहीं बहुत कमजोर और ज्यादातर स्थितियों में अव्यावहारिक दिखते हैं। ऐसा नहीं कि पूरा भारत घूम लेने के बाद भी वृहद् 'भारतीय समाज' की जटिल संवेदना की नब्ज उनसे छूट गई थी या वे इस समाज की जातिवादी और वर्गवादी सच्चाइयों से तब भी अपरिचित ही थे। और ऐसा भी नहीं था कि वे अपनी समकालीन दुनिया के दूसरे मुल्कों के तमाम शिक्षाविदों द्वारा किए जा रहे शिक्षा संबंधी व्यापक प्रयोगों से अनजान थे। बावजूद इसके भारतीय शिक्षा का कोई ऐसा स्वरूप देने में वे सफल नहीं हो सके, जिसे दुनिया गाँधी-मॉडल के रूप में आज याद करती।
बीसवीं सदी के गाँधी सिर्फ राजनीतिक पथ-प्रदर्शक और समाज-सुधारक के रूप में ही नहीं बल्कि एक ऐसे चिन्तक और विचारक के रूप में भी हमारे सामने खड़े दिखाई देते हैं, जिनमें राजनीति, धर्म, समाज, संस्कृति और शिक्षा आदि विविध क्षेत्रों की अपनी एक विशिष्ट दृष्टि तो थी। लेकिन कहना न होगा कि उनकी यह दृष्टि बीसवीं सदी पूर्वार्ध की राजनीतिक, आर्थिक, समाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सीमाओं से बंधी हुई थी। वे उन सीमाओं को झटक कर तोड़ने और तोड़कर उसका विस्तार करने में संभवतः हिचकिचाते थे । शायद इसलिए आज जब हम गाँधी को पढ़ते-सुनते हैं तो कई जगह वे हमें बहुत तंग और अव्यावहारिक दिखाई देते हैं, लेकिन कई जगह उनके विचार आज भी हमारा मार्ग-दर्शन करने की शक्ति रखते हैं। गाँधी में अंतर्विरोध बहुत है।
गाँधी ने शिक्षा के बारे में जो टिप्पणियां की हैं, उन्हें नई तालीम, बुनियादी शिक्षा, उच्च शिक्षा, नए विश्वविद्यालय, प्रौढ़-शिक्षा, धार्मिक-शिक्षा, पाठ्य-पुस्तकें, अध्यापक, स्वावलंबी शिक्षा और शिक्षा का आश्रमी आदर्श शीर्षक से पढ-सुन सकते हैं। और इसके समग्र विश्लेषण के आधार पर गाँधी के
शिक्षा संबंधी चिंतन पर विचार कर सकते हैं। आइए, सबसे पहले गाँधी के शिक्षा संबंधी आश्रमी आदर्शों की सूची को ही देख लें; इस सूची में २७ बिंद हैं। इसमें वे शिक्षा ग्रहण के तीन चरणों का उल्लेख करते हैं। पहला चरण आठ वर्ष तक, दूसरा नौ से सोलह वर्ष तक और तीसरा सोलह से पच्चीस वर्ष तक। इन तीन चरणों में 'लड़के-लड़कियों के साथ पढने, रुचि के अनुरूप कार्य सौंपने, शारीरिक श्रम करने, खेल-खेल में शिक्षा देने, बलपूर्वक शिक्षा न देने, सारी शिक्षा मातृभाषा में देने, लिखने से पहले पढ़ना सीखने आदि बहुत ही साधारण बातों का उल्लेख हुआ है। लेकिन इसके बाद जिन खास बातों का उल्लेख हुआ है, उन्हें जानना खास दिलचस्प है। जैसे : नौ साल के बाद "बच्चों को हिंदी-उर्दू का ज्ञान राष्ट्रभाषा के तौर पर देना चाहिए, धार्मिक शिक्षा जरूरी मानी जाएवह पुस्तक द्वारा नहीं शिक्षक के आचरण द्वारा मिलनी चाहिए, हिंदू बालक को संस्कृत का और मुसलमान बालक को अरबी का ज्ञान मिलना चाहिए और इसके साथ ही बच्चे की सारी शिक्षा मातृभाषा द्वारा होनी चाहिए।"