समय-संवाद - 'ग्रामोद्योगों के डॉक्टर' : जे.सी. कुमारप्पा और गाँधी - शुभनीत कौशिक

शुभनीत कौशिक - सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएच.डी. शोध-शीर्षक - 'मेकिंग ऑफ ए लिटरेरी वर्ल्ड : हिन्दी साहित्य सम्मेलन एंड नॉलेज प्रोडक्शन इन द हिन्दी पब्लिक स्फियर, 1910-1960' आधुनिक भारत के इतिहास, महात्मा गांधी के जीवन दर्शन और हिंदी साहित्य के इतिहास में गहरी रुचि। हिंदी की पत्रिकाओं में इतिहास और समकालीन मुद्दों पर नियमित लेखन। संप्रति : असिस्टेंट प्रोफेसर, इतिहास विभाग, सतीश चंद्र कॉलेज, बलिया, उत्तर प्रदेश


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महात्मा गांधी के आर्थिक विचारों को व्यावहारिक रूप देने, 'गांधीवादी अर्थशास्त्र' की नींव डालने और उसके अनुरूप आर्थिक चिंतन का काम जिन विद्वानों ने किया, उनमें अर्थशास्त्री जे.सी. कुमारप्पा (१८९२-१९६०) अग्रणी हैंतंजौर के एक ईसाई परिवार में जन्मे जे.सी. कुमारप्पा ने कोलम्बिया यूनिवर्सिटी से लोक-वित्त की पढ़ाई की। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडविन सेलिगमन के निर्देशन में उन्होंने 'लोकवित्त और भारत में निर्धनता' विषय पर एक शोध-पत्र लिखा। हिंदुस्तान में गरीबी की समस्या पर जे.सी. कुमारप्पा के इस कार्य से भारतीय पाठकों को महात्मा गांधी ने यंग इंडिया में १९२९ में प्रकाशित अपनी एक टिप्पणी से परिचित कराया।


      जे.सी. कुमारप्पा के विचार को उद्धत करते हुए गांधी ने लिखा कि 'कुमारप्पा के कथनानुसार जहाँ अमेरिका में ऋण, सेना और प्रशासन पर ४८.८ फ़ीसदी खर्च किया जाता है, वहीं भारत में ९३.७ फ़ीसदी खर्च होता है। भारत द्वारा इस तरह खर्च किया हुआ पैसा ज़्यादातर बाहर ही चला जाता है और अमेरिका द्वारा खर्च किया हुआ पैसा अमेरिका में ही रहता है। इस तरह संसार का सबसे गरीब देश भारत प्रशासन पर जितना खर्च करता है, संसार के सबसे ज्यादा धनी देश अमेरिका का खर्च उससे लगभग आधा होता है।' गांधी ने हिंदुस्तान पर पड़ रहे इस बोझ के खात्मे को स्वराज्य के लिए जरूरी कदम बताते हुए लिखा : 'जब तक हमें पीस डालने वाला यह बोझ दूर नहीं किया जाता चाहे उसे औपनिवेशिक स्वराज्य कहें या पूर्ण स्वराज्य, स्वराज्य नहीं होगा।'२


    नवंबर १९२९ से जनवरी १९३० तक यंग इंडिया के पन्नों में जे.सी. कुमारप्पा के लोक-वित्त विषयक उपरोक्त लेख सिलसिलेवार ढंग से प्रकाशित हुए और अप्रैल १९३० में जे.सी. कुमारप्पा के ये लेख 'पब्लिक फाइनेंस एंड अवर पॉवर्टी' शीर्षक से पुस्तक रूप में भी प्रकाशित हुए। इस पुस्तक की प्रस्तावना में महात्मा गांधी ने लिखा कि 'इन लेखों में अंग्रेज-सरकार की आर्थिक नीति तथा भारत के सर्वसाधारण पर उसके प्रभाव पर विचार किया गया है। इसलिए ये लेख बहुत समयानुकूल हैं। मैं भारतीयों तथा पाश्चात्य देशों के लोगों से भी यह पुस्तिका पढ़ने का अनुरोध करता हूँ।'३ उसी वक्त महात्मा गांधी के कहने पर जे.सी. कुमारप्पा ने गुजरात के ग्रामीण इलाकों के सर्वेक्षण का काम संभाला और इस क्रम में उन्होंने गुजरात के खेड़ा जिले के मातर तालुका का सर्वेक्षण करते हुए एक विस्तृत रिपोर्ट भी तैयार की।


