समय-संवेद्य'- गाँधी : अस्पृश्यता मुक्त स्वराज्य के अभिलाषी - श्रीभगवान सिंह

श्रीभगवान सिंह-तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष, प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक, अब तक कई पुस्तकों के रचयिता हाल में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का प्रतिष्ठित महात्मा गाँधी सम्मान प्राप्त।


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१९०९ में लिखी गई पुस्तक 'हिन्द स्वराज' के पाठकों को विदित होगा कि इसके लेखक मोहनदास करमचंद गांधी ने 'स्वराज' को परिभाषित करते हुए कहा था “अपने मन पर शासन करना।" यह बात उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के विरूद्ध सत्याग्रह-संग्राम चलाते हुए कही थी। लेकिन यही गांधी जब जनवरी १९१५ में भारत लौटे और देश की सामाजिक वास्तविकताओं को नजदीक से देखते-समझते हुए राजनीतिक एवं सामाजिक परिवर्तनों के लिए आंदोलन में संलग्न हुए तब उन्होंने २५ दिसम्बर १९२० को नागपुर के 'अन्त्यज सम्मेलन' में भाषण करते हुए यह घोषणा कर डाली कि “जब तक हिन्दू समाज अस्पृश्यता के पाप से मुक्त नहीं होता तब तक स्वराज की स्थापना होना असंभव है।" ध्यान रहे यह वही समय था जब गाँधी जी पूरे देश में ब्रिटिश शासन के विरूद्ध असहयोग आंदोलन चलाए हुए थे। जाहिर है गांधी के लिए स्वराज्य का मतलब सिर्फ विदेशी हुकूमत से स्वाधीन होना नहीं था, बल्कि अस्पृश्यता जैसी देशी विकृति के पंजों से मुक्त होना भी स्वराज्य का एक अहम मुद्दा बन गया जिस पर वे जीवनपर्यन्त अमल करते रहे, उसे अपने रचनात्मक कार्यक्रमों का एक अभिन्न अनिवार्य अंग बना कर।


      उल्लेखनीय है कि गाँधी जी ने राजनीतिक पराधीनता के विरूद्ध असहयोगआंदोलन अगस्त १९२० से शुरू किया, स्वराज्य लाने के ध्येय से लेकिन अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराई के विरूद्ध उन्होंने भारत आते ही अभियान शुरू कर दिया जब २५ मई १९१५ को अहमदाबाद में कोचरव स्थान पर सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की। इस आश्रम की स्थापना के पीछे अनेक उद्देश्यों में एक महत्वपूर्ण उद्देश्य था छुआछूत जैसे सामाजिक कोढ़ का उन्मूलन करना ताकि हिन्दू समाज के भाल से यह कलंक हमेशा के लिए मिट जाए। इस संबंध में गाँधी जी द्वारा लिखी गई पुस्तक 'सत्याग्रह आश्रम का इतिहास' (यह पुस्तक १९३२ में यरवदा जेल में रहते हुए उन्होंने लिखी थी) के कुछ अंश गौरतलब हैं-"सत्य का आग्रह रखने के लिए और उसकी खातिर मरना पड़े तो मरने की कला सीखने के लिए जो आश्रम स्थापित हुआ, उसमें अस्पृश्यता को कलंक मानते हुए भी उसे दूर करने की रचनात्मक प्रवृत्ति पैदा न की जाए तो फिर वह सत्याग्रह-आश्रम कैसे कहला सकता है? अस्पृश्यता को पाप मानना मैं और मेरे साथी लोग दक्षिण अफ्रीका में ही सीख गए थे। इसलिए यहाँ आश्रम स्थापित होते ही अस्पृश्यता को मिटाना आश्रम का एक बड़ा कार्य हो गया।"