२ इसके बाद यह बताना शेष नहीं रह जाता है कि गाँधी शिक्षा के चश्मे से जिस 'भारत का सपना' देख रहे थे, भविष्य में उसके पूरा होने की न उम्मीद थी, न जरूरत। दरअसल गाँधी का सपना 'बच्चे' को शिक्षित करने से ज्यादा उन्हें 'भाषाविद' बनाने पर बल देता था। गाँधी एक किशोर वय के शिक्षार्थी से उम्मीद कर रहे थे कि वह अपनी मातृभाषा भी जाने, हिंदी-उर्दू भी जाने, हिंदू हो तो संस्कृत और मुसलमान हो तो अरबी भी जाने और इसके साथ ही अंग्रेजी भी सीखें। आश्रमी आदर्श का २७वां बिंदु कहता था कि : "अंग्रेजी का अभ्यास भाषा के रूप में हो और उसे पाठ्यक्रम में जगह मिले''३ गाँधी के ये आश्रमी आदर्श मुझे उतना बेचैन नहीं करते जितना यह कि "धार्मिक शिक्षा जरूरी मानी जाए। वह पुस्तक द्वारा नहीं बल्कि शिक्षक के आचरण और उसके मुँह से मिलनी चाहिए।" कहना न होगा कि शिक्षक के मुंह से मिलने वाली शिक्षा बच्चे के जेहन में साम्प्रदायिकता का जहर भी घोल सकती है, और सेकुलरिज्म का शहद भी और फिर यह कैसे तय होगा कि शिक्षक का कैसा आचरण और कैसी वाणी बच्चे के लिए आदर्श होगा? इससे तो अच्छा कोई ऐसी पुस्तक ही होती जो सारे धर्मों के मूल-तत्वों का निचोड़ लेकर मानवीय गरिमा और आदर्शों के अनुरूप तैयार की जाती और शिक्षकों-शिक्षार्थियों को पढ़ने के लिए दी जाती। लेकिन गाँधी को इन सब बातों से कुछ खास लेना-देना नहीं था। उनके एजेंडे पर दरअसल सबसे ऊपर राजनीति थी। जिसका मकसद था, साम्राज्यवादी शासन की गुलामी से आजादी। अपने इसी राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के लिए वे समाज के सामने शिक्षा का भी ऐसा आदर्श प्रस्तुत करना चाहते थे, कि हिंदू-मुस्लिम दोनों में किसी को भी ये एहसास न हो कि उसे कमतर समझ कर उसकी उपेक्षा की जा रही है। गाँधी ने अपनी अधिकांश ऊर्जा हिंदू-मुस्लिम के बीच संतुलन बैठने में ही गँवा दी। वे ऐसा संतुलन बैठाना चाहते थे जिसमे न हिद् नाराज हों, न मुसलमान और दोनों मिलकर आजादी की लड़ाई में हिस्सा लें। गाँधी को थोड़ा गहराई से पढ़ें तो पाएंगे कि वे हिंदू-मुस्लिम अंतर्विरोधों को ही भारतीय समाज के मूल अंतर्विरोध के रूप में देखते हैं और सबसे पहले इसी को हल कर लेना चाहते हैं। न मालूम इस बात को वे क्यों स्वीकार नहीं कर पाए कि हिंदू-मुसलमान का गठजोड़ किए बगैर भी दोनों आजादी की लड़ाई अपने निजी हितों के लिए लड़ते ही लड़ते। दरअसल गाँधी चाहते थे कि दोनों समुदायों के आजादी के सपने एक से हो जाएँ, जो कि संभव नहीं था। इसलिए कि दोनों समुदायों के अपने अलग सपने और अलग हित थे, जिनमें गहरे अंतर्विरोध थे। इस दौर में गाँधी से होने वाली पहली बड़ी चूक थी, दो भिन्न धार्मिक समुदायों के हित को एक करने का प्रयास। दूसरी बड़ी चूक थी, देशव्यापी राष्ट्रीय आन्दोलनों में बड़ी संख्या में भाग लेने वाली स्त्रियों की उपस्थिति को सिर्फ प्रतीकात्मक बनाए रखना। वे स्त्रियों की राजनीतिक सक्रियता और आन्दोलनों में उत्साहजनक भागीदारी को जरा तंग नजरिए से देखते थे। इस मामले में उनका दृढ मत था कि स्त्रियों का मूल उत्तरदायित्व घर-बार संभालते हुए घर में कुशल पत्नी और ममतामयी मां बन कर रहना है। वे स्त्रियों के हाथ में राजनीतिक