    जे.बी. पेनिंगटन ने जब कुमारप्पा के इन लेखों की आलोचना करते हुए ब्रिटिश शासन द्वारा स्थापित शांति से भारत को हुए लाभों का उल्लेख किया और भारत की स्वतन्त्रता के संबंध में आशंकाएँ व्यक्त की, तो इसका प्रत्युत्तर गांधी ने यंग इंडिया में प्रकाशित अपने लेख में बखूबी दिया। पेनिंगटन के तर्कों पर टिप्पणी करते हुए गांधी ने लिखा कि 'देश के किसी उपजाऊ और समृद्ध हिस्से में चंद एकड़ जमीन के लिए दी गई ऊंची कीमतों से एक महादेश की सामान्य खुशहाली साबित नहीं होती। जहाँ-तहाँ देखी जाने वाली समृद्धि के इक्के-दुक्के तथ्यों के मुकाबले एक गंभीर और कठोर तथ्य यह है कि भारत देश के रूप में सामान्य रूप से दरिद्र है।' और यह दरिद्रता ऐसी है कि हिंदुस्तान के गाँवों में जाने वाला कोई भी शख्स उसे अपनी आँखों से देख सकता है। भारत में ब्रिटिश शासन के बारे में गांधी ने कहा कि उसका उद्देश्य कोई कल्याणकारी शासन नहीं है, बल्कि हिंदुस्तान की स्थिति किसी जागीर के ऐसे गुलाम सरीखी है, जिसका मालिक उन्हें बाहरी हमलों से सुरक्षित रखता है, उनमें आपसी लड़ाई नहीं होने देता, इस तरह अपनी स्वार्थ-सिद्धि के साधन के रूप में उन्हें गुलाम बनाए रखता है। गांधी ने यह भी कहा कि 'अगर मेरे सामने और कोई चारा न होगा तो मैं वर्तमान शासन तथा इसकी दी हुई जिस शांति का इतना ढिंढोरा पीटा जाता है, उसकी बजाय अराजकता को पसंद करूंगा। बेशक कुशासन से अशासन बेहतर है।


समितियों में डॉ. कुमारप्पा और ग्रामोद्योग संघ की स्थापना


      उल्लेखनीय है कि सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान _महात्मा गांधी के गिरफ्तार होने के बाद जे.सी. कमारप्पा ने कुछ समय तक यंग इंडिया का सम्पादन भी किया था। १९३१ में ही जे.सी. कुमारप्पा 'बहादुरजी समिति' के सदस्य भी रहे, जोकि ब्रिटेन और भारत की पारस्परिक देनदारी के संबंध में जाँच करने के लिए अखिल भारतीय कांग्रेस समिति द्वारा नियुक्त की गई थी। इस समिति की अध्यक्षता डी.एन. बहादुरजी कर रहे थे और इस समिति में भूलाभाई देसाई और के.टी. शाह भी शामिल थे। समिति ने अपनी रिपोर्ट में १८५७ के पूर्व से लेकर १९२१ तक ब्रिटेन व भारत की लेनदारी की गणना करते हुए निष्कर्ष निकाला कि ब्रिटेन द्वारा भारत को ७२९ करोड़ रूपये अदा किए जाने चाहिए। इस रिपोर्ट की विस्तृत समीक्षा महात्मा गांधी ने यंग इंडिया में प्रकाशित की थी।