    जाहिर है आश्रम स्थापित करने के पीछे गांधी जी का बहुत बड़ा संकल्प था-"अस्पृश्यता का उन्मूलन।" इसके अनुरूप उन्होंने आश्रम को 'अस्पृश्यता मिटाने की प्रयोगशाला' बनाने का निश्चय किया, किन्तु यह कार्य बहुत सरल-सहज सिद्ध नहीं हुआ। 'सर मुंडाते ही ओले पड़े वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए आश्रम की स्थापना होते ही अस्पृश्यता से लड़ने की चुनौती उनके सामने आ खड़ी हुई। इस पुस्तक में उसका उल्लेख करते हुए वे कहते हैं-"आश्रम स्थापित होने के बाद एक महीने के भीतर दूदा भाई (ये अस्पृश्य जाति के थे) ने कुटुम्ब सहित आश्रम में रहने की मांग की। मैं नहीं मानता था कि इतनी जल्दी आश्रम की परीक्षा होगी। दूदा भाई को भरती करने की सिफारिश श्री अमृतलाल ठक्कर ने की थी। उनकी सिफारिश वाले परिवार का मुझे स्वागत करना ही चाहिए। इसलिए मैंने उसे आने का पत्र लिख दिया। इस कुटुम्ब के आते ही आश्रम में खलबली मच गई। मैंने देखा कि आश्रम में जो परिवार रहते थे उन्हीं में कहीं-न-कहीं 'अछूतों' के साथ परहेज और घृणा थी। मेरी ही पत्नी में, हालांकि इस बारे में उसे दक्षिण अफ्रीका में बहुत कष्ट सहना पड़ा था, छुआछूत की भावना बाकी थी। ............ यहाँ तक नौबत आई कि मेरी पत्नी इस शर्त का पालन न करती, तो उसे आश्रम के बाहर रहना ही पड़ता। यह मेरे लिए दुखद तो था ही। जिसने आज तक सुख-दुख में बड़ी-बड़ी तकलीफें उठाकर मेरा साथ दिया था, उसका वियोग सहना भारी कष्ट था। मगर धर्म-पालन के लिए कैसे भी संकट आएं, उन्हें सहन तो करना ही था। इसलिए स्वतंत्र रूप में नहीं, परन्तु धर्मपत्नी के नाते पत्नी ने जब छुआछूत को छोड़ दिया, तो इसे स्वीकार करने में मुझे संकोच नहीं हुआ।"


    सिद्ध होता है कि आश्रम का आरम्भ ही गांधी जी ने किया अस्पृश्यता निवारण की प्रयोगशाला बनाकर और इसके लिए वे पत्नी का कष्टकर' वियोग भी सहने को तैयार थेलेकिन उनके दृढ़ संकल्प ने न केवल कस्तूरबा बल्कि मगनलाल गांधी और उनकी पत्नी जैसे अन्य आश्रमवासियों का भी हृदयान्तरित कर दिया और सभी इस अछूत दम्पति को सहर्ष स्वीकार कर उनके अस्पृश्यता-उन्मूलन अभियान को आगे बढ़ाने में जुट गए। इस प्रकार आश्रम के अन्दर की 'खलबली' तो शांत हो गई, लेकिन बाहरी परेशानियाँ भी कम नहीं थीं। इसका जिक्र करते हुए वे उसी पुस्तक में लिखते हैं-"इस तरह आश्रमवासियों में पैदा हुई खलबली शांत हुई। बाहर भी कम खलबली नहीं मची थी। जिन्होंने आश्रम को मदद देने की प्रतिज्ञा की थी, उनमें मुख्य सहायक ने तुरन्त मदद बंद कर दी। कुएँ से पानी न मिलने तक का भय खड़ा हो गया। मगर उससे हम बिना बाधा के पार हो गए और रुपए-पैसे की मदद के बारे में 'नरसी मेहता की हुंडी' स्वीकारने जैसी घटनाएं हुई। अनपेक्षित स्थान से अचानक तेरह हजार के नोट आ पड़े। इस तरह यह माना जा सकता है कि आश्रमवासियों ने दूदा भाई को सब संकट सहकर भी निभा लेने की जो प्रतिज्ञा की थी, वह भारी संकट उठाए बिना ही पूरी हुई। इस तरह अछूतपन मिटाने की परीक्षा में आश्रम उतीर्ण हुआ। अब अछूत परिवार आजादी से आते-जाते हैं और आश्रम में रहते हैं। दूदा भाई की लड़की तो ऐसी हो गई है जैसे परिवार की लड़की हो।" प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि दूदा भाई की इस लक्ष्मी नाम की लड़की को गांधी जी ने बेटी के रूप में गोद ले लिया था।