शक्ति, सत्ता और नेतृत्व देने के समर्थक नहीं थे। संभवतः इसीलिए स्त्रियों की शिक्षा का कोई ठोस मॉडल उनके एजेंडे में दिखाई नहीं देता। गाँधी ने लिखा है: 'स्त्रियों की विशेष शिक्षा कैसी हो और कहाँ से शुरू हो, इसके विषय में मै खुद निश्चय नहीं कर पाया हूँ'। तीसरी बड़ी चूक थीजाति और वर्ग के अंतर्विरोधों को बहुत धुंधला करके देखने की। दलित समूह सामाजिक रूप से अपमानित-उपेक्षित होने के साथ ही गरीब भी था, जबकि सनातनी समूह सामाजिक रूप से सम्मानित-श्रेष्ठ और अमीर था। गाँधी दलित और सनातनी समूहों में किस स्तर पर 'अंतर' और किस स्तर पर 'विभाजन' है, इस मर्म को जाने-समझे बिना; इन दोनों समूहों को वे अपने राजनीतिक एजेंडे के अनुकूल संतुष्ट कर देना चाहते थे। गाँधी अमीरी और गरीबी के अंतर' को मिटा देना चाहते थे और दलित तथा सनातनी विभाजन का 'अनुकूलन' कर देना चाहते थे, जबकि इसके उलट प्रयास यह होना चाहिए था, कि दलित और सनातनी के 'विभाजन' को मिटाया जाए तथा अमीरी और गरीबी के अंतर का 'अनुकूलन' कर लिया जाए। दलितों और गरीबों के प्रति कोई वास्तविक चिंता न होने के कारण ही गाँधी के पास देश के लाखों दलितों, पिछड़ों और आदिवासी गरीब बच्चों के लिए उच्च शिक्षा, बल्कि शिक्षा की ही कोई ठोस नीति नहीं थी। ऐसे बच्चों के लिए वे 'नई तालीम' और 'बुनियादी शिक्षा' में इस बात पर बल देते हैं : 'बुनियादी शिक्षा का उद्देश्य दस्तकारी के माध्यम से बालकों का शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक विकास करना..... हमारे जैसे गरीब देश में हाथ की तालीम जारी करने से दो हेतु सिद्ध होंगे। उससे हमारे बालकों की शिक्षा का खर्च निकल आएगा और वे ऐसा धंधा सीख लेंगे, जिसका अगर वे चाहें तो उत्तर-जीवन में अपनी जीविका के लिए सहारा ले सकते हैं।'६ गाँधी समाज के सर्वहारा वर्ग के एक बहुत बड़े हिस्से के लिए शिक्षा का जो मॉडल देते हैं, उसे आजकल की प्रचलित शब्दावली में 'स्किल इंडिया' कह सकते हैं। वे इस बड़े हिस्से को सिर्फ पेट भरने और 'नैतिक' बने रहने की ही शिक्षा देने के समर्थक थे। गाँधी इन लोगों की शिक्षा पर न केवल राज्य का खर्च रोकना चाहते थे, बल्कि उन्हें ऐसी शिक्षा लेने की तरफ बढ़ने से भी रोकना चाहते थे, जो मनुष्य में ऐसी तार्किक और राजनैतिक बुद्धि का विकास करती है, जिससे सवाल पैदा होते हैं और यह विवेक भी कि अपने अधिकार पहचानें, शोषण, अन्याय और गैर-बराबरी पर तंज कसें और कठोरता पूर्वक उसका विरोध करें। गाँधी न जाने देश की बहुसंख्यक गरीब जनता को किताबों और पढ़ने-लिखने के कौशल से क्यों दूर रखना चाहते थे? वर्ना वे यह नहीं लिखते कि 'अक्षर-ज्ञान अपने-आप में शिक्षा नहीं है। इसलिए मै बच्चे की शिक्षा का श्री गणेश उसे कोई उपयोगी दस्तकारी सिखाकर और जिस क्षण से वह अपनी शिक्षा का आरंभ करे, उसी क्षण से उसे उत्पादन के योग्य बना कर करूंगा। मेरा मत है कि इस प्रकार की शिक्षा प्रणाली में मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास संभव है। कहना न होगा