आगे चलकर महात्मा गांधी के नेतृत्व में ग्रामोद्योगों को पुनर्जीवित करने हेतु अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ की स्थापना और उसके क्रियाकलापों को सुचारु रूप से संचालित करने में भी जे.सी. कुमारप्पा ने अहम भूमिका निभाई। ग्रामोद्योग संघ की स्थापना दिसंबर १९३४ में वर्धा में हुई थी। ग्रामोद्योग संघ का उद्देश्य था : ग्रामों का पुनर्गठन और नवरचना जिसमें ग्रामोद्योगों को पुनरुज्जीवित करना, उन्हें प्रोत्साहन देना और उनकी उन्नति करना शामिल था तथा ग्रामवासियों की नैतिक और भौतिक दशा सुधारना। कुमारप्पा जहाँ ग्रामोद्योग संघ के संगठनकर्ता और मंत्री बनाए गए, वहीं श्रीकृष्णदास जाजूजी को संघ का अध्यक्ष व कोषाध्यक्ष नियुक्त किया गया। संघ के अन्य संस्थापकसदस्य थे : श्रीमती गोसीबेन कैप्टन, शूरजी वल्लभदास, डॉ. प्रफुल्ल घोष, खान अब्दुल जब्बार खान, लक्ष्मीदास  पुरुषोत्तम आसर, शंकरलाल बैंकर।


दिसंबर १९३८ में मध्य प्रांत की सरकार ने एक औद्योगिक सर्वेक्षण समिति नियुक्त की, जिसकी अध्यक्षता डॉ. जे.सी. कुमारप्पा कर रहे थे। इस समिति को मध्य प्रांत में उद्योग-विभाग द्वारा किए गए कार्यों का विवरण एवं उसका पुनरीक्षण, लघु एवं कुटीर उद्योगों से संबंधित आंकड़े जुटाने, औद्योगिक सर्वेक्षण की पद्धति पर विचार, गाँवों की आर्थिक दशा और कुटीर उद्योग के पुनरुद्धार की संभावना की जाँच के साथ-साथ प्रांत में उपलब्ध कच्चे माल और औद्योगिक संभावनाओं की विस्तृत रिपोर्ट तैयार करना था। समिति की रिपोर्ट के बारे में जे.सी. कुमारप्पा ने लिखा था कि इस सर्वेक्षण का 'निश्चित उद्देश्य उपयुक्त नुस्खा बताकर रोगी की जान बचाना है, और यह एक राष्ट्रीय आयोजन है - सारे देश में लागू की जाने वाली आयोजना नहीं, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसके कार्यक्षेत्र में उपलब्ध कच्चे माल के आधार पर उसकी आर्थिक प्रवृत्ति निर्धारित करने वाली आयोजना।'६ महात्मा गांधी ने इस रिपोर्ट की विस्तृत चर्चा मई १९३९ से जुलाई १९३९ तक हरिजन में कई भागों में छपे अपने लेख में की थी। साथ ही, उन्होंने इस रिपोर्ट के प्रासंगिक हिस्सों को उद्धत भी कियाथा।


स्थायी समाज-व्यवस्था की ओर


    २० अगस्त १९४५ को जे.सी. कुमारप्पा की प्रसिद्ध पुस्तक 'द इकॉनमी ऑफ परमानेस' (हिन्दी में 'स्थायी समाज-व्यवस्था' शीर्षक से प्रकाशित) की प्रस्तावना में गांधी ने लिखा कि कुमारप्पा ने अपनी पूर्व पुस्तक 'प्रैक्टिस एंड प्रीसेप्ट्स ऑफ जीसस' की तरह यह किताब भी जेल में रहते हुए लिखी है। पुस्तक की अनुशंसा करते हुए गांधी ने लिखा :