    कोचरब स्थान पर आश्रम दो वर्षों तक चला और आश्रम से जुड़े कई कार्यों के लिए वहाँ पर पर्याप्त जगह न होने के कारण गांधी जी को अगस्त १९१७ में आश्रम को साबरमती में स्थानान्तरित करना पड़ा। यहाँ आकर उन्होंने आश्रम में वर्णभेद न रहे, उसके लिए जो तरकीब अपनाई उसके मुताबिक वर्णभेद से परे धंधे अपनाए गए। उसी पुस्तक में इसका वर्णन इस प्रकार है-"अछूतों से सम्बंधित तीन धंधे आश्रम में चलते हैं और उनमें सुधार हो रहे हैं। आश्रम में रहनेवाले सभी लोगों को भंगी का काम तो करना ही पड़ता है। दरअसल उसे धंधा नहीं माना जाता, बल्कि वह तो हर एक का फर्ज समझा जाता है। इसलिए पखाना सफाई सब मिलकर करते हैं। दूसरा धंधा बुनाई का है। मोटी खादी गुजरात में तो अछूत जुलाहे ही बुनते थे। उनका धंधा लगभग नष्ट हो गया था और बहुतेरे भंगी का काम करने लगे थे। अब उस धंधे का जीर्णोद्धार हुआ है। तीसरा धंधा चमार का है। वह भी आश्रम में जारी हो गया है। आश्रम में उपजातियों के बंधन नहीं माने जाते, एक दूसरे के साथ खाने में छुआछूत नहीं रखी जाती, इसलिए आश्रम में सभी एक पंगत में खाने बैठते है।"


    वास्तव में देखा जाए तो १९१५ में स्थापित कोचरब एवं १९१७ में स्थापित साबरमती आश्रम ऐसा दर्पण है जिसमें गांधी जी के अस्पृश्यता निवारण संबंधी सोच एवं कार्य को साफ-साफ देखा जा सकता है। अछूतों एवं सवर्णों को एक आश्रम में रखकर तथा छुआछूत से जुड़े कार्यों में सबको समान रूप से संलग्न कर अछूतपन मिटाने का ऐसा प्रयोग हिन्दुस्तान की घरती पर कदाचित अभूतपूर्व था। बौद्धों, सिद्धों एवं मध्यकालीन भक्त कवियों ने जरूर छुआछूत विरोध की एक दीर्घकालीन परम्परा बना रखी थी, किन्तु सामाजिक स्तर पर छुआछूत को मिटाने का ऐसा क्रियात्मक प्रयोग इसके पूर्व शायद ही किसी सवर्ण या अवर्ण ने किया था। यह कहने में तनिक अतिशयोक्ति नहीं कि सदियों के अछूतपन से जर्जर- रूग्ण भारतीय समाज में गाँधी जी प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने मिशनरी अंदाज में अस्पृश्यता जैसी सामाजिक व्याधि से संस्थागत रूप से निबटने का उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्होंने 'ध्यानावस्थित हो चिद्-नम में विचरण करनेवाले ऋषिमुनियों' के प्राचीन आश्रमों से अलग जाकर 'आश्रम' को छुआछूत मिटाने की कारगर प्रयोगशाला के रूप में उसका आधुनिक संस्करण प्रस्तुत किया।