कि ऐसा मस्तिष्क और ऐसी आत्मा के चाहे जितने 'उच्चतम विकास' की बात गाँधी कर लें, सच यही है कि दुनिया की तमाम पुस्तकें पढ़े बिना, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सिद्धांतों, विचारों और इनपर होने वाले गहनतम चिंतन का ज्ञान हम नहीं पा सकते और बगैर इसके हम ऐसे समाज के निर्माण में अपनी कोई भूमिका नहीं निभा सकते जोशोषणविहीन, समतावादी और न्यायपूर्ण हो, और जिस पर अडिग होकर हम सामान्य मानवीय गरिमा के पक्ष में मजबूती के साथ खड़े होने का साहस जुटा सकते हैं।
हाथ से काम करने का भी महत्व है और किताबों के बगैर भी शिक्षित हुआ जा सकता है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि किताबें और किताबों से मिलने वाली शिक्षा निरर्थक होती हैं। अगर ऐसा होता तो 'सफ़दर हाश्मी' ये न लिखते कि:
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं
किताबों में रॉकेट का राज है
किताबों में साइंस की आवाज है
किताबों का कितना बड़ा संसार है
किताबों में ज्ञान की भरमार है।
क्या तुम इस संसार में नहीं जाना चाहोगे?
बच्चों के लिए लिखे इस गीत में सफ़दर बच्चों में किताबों के प्रति गहरा आकर्षण पैदा करना चाहते थे। सफ़दर बच्चों की शिक्षा अक्षर ज्ञान से आरंभ करना चाहते थे। वे गरीब से गरीब बच्चे का पेट भरने की शिक्षा देने के साथ दिमाग को रौशन करने की शिक्षा देने को भी बेहद जरूरी मानते थे। जबकि गाँधी मानते थे कि : 'हस्त कौशल ही वह चीज है, जो मनुष्य को पशु से अलग करती है। लिखनापढ़ना जाने बिना मनुष्य का सम्पूर्ण विकास नहीं हो सकता, ऐसा मानना एक वहम ही है। इसमें कोई शक नहीं की अक्षरज्ञान से जीवन का सौंदर्य बढ़ जाता है, लेकिन यह बात गलत है कि उसके बिना मनुष्य का नैतिक, शारीरिक और आर्थिक विकास हो ही नहीं सकता। गाँधी देश के लिए विकास का जैसा मॉडल दे रहे थे, उस पर अब कुछ और कहना शेष नहीं।
कुछ वर्ष पहले देश के दो बड़े उद्योगपतियों बिड़ला- अंबानी ने उच्च शिक्षा पर एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसे बिड़ला-अंबानी रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है। देश के समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था और शिक्षा में दिलचस्पी रखने वालों को यह रिपोर्ट पढ़नी चाहिए। यह रिपोर्ट और बहुत सी बातों के साथ इस बात पर विशेष बल देता है कि शिक्षा का क्षेत्र अब सबसे अधिक मुनाफा कमाने वाला क्षेत्र बनता जा रहा है। यानी शिक्षा के व्यवसायीकरण से मुनाफा कमाने का खेल आरंभ। मतलब साफ है, अब शिक्षा सरकार के हाथ से बाहर निकल कर उद्योगपतियों के मुनाफे की वस्तु बनने को अभिशप्त है। निजी हाथों में खेलने को मजबूर है। ऐसा होना तो नहीं चाहिए, पर हो रहा है। और इस होने के विरुद्ध शिक्षकों-बुद्धिजीवियों का भीषण संघर्ष भी लगातार सड़कों पर उतर रहा है। यह सब लिखने का मकसद सिर्फ यह है कि उच्च शिक्षा के बारे में जो बातें बिड़ला-अंबानी रिपोर्ट में है कुछ-कुछ वैसी ही बातें गाँधी ने १९३७ ई. में 'हरिजन' में