          हमारे ग्रामोद्योग के इस डॉक्टर [कुमारप्पा] ने दिखाया है कि ग्रामोद्योग के बल पर हम, आज हमारे चारों ओर                  दिखाई देने वाली, इस अस्थिर अर्थव्यवस्था के बदले स्थायी अर्थव्यवस्था प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने इस प्रश्न का              समाधान प्रस्तुत किया है - क्या शरीर आत्मा को पराभूत कर उसका हनन करेगा, या आत्मा शरीर पर विजयी                  होकर उस नश्वर शरीर के माध्यम से अपने को व्यक्त करेगा जिसे अपनी चंद आवश्यकताओं की शुभ संतुष्टि के              उपरांत अनश्वर आत्मा के उद्देश्य की पूर्ति में सहायता देने का पूरा अवकाश रहेगा? यह है 'सादा जीवन उच्च                  विचार'।"


        १९४५ में छपी इस किताब का दूसरा संस्करण तीन साल बाद छपा और डॉ. कुमारप्पा द्वारा लिखित इस किताब का दूसरा भाग भी, जो योजना निर्माण, कृषि, ग्रामोद्योग आदि से संबंधित था, नए संस्करण में शामिल किया गया। यह पुस्तक डॉ. कुमारप्पा ने जबलपुर सेंट्रल जेल में रहते हुए लिखी और इसे उन्होंने अहिंसा पर आधारित समाज-व्यवस्था खोज के रूप में देखा। कुमारप्पा ने अर्थशास्त्र में नैतिक मूल्यों के महत्त्व पर जोर देते हुए इस किताब की प्रस्तावना में लिखा है कि 'धर्म का दैनिक जीवन से कोई संबंध न रहने से अर्थशास्त्र में भी नैतिक मूल्यों का ख्याल रखना चाहिए, यह बात दृष्टि से ओझल हो गई है और केवल रुपया, आना, पाई का ही विचार उसमें रह गया है।८


      प्राकृतिक रूप से मौजूद व्यवस्थाओं को डॉ. कुमारप्पा ने पाँच वर्गों में रखा : परोपजीवी, आक्रामक, पुरुषार्थयुक्त, समूहप्रधान और सेवाप्रधान। इन पाँच व्यवस्थाओं को उन्होंने मानवीय विकास की मंजिलों के रूप में देखा और आगे उन्होंने इन्हें मानव-समाज की तीन अवस्थाओं के अंतर्गत रखा। परोपजीवी व आक्रामक व्यवस्था को उन्होंने प्राथमिक या जंगली अवस्था का, पुरुषार्थयुक्त व समूहप्रधान व्यवस्था को आधुनिक या मानवावस्था का और सेवाप्रधान व्यवस्था को उन्नत या आध्यात्मिक अवस्था का द्योतक माना। समाजव्यवस्था की बात करते हुए डॉ. कुमारप्पा ने आर्थिक मूल्यों के पैमाने की भी विस्तारपूर्वक चर्चा की। साथ ही, उन्होंने यह सवाल भी उठाया कि क्यों वर्तमान अर्थव्यवस्था में उत्पादक और उसका परिवार अपने ही उत्पादों का उपभोग करने से वंचित रह जाता है और इसके दूरगामी प्रभाव क्या होते हैं। इस क्रम में उन्होंने स्थानीय उत्पादों के स्थानीय उपभोग पर विशेष बल दिया और उपभोक्ता के जीवन और उसके विचारों को उत्पादक के जीवन और कार्यशक्ति से जुड़ा हुआ माना।