१९१५ में ही कोचरब-सत्याग्रह-आश्रम में अस्पृश्यता को लेकर जो कुछ हुआ, वह इस बात का प्रमाण है कि जब भारत के सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक क्षेत्र में अस्पृश्यता के विरूद्ध सशक्त आवाज में बोलनेवाला राष्ट्रीय ख्याति का कोई नेता नहीं था, तब गांधी ने 'सत्याग्रह आश्रम' के जरिए इस दिशा में एक युगान्तरकारी कार्य कर डाला जिसे वे उत्तरोत्तर आगे राष्ट्रव्यापी बनाते गए। १९२० में जब उन्होंने राष्ट्रव्यापी असहयोग-आंदोलन शुरू किया तब उनके सामने दलित वर्ग से यह सवाल पेश हुआ था कि 'स्वराज्य से अछूतों का क्या लाभ होने वाला है। तभी गाँधी ने कहा था कि 'अस्पृश्यता के पाप से मुक्त हुए बिना स्वराज्य की स्थापना संभव नहीं।' यही नहीं, असहयोग-आंदोलन के पक्ष में जनता को लामबंद करने हेतु गाँधी जी देश के जिस भाग में गए, वहाँ उन्होंने अस्पृश्यता को हिन्दू धर्म का अंग माननेवाले सनातनी सवर्ण हिन्दुओं से इसे हिन्दू धर्म का कलंक बताते हुए उसे मिटाने तथा अस्पृश्यों को सामाजिक जीवन में बराबरी का दर्जा देने का आह्वान किया। मसलन १६ सितम्बर १९२१ को मद्रास (अब चेन्नई) में मजदूरों की सभा में बोलते हुए गांधी जी ने कहा "पंचम जाति जैसी कोई चीज हिन्दू धर्म में है ही नहीं। छुआछूत की भावना ईश्वर और मानवता दोनों के प्रति अपराध है। यह हिन्दू धर्म का कलंक है। मेरे साथी मजदूरों, मैं आपसे आग्रह करता हूँ कि अपने दिल से यह भावना निकाल दें कि पंचम भाई अछूत या किसी और से नीचे हैं।"


    आलेख की सीमा को ध्यान में रखते हए यहाँ बहत विस्तार में जाना संभव नहीं, लेकिन 'सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय' को पढ़ने से ज्ञात होता है कि १९२०-२१ के बीच असहयोग आंदोलन के प्रचारार्थ गाँधी ने जहाँ पूरे देश में राष्ट्रीय जागृति की लहर ला दी, वहीं अस्पृष्यता विरोधी लहर भी देष में फैला दी। मार्च १९२२ में चौरीचौरा की हिंसक घटना के बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन को जरूर स्थगित कर दिया लेकिन अपने रचनात्मक कार्यक्रम के अन्तर्गत वे अस्पृष्यता विरोधी अभियान को चलाते रहे। साबरमती के इस संत का अस्पृश्यता विरोधी अभियान का सुदुर तब के मद्रास प्रांत में कैसा असर पड़ा, इस संबंध में एक घटना का उल्लेख प्रासंगिक है।


    गाँधी जी के सचिव महादेव भाई देसाई ने 'गाँधी जी के साथ पचीस वर्ष' नाम से लिखी डायरी (जो सर्वसेवा संघ, वाराणसी से प्रकाशित है) के खण्ड सात में पृ. ५ से १३ तक इस घटना का विस्तृत विवरण दिया है। उस विवरण का सार संक्षेप यह है कि “तिरूपति के पास तिरूचन्नुर नाम की जगह है। वहाँ के मंदिर की भी वैसी ही महिमा है जैसी तिरूपति के मंदिर की है। दिसम्बर १९२५ में माला जाति का एक अन्त्यज इस मंदिर में दर्शन कर आया और उस पर यह आरोप लगाया गया कि ऐसा करके उसने भारत के फौजदारी कानून की २९५वीं धारा । के अनुसार धर्म का अपमान करने और पवित्र स्थान को अपवित्र फिरकापरस्त करने का अपराध किया। उस पर यह आरोप साबित हुआ भी माना गया और उसे ७५ रुपए जुर्माने की अथवा जुर्माना अदा न करे तो एक महीने की सख्त कैद की सजा हुई।"