लिखा : 'मैं कॉलेज की शिक्षा में कायापलट करके उसे राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुकूल बनाऊंगायंत्रविद्या के तथा अन्य इंजीनियरों के लिए डिग्रियां होंगी। वे भिन्न-भिन्न उद्योगों के साथ जोड़ दिए जाएंगे और उन उद्योगों को जिन स्नातकों की जरूरत होगी उनके प्रशिक्षण का खर्च वे उद्योग ही देंगे। इस प्रकार 'टाटावालों' से आशा की जाएगी कि वे राज्य की देख-रेख में इंजीनियरों को तालीम देने के लिए अपना कॉलेज चलाएंगेइसी तरह अन्य उद्योगों के नाम लिए जा सकते हैं। वाणिज्य-व्यवसाय वालों का अपना कॉलेज होगा। अब रह जाते हैं कला, औषधि और खेती। कई खानगी कला-कॉलेज आज भी स्वावलंबी हैं। इसलिए राज्य ऐसे कॉलेज चलाना बंद कर देगा। डॉक्टरी के कॉलेज प्रामाणिक अस्पतालों के साथ जोड़ दिए जाएंगे। चूकि ये धनवानों में लोकप्रिय हैं, इसलिए उनसे आशा रखी जाती है कि वे स्वेच्छा से दान देकर डॉक्टरी के कॉलेज को चलाएंगे और कृषि कॉलेज तो अपने नाम को सार्थक करने के लिए स्वावलंबी होने ही चाहिए'। उन्होंने आगे लिखा : 'राज्य के विश्वविद्यालय खालिस परीक्षा लेने वाली संस्थाएं रहें और वे अपना खर्च परीक्षा शुल्क से ही निकाल लिया करें'मेरी राय में विश्वविद्यालयों की स्थापना के लिए रुपया जुटाना लोकतान्त्रिक राज्य का काम नहीं है'।२१ इस उद्धरण से यह एकदम स्पष्ट हो जाता है कि गाँधी का उच्च शिक्षा से आशय क्या था? और उनके लिए ऐसी शिक्षा का मकसद क्या था? 'टाटावालों' और 'धनवानों' के हाथों उच्च-शिक्षा की बागडोर देकर वे भारत का कैसा सपना देख रहे थे? इसे अलग से समझाने की जरूरत नहीं। शिक्षा और उच्च-शिक्षा की दिशा में आजादी के बाद देश अगर सचमुच गाँधी के पदचिह्नों पर चला होता तो एक मजबूत राष्ट्र के निर्माण में स्वास्थ्य, इंजीनियरिंग, विज्ञान, वाणिज्य और भाषासाहित्य व सामाजिक-विज्ञानों के राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों और महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों से निकलने वाले योग्य और प्रतिभाशाली हजारों युवकों का योगदान नहीं मिलताउच्च-शिक्षा 'टाटावालों', 'उद्योगपतियों' और 'धनवानों' की सेवा और पॉकेट की चीज बनकर रह जाती।
इस बात के लिए हमें गाँधी के 'राजनीतिक उत्तराधिकारी' पंडित जवाहरलाल नेहरु का शुक्रगुजार होना चाहिए कि जिन्होंने भारत में शिक्षा और उच्च-शिक्षा की ऐसी बुनियाद रखी जिसकी ईंटें समाजवादी आंवे में पकी थीं। कहना न होगा कि इस बुनियाद पर खड़े होकर अखिल भारतीय स्तर पर हम एक ऐसे समाज और संस्कृति का निर्माण करने में कामयाब हो सके, जो आज भी अपने विचारों में अधिक से अधिक प्रगतिशील, जनतांत्रिक, सेकुलर और तर्कवादी है। आज बदली हुई सत्ता के इस दौर में सबसे भीषण हमला इसी शिक्षा और इन्हीं मूल्यों पर है, जिसे खून पसीना बहाकर हमारे पूर्वजों ने बड़े परिश्रम से अर्जित किया था। देश के बुद्धिजीवियों के सामने आज का सबसे जरूरी काम इसकी रक्षा की है।
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