  योजनाओं के बारे में डॉ. कुमारप्पा का विचार था कि ये योजनाएँ बाध्यकारी नहीं होनी चाहिए। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा कि 'कोई योजना मनुष्य के इर्द-गिर्द दुर्लंघ्य दीवारें न खड़ी कर दे, ताकि उसका जीवन एक किस्म का जेल ही बन जाए। वह तो खेत के इर्द-गिर्द बने बाड़ के सदृश हो, जो किसी के जानवर या पराए मनुष्य को तो अंदर आने से रोक दे, पर हवा और रोशनी को बेरोकटोक अंदर आने दे।९ उनका ये भी मानना था कि केवल उत्पादन और मजदूरी पर जोर देने वाली योजना प्रकृति के विरुद्ध होगी। हिंदुस्तान के गाँवों पर केन्द्रित अपनी प्रस्तावित योजना के अंतर्गत डॉ. कुमारप्पा ने निम्न कार्यक्रमों को शामिल किया : कृषि, ग्रामीण उद्योग, सफाई, आरोग्य और मकान, ग्रामों की शिक्षा, ग्रामों का संगठन और ग्रामों का सांस्कृतिक विकास। गाँवों के संगठन की दृष्टि से उन्होंने ग्राम पंचायत, सहकारी समिति और ग्राम सेवा संघ की हिमायत की। हिंदुस्तान के लिए किसी भी नई आर्थिक व्यवस्था के बारे में उनका मत था कि उसकी शुरुआत किसान से होनी चाहिए और क्रमश: उसकी नींव पर सारे देश की आर्थिक व्यवस्था बनानी चाहिए। इसमें भी उन्होंने भोजन और वस्त्र की बुनियादी जरूरतों पर अधिक बल दिया। ग्रामोद्योग की बात करते हुए डॉ. कुमारप्पा ने सहकारी समितियों की भूमिका को भी रेखांकित किया।


    उपभोक्तावादी संस्कृति के उलट मनुष्य की सर्वोच्च भावनाओं के विकास हेतु सादा जीवन के महत्त्व पर जोर देते हए डॉ. कुमारप्पा ने लिखा कि 'सादा जीवन जीवन ऊंचा हो सकता है, क्योंकि उसमें मनुष्य-जीवन की सर्वोच्च बातें आ सकती हैं। जबकि जटिल जीवन में कोई मौलिकता नहीं होती, क्योंकि उसमें दूसरों द्वारा निर्माण किए हुए फैशन अपनाए जाते हैं। '१० जीवन के पैमाने स्थानीय स्थिति के अनुरूप होने पर कुमारप्पा ने जोर दिया और साथ ही यह भी जोड़ा कि 'जीवन का पैमाना ऐसा निश्चित होना चाहिए कि उसमें व्यक्ति की सुप्त शक्तियों के विकास और उसके आत्मप्रकटीकरण की पूर्ण गुंजाइश रहते हुए एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से संबंध जुड़ा रहे।'


    इसी तरह काम के बारे में भी कुमारप्पा ने लिखा कि उसमें मेहनत और प्रगति के साथ-साथ आराम और संतोष भी अनिवार्य रूप से शामिल होना चाहिए। उस सोच पर, जो मनुष्य की उच्च प्रवृत्तियों को नज़रअंदाज़ कर अंतहीन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मजदूरी करने पर जोर देती है, टिप्पणी करते हुए डॉ. कुमारप्पा ने लिखा कि उसका नतीजा ये होता है कि 'मनुष्य की स्वतंत्र बुद्धि मारी जाती है और इसलिए समुचित मूल्य आँकने की उसकी प्रवृत्ति विकृत हो जाती है।' स्पर्धा और साम्राज्यवाद दोनों की बुनियाद में हिंसा को अंतर्निहित बताते हुए डॉ. कुमारप्पा ने सहकारिता के सिद्धान्त का समर्थन किया।