    महादेव भाई आगे बताते हैं कि इस दर्दनाक कहानी की बात श्री राजगोपालाचार्य के कानों तक पहुँची। वे काँप गए। उनके मित्रों ने आग्रह किया कि जहाँ अपील होती है, वहाँ जाकर कृपा करके सहायता क्यों न दें? राजा जी पहुंचेसात वर्ष बाद राजगोपालाचार्य पहली बार अदालत में हाजिर हुए (क्योंकि १९२० में असहयोग आंदोलन के समर्थन में उन्होंने वकालत छोड़ दी थी) बहुत विस्तार में न जाकर यह देखना महत्वपूर्ण है कि जो राजा जी ने अन्त्यज अभियुक्त के बचाव पक्ष में दलीलें दीं। उनकी दलीलों का प्रमुख अंश पू. १० से १२ तक इस प्रकार है-"वह अन्त्यज है, वह मानता है कि वह हिन्दू है और यह मानता है कि हिन्दू-मंदिर में पूजा करने का उसे हक है। यदि प्रवेश के लिए सजा दी जाए तो अनेक जिम्मेवार और प्रतिष्ठित हिन्दु आकर कहेंगे कि इसका हक उचित है। उसने अपना दावा अत्यन्त शांति से किया है, वह दरवाजे तोड़कर या खोल कर अंदर नहीं घुसा। उस पर धर्म का अपमान करने का आरोप लगाया ही नहीं जा सकता। महात्मा गाँधी ने अस्पृश्यता निवारण की जो प्रवृत्ति व्यापक बना दी है, काँग्रेस ने जिस प्रवृत्ति को अपनाया है और अस्पृश्य माने जानेवाले वर्ग में जो जागृति आई हैं तथा ऊँचे वर्ग के बहुत-से हिन्दू उन्हें स्पृश्य और हिन्दू मानने लगे हैं, इसे ध्यान में रखकर इन अन्त्यजों का मंदिरों में पूजा करने का अधिकार प्रामाणिक मानना चाहिए। ......... यह बेचारा अन्त्यज तो कई बरसों से प्रतिवर्ष इस मंदिर के पास जाता और नम्रता से और भोलेपन से अपना नारियल और कपूर बाहर के दरवाजे के आगे रखकर चला जाता था। इस वर्ष संभव है कि गाँधी युग की गर्जना की झंकार उसके कानों पर पड़ी और उसकी विनम्र आत्मा के तार झनझना उठे।"


    राजा जी की इन दलीलों के कायल होकर मजिस्ट्रेट ने अन्त्यज अभियुक्त को सजा मुक्त किया, साथ ही उनकी ये दलीलें इस तथ्य के भी प्रमाण हैं कि कैसे . साबरमती से सुदूर मद्रास प्रांत में गाँधी की अस्पृश्यता-विरोधी 'गर्जना की झंकार' से लोगों की आत्मा के तार' झनझना उठे थेयहाँ यह बात विषेष रूप से ध्यान म रखने की है कि अस्पृष्यता विरोधी यह लहर तब फैल चुकी थी जब भारतीय रंगमंच पर डॉ. भीमराव अम्बेडकर जैसे तेजस्वी नेता की कोई खास पहचान नहीं बन पाई थी। हाँ, इसके पीछे गाँधी को आर्य समाज के अछूतोद्वार-कार्य से जरूर प्रेरणा मिल रही थी। अपने समकालीन आर्य समाजी नेता स्वामी श्रद्धानंद के अछूतोद्वार कार्य से गांधी की गहरी अनुरक्ति थीमहादेव भाई ने अपनी डायरी के आठवें खण्ड में उन विविध प्रसंगों का उल्लेख किया है कि जब दिसम्बर १९२६ में श्रद्धानंद जी की एक फिरकापरस्त द्वारा हत्या कर दी गई तब गांधी जी देश में जहाँ कहीं जाते वहाँ पर लोगों से यही गुहार लगाते कि श्रद्धानंद जी के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी जब हम उनके अछूतपन को मिटाने के सपने को साकार करें।


