समय-संवाद - गाँधी और रवीन्द्रनाथ - श्री नारायण पाण्डेय

श्री नारायण पाण्डेय - वरिष्ठ आलोचक, पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, वर्धमान विश्वविद्यालय, पश्चिम बंगाल


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हम उन दो युग-पुरूषों की चर्चा करने जा रहे हैं। जिनमें एक साहित्यकार नहीं था, फिर भी साहित्य के गलियारे में उसकी चर्चा होती है, और दूसरा राजनीतिज्ञ नहीं, साहित्यकार था, फिर भी राजनीति की चर्चा में हम उसकी अनदेखी नहीं कर सकते। पहले हैं, मोहनदास गाँधी और दूसरे हैं, रवीन्द्रनाथ ठाकुर। विदेशों में अगर किसी का नाम लिया जाए तो वह इनके जोड़ के हैं टालस्टाय, जिनकी चर्चा साहित्य और राजनीति दोनों में होती है।


    दोनों सम-सामयिक थोड़े छोटे-बड़े। वेश-भूषा में रवीन्द्रनाथ सम्भ्रान्त लगते हैं, और थे भी सम्भ्रान्त परिवार के। गाँधी जी वेशभूषा में किसान परिवार के ही कहे जाएं। मगर यह न भूलना होगा कि विलायत से बैरिस्टरी पास थे। दोनों राष्ट्र प्रेमी और देशभक्त थे। गाँधी के कर्म-जीवन का आरम्भ दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के लिए किए जाने वाले संघर्ष से हुआ था, और रवीन्द्रनाथ का जीवन अपने जमींदारी के कार्यभार से संचालन के लिए 'सियालदह' से हुआ था।


    गाँधी जी ने राजनीति का रास्ता पकड़ा, तो रवीन्द्रनाथ साहित्य-पथिक बने। दोनों देश की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़े रहे। गाँधी जी एवं रवीन्द्रनाथ दोनों अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखना चाहते थे, किन्तु सामाजिक कुसंस्कारों के कटु आलोचक थे।


    राजनीतिक पराधीनता के साथ वे दोनों आन्तरिक पराधीनता के विरूद्ध भी भारतीय जनमानस को तैयार कर रहे थे। उन दिनों जो स्वाधीनता का आंदोलन चल रहा था, उसके रास्ते में तीन मुख्य बाधाएं थीं। एक थी भाषा, दूसरी अस्पृश्यता और तीसरी साम्प्रदायिकता (धार्मिक)।


    रवीन्द्रनाथ और गाँधी जी के विचारों में, कार्य पद्धति में, साम्य और वैषम्य दोनों। एक-दूसरे से प्रभावित हैं तो कहीं कटु आलोचक भी। किन्तु आपसी सद्भाव में कहीं कमी नहीं आई है। गाँधी जी ने बिहार के भूकम्प पर कहा था कि सवर्ण हिन्दुओं द्वारा अस्पृश्यों पर किया गया पाप ही इसका कारण है। रवीन्द्रनाथ ने इसका घोर विरोध किया था। गाँधी जी ने उस पर लिखा था कि "थोड़े दिनों में ही हमने अपने और गुरूदेव में कुछेक विषयों पर मतान्तर दिखाई पड़ा है। हम लोगों में पारस्परिक मत-मतान्तर के बावजूद श्रद्धा और प्रेम में कोई कमी नहीं आई है।" (हरिजन, १६.२.३४)


    आज जो भाषाई विवाद, साम्पदायिक विद्वेष और जातीय-घृणावाद की जो सुनामी आई है, अपने समय में राष्ट्रीय हित में उन दोनों ने समाधान का पथ प्रशस्त किया था। तब इस समस्या का उद्भावक सरकारी अधिकारी और सरकार खुद थी और आज हमारे नेता और अधिकारी दोनों हैं।


    हमने पहले ही कहा है कि गाँधी जी देश की राजनीतिक घटनाओं से भी जुड़े थे। हम भारत राष्ट्र की आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी। गाँधी जी भारत की सक्रिय राजनीति में आ गए। रवीन्द्रनाथ विश्व-विख्यात साहित्य की उपाधि पा चुके थे। मगर राष्ट्र की कोई अपनी भाषा नहीं थी। देश का तथा कांग्रेस का काम विदेशी भाषा अंग्रेजी से चल रहा था। जबकि पूरे राष्ट्र की एक राष्ट्रीय भाषा की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी। गाँधी जी और रवीन्द्रनाथ दोनों, मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के अनन्य समर्थक थे।