    आर्थिक नीतियाँ, गाँवों का पुनर्निर्माण और रचनात्मक कार्यक्रम की महत्ता


    वर्ष १९४६ में संयुक्त प्रांत व बिहार में सर्दी के मौसम में पर्याप्त वर्षा न होने और पंजाब व पश्चिमोत्तर प्रांत में पाला गिरने से गन्ने की उपज प्रभावित हुई और चीनी की कमी होने पर सरकार ने चीनी के आयात पर जोर दिया। इस नीति पर टिप्पणी करते हुए जे.सी. कुमारप्पा ने 'ग्राम-उद्योग पत्रिका' में लिखा कि विदेशों से माल के आयात पर निर्भर रहना या उसे प्रोत्साहन देना बिलकुल गलत है। इस संबंध में उनका सुझाव था कि चीनी की कमी को जंगली इलाकों में ताड़ के पेड़ों से नीरा उतारकर और उसका गुड़ व चीनी बनाकर पूरा करना चाहिए। कुमारप्पा का मानना था कि ऐसे आयात का सीधा मतलब होगा कीमत के भुगतान के लिए हमारे कुछ उत्पादनों का निर्यात, जोकि आखिरकार भारतीय जोकि आखिरकार भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह साबित होगा। महात्मा गांधी ने हरिजन के २८ अप्रैल १९४६ के अंक में कुमारप्पा के इन विचारों का समर्थन करते हुए उन्हें विस्तार से उद्धृत किया था।


    जनवरी १९४७ में नोआखली में शांति बहाली के लिए पद-यात्रा करते हुए भी महात्मा गांधी जे.सी. कुमारप्पा से ग्रामोद्योग के काम की प्रगति के बारे में जानकारी लेते रहे। नोआखली के अपने प्रयासों के बारे में लिखते हुए गांधी ने कुमारप्पा को लिखा कि 'मैंने आजतक जिन कार्यों का बीड़ा उठाया है उनमें सबसे कठिन यह कार्य है जो आज मैं यहाँ कर रहा हूँ और मैं जानता हूँ कि देश-हित के कार्य में लगे सभी कार्यकर्ता जो अपने-अपने क्षेत्र में यथाशक्ति कार्य कर रहे हैं, वे यहाँ के कार्य में भी प्रभावकारी रीति से योगदान दे रहे हैं।' कुमारप्पा के ग्रामोद्योग और गाँवों के विकास के काम की सराहना करते हुए इसी खत में गांधी ने लिखा कि 'तुम्हारे हिस्से आया ग्रामोद्धार का काम यहाँ किए जाने काम की सिद्धि में संभवतः सर्वाधिक सहायक साबित हो। साथ ही मैं यह भी जानता हूँ कि तुम्हारा कार्य अत्यंत कठिन है जैसा कि मैं यहाँ गाँव-गाँव घूमते हुए ग्रामीणों को सफाई, चरखा, बुनाई और ग्राम-विशेष के लिए शिल्प आदि के बारे में बताते समय अनुभव करता हूं।


    ___ मार्च १९४७ में जे.सी. कुमारप्पा को कांग्रेस कार्यकारिणी समिति का सदस्य बनने का प्रस्ताव मिला, उन्होंने इस संबंध में गांधी की राय जाननी चाहिए२९ मार्च १९४७ को पटना से कुमारप्पा को लिखे गए खत में गांधी ने लिखा कि उनके अनुसार ग्रामोद्योग और गाँवों के पुनर्निर्माण के रचनात्मक काम में लगे हुए कार्यकर्ताओं को कांग्रेस कार्यकारिणी समिति का सदस्य नहीं बनना चाहिए। हाँ, यदि कांग्रेस अध्यक्ष गाँवों से जुड़े किसी विषय पर ऐसे कार्यकर्ताओं को अपनी सम्मति देने के लिए आमंत्रित करें तो वे जरूर अपने सुझाव-परामर्श दे सकते हैं। अंततः गांधी का कुमारप्पा को यही सुझाव था कि उन्हें कार्यकारिणी समिति का सदस्य बनने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना चाहिए।१२ आजाद हिंदुस्तान में खाद्यान्न के संकट को देखते हुए कुमारप्पा, अच्युत पटवर्धन आदि ने यह सुझाव दिया था कि भारत के गाँवों में ही अनाज के गोदाम बनाकर खाद्यान्न का भंडारण किया जाए। दिसंबर १९४७ में हरिजनबंधु में छपी एक टिप्पणी में महात्मा गांधी ने भी इस सुझाव का समर्थन करते हुए देहातों में अनाज का संग्रह करने का समर्थन किया था। उन्होंने यह भी लिखा कि 'अगर किसान को और व्यापारी को योग्य नफा मिले, तो मजदूर-वर्ग और शहर के दूसरे लोगों को महंगाई का सामना करना ही न पड़े। मतलब तो यह है कि अगर सबके अनुकूल जीवन बन जाए, तो फिर सस्ते और महँगे भाव का सवाल उठ जाएगा।१३