  गाँधी के इस अस्पृश्यता-विरोधी अभियान में तब और त्वरा आई जब १९२७ में महाराष्ट्र में पानी के सवाल को लेकर किए गए 'महाड़ आंदोलन' के फलस्वरूप डॉ. अम्बेडकर अस्पृश्यता के सवाल पर एक दहकते गोले की तरह सामने आए। अंग्रेजों ने 'फूट डालो और राज करो' वाली अपनी पुरानी रीति के अनुरूप डॉ. अम्बेडकर को फुसलाया और १९३१ में लंदन में होनेवाले दूसरी गोलमेज परिषद् में उन्हें दलित समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में आमंत्रित किया। इस सम्मेलन में काँग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप गाँधी जी शामिल हुए थे। सम्मेलन में डॉ. अम्बेडकर अस्पृश्यों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की मांग पर अड़े रहे, तो गाँधी इस मांग का इस तर्क से विरोध करते रहे कि ऐसा करने से दलित समुदाय शेष हिन्दू समाज से अलग-थलग पड़कर और बदतर हालात में पहुँच जाएगा। अंततः गांधी यह चेतावनी देकर भारत लौटे कि अगर सरकार ने पृथक निर्वाचक मंडल की मांग स्वीकार कर ली, तो वे इसके विरूद्ध आमरण अनशन करेंगे। लेकिन सरकार ने उनकी इस चेतावनी की घनघोर उपेक्षा करते हुए अगस्त १९३२ में पृथक निर्वाचन मंडल लागू करने की घोषणा कर दी, तो गाँधी ने भी इसके विरूद्ध २० सितम्बर से आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी और पूना जेल में बंदी रूप में रहते हुए उन्होंने २० सितम्बर से आमरण अनशन शुरू कर दिया।


      गाँधी जी के इस अनशन से पूरा देश सकते में आ गया। राजगोपालाचार्य, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पं. मदनमोहन मालवीय, तेज बहादुर सपू जैसे राष्ट्रीय ख्याति के नेता गाँधी और अम्बेडकर के बीच समझौता करने के लिए दौड़-धूप करने लगे। फलस्वरूप २६ सितम्बर को डॉ. अम्बेडकर की सहमति से 'पूना समझौता' हुआ जिसमें डॉ. अम्बेडकर ने समझदारी का परिचय देते हुए 'पृथक निर्वाचन' की मांग छोड दी। दूसरी तरफ काँग्रेस के नेता अस्पश्यता निवारण के कार्य में और तेज गति से लग गए।


    पूना समझौते के बाद गाँधी जी ने भी अस्पृश्यता-नाश के लिए अस्पृश्यों के लिए मंदिर-प्रवेश का आंदोलन चलाया ताकि धार्मिक स्तर पर भी उन्हें अन्य हिन्दुओं के समक्ष बराबरी का दर्जा प्राप्त हो सके। बहुत जगहों पर सार्वजनिक तालाबों एवं कुओं को अस्पृश्यों के लिए भी सुलभ कराया गया। गाँधी जी ने अछूतों के लिए 'हरिजन' शब्द का चलन शुरू किया और अंग्रेजी में 'हरिजन' तथा हिन्दी में 'हरिजन सेवक' नाम से पत्रों का प्रकाशन शुरू किया। मंदिरों में हरिजनों के प्रवेश के लिए उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूरब से लेकर पश्चिम तक जबर्दस्त आंदोलन चलाए गए जिसमें काफी संख्या में सवर्ण हिन्दू शामिल होकर इस कार्य को सफल बनाने में जुट गए। लेकिन मंदिर-प्रवेश का यह आंदोलन विरोध से अछूता नहीं था। कई जगहों पर गाँधी को पंडे-पुजारियों का कोप-भाजन बनना पड़ा। जगन्नाथपुरी के मंदिर में उन्हें हरिजनों के साथ प्रवेश नहीं करने दिया गया। काशी विश्वनाथ मंदिर के पंडों ने काले झंडे से उनका स्वागत' किया। हरिजनों के मंदिरप्रवेश को लेकर काशी के पंडों ने जो निष्ठुरता दिखाई, उसका जयशंकर प्रसाद ने अपनी 'विराम-चिह्न' शीर्षक कहानी में बड़ा ही दर्दनाक चित्र उतार कर रख दिया है। इस कहानी का मुख्य पात्र राधे अछूत जाति वालों का मंदिर-प्रवेश के लिए नेतृत्व करता है लेकिन कंज बिहार नाम के पंडे की लाठी के जबर्दस्त प्रहार से वह मांस का लोथ बन कर रह जाता है। २५ जून १९३४ को गाँधी जी जब हरिजन उद्धार हेतु महाराष्ट्र को दौरा करने के लिए पूना गए, तब वहाँ के म्युनिसिपल हॉल के पास उन पर बम से हमला किया गया। हालांकि वे बाल-बाल बच गए लेकिन उनके दल के कुछ सदस्य जरूर घायल हुए। इस अवसर पर गांधी ने जो कहा वह नोट करने लायक है-"मैं शहीद होने के लिए लालायित नहीं हूँ परन्तु उस धर्म की रक्षा के कर्तव्य-पालन में जो करोड़ों हिन्दू भाइयों की तरह मेरा धर्म है, यह मुझे प्राप्त होता है, तो मैं सचमुच इस पद का अधिकारी होऊँगा।" (जे. बी. कृपालानी कृत महात्मा गाँधी, पृ. १५८ से)