    १९१८ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन में गाँधी जी को हिन्दी की स्थिति . पर अपना विचार व्यक्त करना थाकुछ प्रश्रों के साथ एक पक पत्र रवीन्द्रनाथ के पास भेज कर उनका सुझाव माँगा था। रवीन्द्रनाथ ने २६ जनवरी १९१८ को उसका उत्तर दिया था। रवीन्द्रनाथ ने कहा था "अन्तः प्रान्तीय व्यवहार के लिए निश्चय ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।" Of Course Hindi is the Only possible National Language for Interprovincial intercourse in India. कांग्रेस के कामधाम तथा शिक्षा संस्थाओं में व्यवहार के लिए तब तक प्रतीक्षा करनी चाहिए जब तक राजनीतिज्ञों की नई पीढ़ी इसके लिए पूर्ण रूप से सचेत न हो जाए। न गाँधी जी रहे न रवीन्द्रनाथ। राजनीतिज्ञों की कई पीढ़ी आई, मगर सचेत को कौन कहे, वह अचेत ही ज्यादा रही।


    भाषा पर गाँधी जी का अपना मत था। १९०८ में 'हिंद स्वराज' मे उन्होंने लिखा था कि भारतवर्ष की सर्वग्राह्य भाषा हिन्दी होनी चाहिए और वह इच्छानुसार नागरी या फारसी लिपि में लिखी जाए। हिन्दुओं और मुसलमानों में निकटतर संबंध स्थापित करने के लिए दोनों लिपि कर पाएं तो अल्प समय में ही अंग्रेजी को हटा सकते हैं।" गाँधी जी ने गुजरात शिक्षा सम्मेलन व हिन्दी साहित्य सम्मेलन तथा अन्यान्य स्थानों पर भी हिन्दी के पक्ष में अपना मत रखा था। १९२८ में छद्मपुर के एक सार्वजनिक भाषण में उन्होंने कहा था कि “मैं अंग्रेजी से घृणा नहीं करता, परन्तु हिन्दी के लिए मेरा प्रेम अधिक है। यही कारण है कि मैं भारत के पढ़े-लिखे वर्गों से अनुरोध कर रहा हूँ कि वे हिन्दी को सामान्य भाषा बनाएं। हिन्दी के माध्यम से ही हम प्रान्तों की अन्य भाषाओं के सम्पर्क में आ सकते हैं, और उनके विकास में सहायता दे सकते हैं।"


    आज संविधान में हिन्दी-उर्दू दोनों स्वीकृत हैं, मगर अभी हिन्दी को वह स्थान नहीं मिल पाया है जिसे रवीन्द्रनाथ और गाँधी जी चाहते थे। निश्चय ही अंग्रेजी बहुल हिन्दी उनकी हिन्दी नहीं थी।


    एक बात पर थोड़ा और विचार जरूरी है। वह पराधीन देश की नहीं, स्वाधीन देश की उपज हैवह हिन्दी की बोलियों को भाषा बनाने की प्रवरता। विशेष रूप से यह भाव भाव भोजपुरी और कुछ राजस्थानी में ज्यादा जोर पा रहा और । एक तो अभी हिन्दी की नौका ही डगमगा रही है, दूसरे बोली की सुनामी। इससे न केवल हिन्दी बिखरेगी, राष्ट्र भी बिगड़ेगा। यह रोग हिन्दी में ही है, जहाँ तक हमें मालूम है, अन्य भाषाएं इससे हमें मालूम है, अन्य भाषाएं इससे निरोग हैं। भगवान न करे कि कोई दिन ऐसा भी आए. जब ग्रियर्सन की गिनाई बोलियाँ भाषा बन जाएं और फिर प्रान्त बनें, फिर राजनेता उसके सूबेदार बन जाएं।


    इस मसले पर गाँधी जी का कहना था, "जो वृत्ति इतनी वर्जनशील और संकीर्ण हैं कि हर बोली को चिरस्थाई बनाना और विकसित करना चाहती है, वह राष्ट्र विरोधी और विश्व विरोधी है। हमारी विनम्र सम्मति में तमाम अविकसित और अलिखित बोलियों का बलिदान करके उन्हें हिन्दी या हिन्दुस्तानी की बड़ी धारा में मिला देना चाहिए। यह आत्महत्या नहीं देश के लिए दी गई कुर्बानी होगी।" भाषा और राष्ट्रीय एकता दोनों के लिए पर्यायवाची थे। भाषा की ही तरह एक मुद्दा साम्प्रदायिकता का था।