    फरवरी १९४८ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने डॉ. कुमारप्पा की अध्यक्षता में 'कृषि सुधार समिति' गठित की। इस समिति ने अगले वर्ष कृषि सुधारों से जुड़ी अपनी रिपोर्ट कांग्रेस को सौंपी। डॉ. जे.सी. कुमारप्पा ने हिंदुस्तान के गाँवों को आत्मनिर्भर बनाने की महात्मा गांधी की सोच को मूर्त रूप देने के लिए जीवनपर्यंत कार्य किया। उन्होंने हिंदुस्तान को गरीबी की समस्या से निजात दिलाने और आर्थिक पुनर्निर्माण को दृष्टिगत रखकर गाँवों को अपनी आर्थिक योजना के केंद्र में रखा। निर्यात के लिए उत्पादन करने की बजाय कुमारप्पा ने देशवासियों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। आर्थिक मूल्यों के साथ-साथ उन्होंने जीवन के भी मानवीय पैमानों की बात कही। वे मानव-समाज को स्थायित्व की ओर ले जाने वाली समाज-व्यवस्था और सच्ची सत्ता जनसाधारण के हाथों में सौंपने के हामी थे।


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संदर्भ


१. जे.सी. कुमारप्पा के आरंभिक जीवन और अमेरिका में उनके शोधकार्य के विवरण हेतु देखें, मार्क लिंडले, जे.सी. कुमारप्पा : महात्मा गांधीज़ इकॉनॉमिस्ट, (मुंबई : पॉपुलर प्रकाशन, २००७); जे.सी. कुमारप्पा के आर्थिक चिंतन पर महात्मा गांधी के गहरे प्रभाव के विश्लेषण हेतु देखें, वेणु माधव गोविंदु व दीपक मलघन, द वेब ऑफ फ्रीडम : जे.सी. कुमारप्पा एंड गांधीज़ स्ट्रगल फॉर इकनॉमिक जस्टिस, (नई दिल्ली : ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, २००८)


२. सम्पूर्ण गांधी वाङ्गमय, खंड ४२, (नई दिल्ली : प्रकाशन विभाग, १९७१), २३२-२३३


३. सम्पूर्ण गांधी वाङ्गमय, खंड ४३, २९९


४. यंग इंडिया, ६ मार्च १९३०, सम्पूर्ण गांधी वाङ्गमय, खंड ४३, २१-२२


५. ग्रामोद्योग संघ के उद्देश्य और संविधान के लिए देखें, हरिजन, २१ दिसंबर, १९३४; सम्पूर्ण गांधी वाङ्गमय, खंड ५९, ४७७-४८१


६. सम्पूर्ण गांधी वाङ्गमय, खंड ७०, ३८-४५ ६.


७. सम्पूर्ण गांधी वाङ्गमय, खंड ८१, १५८


८. जे.सी. कुमारप्पा, स्थायी समाज-व्यवस्था, (वाराणसी : सर्व सेवा संघ प्रकाशन, २०११), प्रस्तावना


९. स्थायी समाज-व्यवस्था, ६१


१०. वही, ६९


११. सम्पूर्ण गांधी वाङ्गमय, खंड ८६, ४४०-४४१


१२. सम्पूर्ण गांधी वाङ्गमय, खंड ८७, १९४


१३. २८ दिसंबर, १९४७, हरिजनबंधु; सम्पूर्ण गांधी वाङ्गमय, खंड ९०, २६६-२६७