    वस्तुतः गाँधी जी के लिए हरिजनों का मंदिर प्रवेश का सवाल इतना महत्वपूर्ण हो गया कि उन्होंने अपने साथियों एवं पारिवारिक जनों को भी उन मंदिरों में जाने से वर्जित कर दिया था जिनमें हरिजनों को प्रवेश करने की मनाही हो। इस संबंध में उल्लेखनीय है एक वाकया जिसका उल्लेख महादेव भाई के पुत्र नारायण देसाई ने 'बापू की गोद में' नामक संस्मरणात्मक पुस्तक (सर्व सेवा संघ, वाराणसी से प्रकाशित) में पृ. ५४ से ५८ तक किया है।


    वाकया १९३८ का है जब गाँधी सेवा-संघ की बैठक उड़ीसा में पुरी जिले के डेलाँग गाँव में हुई थी। "यहाँ पर गाँधी जी के दर्शनार्थ हजारों की संख्या में भीड़ जमा हो गई थी। इस भीड़ के सामने बापू ने पुरी के मंदिर का जिक्र किया और कहा जब तक यह मंदिर हरिजनों के लिए खुला नहीं किया जाता तब तक जगन्नाथ को सही माने में जगत का नाथ नहीं कहा जाएगा, बल्कि मंदिर की छाया में पेट भरनेवाले पण्डों का नाथ कहा जाएगा।" हरिजन-यात्रा के समय बापू का प्रवेश पूरी के मंदिर में नहीं हो सका था, उलटे उन पर हमला किया गया था।"


    नारायण देसाई लिखते हैं कि वहाँ पर कस्तूरबा, उनकी माँ भी आई थी। उन सब ने पुरी जाने की इच्छा व्यक्त की तो गांधी जी ने समझा कि वे पुरी स्नान करने हेतु जाना चाहती हैं, इसलिए उन्होंने महादेव देसाई को इन्हें पूरी जाने की व्यवस्था कर देने को कहा। महादेव देसाई इन्हें लेकर पुरी गए। वहाँ पर समुद्र-स्नान करने के बाद कस्तूरबा, महादेव देसाई तथा उनकी पत्नी दुर्गा बहन ने पुरी के मंदिर में जाकर पूजा भीकर डाली। इससे गाँधी जी को बहुत सदमा पहुँचा। बापू ने अपनी वेदना गांधी-सेवा-संघ के सदस्यों के सामने इन शब्दों में प्रकट की "बा मंदिर में न जाती तो मैं पाँच गज ऊँचा चढ़ जाता। उसके बदले मैं नीचे गिराजिस ताकत से मेरा काम चल रहा था, उसी का मानो ह्रास हुआ, ऐसा मुझे लगा। आज तो हरिजन मानते ही हैं कि हम उनको ठग रहे हैं और वे वैसा क्यों नहीं मानेंगे? हम तो मंदिर में जाते हैं, हरिजनों को जहाँ प्रवेश नहीं है, ऐसे स्थानों का उपयोग करते हैं, तो ये कैसे समझेंगे कि हमने हरिजनों को अपनाया है।"