  सव्यसांची भट्टाचार्य ने अपनी पुस्तक The Mahatma Gandhi And the Poet में लिखा है कि १९२६ के बाद से साम्प्रदायिकता पर रवीन्द्रनाथ का रुख कड़ा हो गया था, क्योंकि १९२६ में कलकत्ता में अपने मुहल्ले में होने वाले दंगे को उन्होंने अपनी आँखों से देखा था। इसके बाद इस तरह के दंगे, लाहौर, पानीपत, हैदराबाद, बम्बई, रावलपिंडी, ढाका और इलाहाबाद तथा दिल्ली में भी हुए। उस समय सरकार की जो नीति थी, तथा बंगाल में जो हिन्दू-मुस्लिम पैक्ट हुआ था, उन सबका इन दंगों पर असर पड़ा था।


  इस अवसर पर रवीन्द्रनाथ ने 'धर्ममोह' कविता लिखी और कहा कि इस धार्मिकता से नास्तिकता अच्छी है, इस धार्मिक उन्माद को उन्होंने शैतानीक (Satnik) पाशवकताकहा जो धर्म का लबादा ओढ़े है।" इस साम्प्रदायिकता की निन्दा उस समय सबने की है। देखने में आया कि साम्प्रदायिकता अपने साथ धर्म को तो लाती ही है, संस्कृति को भी घसीट लाती है। प्रेमचंद ने भी लिखा है कि साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई देती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लजा आती है, इसलिए वह गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है। गाँधी, रवीन्द्रनाथ, प्रेमचन्द चिन्तन में समान धर्मी थे, तीनों के लिए साम्प्रदायिकता मानव विरोधी है।


  दोनों छुआछूत जातिवाद के विरोधी थेगाँधी जी के आश्रम में तो इसका नामो निशान नहीं था। शान्ति निकेतन में शुरू-शुरू में खान-पान में भेदभाव था। जब एक बार इसे हटाने का प्रयास किया गया, तब अभिभावकों की ओर से विरोध हुआ था, किन्तु बाद में गाँधी जी के प्रभाव से वहाँ से भी यह भेदभाव समाप्त हो गयायह जरूर है कि दोनों वर्ण-व्यवस्था के प्रति उदारवादी थे, किन्तु जातिवाद दोनों के लिए पीड़ादायक था।


  रंग भेद के आधार पर आदमी-आदमी के बीच घृणा और द्वेष भाव का अनुभव गाँधी जी को १८८० में उसी समय हो गया था, जब वे गोरे-काले के भेदभाव की लड़ाई, दक्षिण अफ्रीका में लड़ रहे थे। भारत आने पर उन्होंने देखा कि जिन भारतीयों के लिए वे दक्षिण अफ्रीका में लड़ रहे थे, उनमें अपने में यह भेदभाव कम नहीं है। अतएव अपने देश में भी मनुष्य-मनुष्य में समता और प्रेमभाव लाने के लिए उन्होंने अछूताद्धार आन्दोलन चलाया। गाँधी जी ने 'हरिजन' पत्रिका में लिखा था कि छुआछूत का भेदभाव जो आज हिन्दू धर्म को कलंकित कर रहा है वह मानसिक बीमारी है, वह धर्म और नीति दोनों का विरोधी है।"


    रवीन्द्रनाथ भी अस्पृश्यता के उतने ही विरोधी थे। १९१० में प्रकाशित दो कविताओं में- 'हे मोर दुर्भाग्य देश, जा देर कोरे छो अपमान' (हे हमारे दुर्भाग्य देश, जिनका अपमान किए - हो) दूसरी 'हमारे चित्तपूर्ण तीभे ना गो रे धीरे' अपनी व्यथा प्रकट की है। इसके पहले १८७५ में उनकी 'ब्राह्मण' कविता छपी थी। गाँधी का आन्दोलन इसके दस वर्ष बाद का है। कहना यह है कि दोनों के मन में इस व्यवस्था के प्रति एक सा भाव था।


    इस प्रकार हम पाते हैं कि दोनों मनीषियों के विचार एक से हैं। दोनों इनका सकारात्मक समाधान चाहते थे। आजादी के इतने दिन बीत गए। कई पीढियाँ गजर गईं. मगर तीनों समस्याएं पहले से भी भयावह बनी हुई हैं। पहले हम अँगली अंग्रजों की ओर उठाते थे अब किस ओर उठाएं?


  रवीन्द्रनाथ और गाँधी दोनों में मतान्तर था। यह अलग विचार का विषय है। रवीन्द्रनाथ जिन्होंने कहा था, "सार्थक जनम आभार जन्मे छी एक देशे" तथा 'सबको सन्मति दे भगवान' की प्रार्थना करने वाले गाँधी, दोनों मनीषियों की आज देश का आवश्यकता है। दुख इस बात का है कि हमने इन्हें उत्सवधर्मी राम-रहीम बनाकर रख दिया है। रवीन्द्र भवन बनाना या फिर गाँधी चबूतरा, किसी काम का नहीं।


                                                                                                                           सम्पर्क : मो.नं. : 8004040576