    सच तो यह है कि अस्पृश्यता निवारण हेतु गाँधी जी मा ने जितना किया उतना शायद ही हमारे इतिहास में किसी ने किया हो। उनके अस्पृश्यता निवारण संबंधी विचारों तथा कार्यों का । इतना विस्तृत फलक है कि उसे लेकर एक भारी-भरकम ग्रंथ लिखा जा सकता है। गाँधी ने भले ही अस्पृश्यता-उन्मूलन के लिए वर्ण-व्यवस्था का खुल्लमखुला विरोध नहीं किया जिस तरह मध्यकाल में निर्गुनिया संत कवियों ने किया था या उनके सामने ही डॉ. अम्बेडकर कर रहे थेइसका एक महत्वपूर्ण कारण यह था कि गाँधी सभी जातियों, सम्प्रदायों एवं वर्गों को साथ लेकर विदेशी शासन को अपदस्थ करने हेतु संयुक्त मोर्चा बनाकर रखना आवश्यक समझ रहे थे। वर्ण-व्यवस्था विरोधी तेवर अपनाने से सवर्ण हिन्दुओं का इस साम्राज्यवाद विरोधी संयुक्त मोर्चे से अलग हो जाने का खतरा था। बावजूद इसके उन्होंने अस्पृश्यता को हिन्दू धर्म एवं हिन्दू समाज का कलंक मानते हुए उसे मिटाने में कोई कसर नहीं रहने दी। १९३२ के बाद तो वे अन्तर्जातीय विवाह का भी समर्थन करने लगे और बाद में तो यहाँ तक घोषणा कर डाली कि वे उसी विवाह में शरीक होंगे जिसमें वर या वधू में से कोई एक दलित समुदाय का होगा। यह अस्पृश्यता यद्यपि जड़-मूल से नष्ट नहीं हुई, फिर भी गाँधी के इस अस्पृश्यता विरोधी आंदोलन को पूरे देश में हिन्दू समाज के दामन में विद्यमान इस कचरे का सफाया करने में आशातीत सफलता प्राप्त हुई। गांधी ने आर्य-समाज की तरह 'शुद्धि' आंदोलन यानी मुसलमान बन गए हिन्दुओं को फिर से 'हिन्दू' बनाने की मुहिम नहीं चलाई, लेकिन आर्य-समाज द्वारा शुरू किए गए अछूतोद्वार को उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार दिया, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।


  गाँधी जी ने अस्पृश्यता-उन्मूलन के लिए जितने प्रयास किए, उसके महत्व को उजागर करते हुए प्रसिद्ध गाँधीवादी चिंतक धर्मपाल जी अपने एक लेख 'गाँधी की अन्तर्दृष्टि' में जो कहते हैं वह ध्यान में रखने योग्य है-"अस्पृष्यों एवं अन्त्यजों के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती कुछ बातें किया करते थे, दूसरे लोग भी किया करते थे, लेकिन भारत में छुआछूत की जो पद्धति चल रही थी, वह मुख्यतः गाँधी जी के प्रयासों से हल्की पड़ी। अस्पृश्यता हटाने में अनक का हाथ रह अनेक का हाथ रहा, लेकिन गाँधी जी ने इसे लेकर जो-जो काम किया. उससे अस्पश्य समाज के रास्ते खुल गए और अपना रास्ता तय करना उनके लिए आसान हो गया।.......... उन्होंने अस्पृश्यों के . पक्ष में अनेक फैसले करवाए जो हो सकता है उन लोगों को पसंद न आए हों, वे बाद में गाँधी जी से नाराज भी हुए हों लेकिन उनके लिए जो रास्ते खुलवाने थे महात्मा गांधी ने खुलवा ही दिए। उन रास्तों के खुलने के बाद फिर डॉ. अम्बेडकर जैसे लोग भी बड़ा काम कर सके और अन्य लोग भी कर सके।"


    उपरोक्त तथ्यों के आलोक में यह स्पष्ट है कि जिस स्वाधीनता-आंदोलन का नेतृत्व महात्मा गांधी ने किया उसका एक लक्ष्य विदेशी पराधीनता से देश को मुक्त कराना था, तो दूसरा लक्ष्य अस्पृश्यता जैसी बुराई से मुक्त कराना था क्योंकि उनके लेखे 'स्वराज्य' का मतलब सिर्फ 'गोरे' की जगह पर 'काले' को आसीन कर देना नहीं था बल्कि उत्पीडित, दमित जनों का उद्धार था। सिद्ध है कि गाँधी 'अस्पृष्यता के पाप से मुक्त समाज' के प्रबल अभिलाषी थे।


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