समय-संवाद - गाँधी और अंबेडकर : मतभेद और आत्मीयता के अंत:सूत्र - ताहिरा परवीन

ताहिरा परवीन - ताहिरा उर्दू की प्राध्यापिका और लेखिका हैसम्प्रति : एस.एस. खन्ना महाविद्यालय, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश


                                                                      -------------------


गाँधी और अंबेडकर में राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम और स्वराज की परिकल्पना को लेकर चाहे कितने भी मतभेद रहे हों लेकिन दोनों को एक-दूसरे का नितांत विरोधी रूप में पेश करना उचित नहीं माना जा सकता है। कहते हैं, जब गाँधी को गोली मारी गई तो घटनास्थल पर सबसे पहले पहुँचने वाले व्यक्तियों में बाबा साहब अंबेडकर ही थे। यह महज औपचारिकता नहीं थी। इसके पीछे दोनों के बीच की एक आत्मीय संबंध भावना थी।


    ___गाँधी इतने कट्टरतावादी कभी नहीं रहे कि जो उनसे मतभेद रखता हो, उसे अपना शत्रु मान लें। वह वक्त ही ऐसा था कि एकजुटता की जरूरत थी। आपस में सहमति रखने वालों में भी और असहमति रखने वालों में भी। गाँधी अपनी राय पर दृढ़ रहते थे, लेकिन अपने से असहमति रखने वालों के प्रति असहिष्णु कभी नहीं। गाँधी की सबसे बड़ी ताकत थी, किसी भी व्यक्तिगत हित से ऊपर उठकर, अपनी तरह से, वक्त की नब्ज़ पर हाथ रखते हुए दिल की बात को स्पष्टता से व्यक्त करना। इस बात की कद्र अंबेडकर भी करते थे।


      अंबेडकर ने जब हिंदू धर्म छोड़कर सामूहिक धर्मांतरण का ऐलान किया, तो जमना लाल बजाज से इस पर गाँधी का मत जानना चाहा। गाँधी ने स्पष्टता से स्वीकार किया- डाक्टर अंबेडकर की जगह अगर वे खुद भी होते तो शायद उनके मन में भी यही बात आती। हिंदू धर्म के अनेक आडंबरों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है अंबेडकर का धर्मांतरण का फैसला। गाँधी ने यहाँ तक कहा कि उस स्थिति में मेरे लिए भी शायद अहिंसावादी बना रह पाना संभव नहीं होता।


    एक और घटना। अंबेडकर को लाहौर में जाति-पाँति तोड़क मंडल ने जाति प्रथा के समूल उन्मूलन पर जब अपना व्याख्यान नहीं देने दिया गया था, तो गाँधी ने 'हरिजन' में ११ जुलाई १९३६ को लिया- अंबेडकर ने जैसा भाषण तैयार किया था, उससे कम की उनसे उम्मीद ही नहीं की जा सकती थी। यह भी जोड़ा कि 'डॉ. अंबेडकर हार मानकर बैठ जाने वाले व्यक्ति नहीं हैं। उनका भाषण एक ऐसा भाषण है जिसका कोई भी सुधारक यदि जनता में पहुँच बाधित करेगा, तो समाज का अहित होगा।'


      गाँधी अपने से विरोध रखने वालों से भी सीखने को तैयार रहते थे। अंबेडकर से भी। यदि उन्हें उचित लगता था तो अपने को बदलने को भी तत्पर रहते थे। शुरू में गाँधी अंतर्जातीय विवाह के समर्थक नहीं थे, लेकिन बाद में उन्होंने अपना दृष्टिकोण बदला। यह तक संकल्प लिया कि वे ऐसी किसी भी शादी में शरीक नहीं होंगे जिसमें वर या वधू में से कोई एक दलित न हो। ऐसी कई शादियों का आयोजन उन्होंने समय-समय पर अपने आश्रम तक में करवाई। 'हरिजन' में उन्होंने १९४६ की सात जुलाई को लिखा- 'यदि मेरा बस चले तो मैं अपने प्रभाव में आने वाली सभी सवर्ण लड़कियों को चरित्रवान हरिजन युवकों को पति के रूप में चुनने की सलाह दूं।'


    गाँधी जी की हत्या के दो महीने बाद स्वयं अंबेडकर ने ब्राह्मण जाति की डॉ. सविता से शादी की, तो सरदार पटेल ने उन्हें पत्र लिखकर बधाई देते हुए लिखा- 'अगर आज बापू जीवित होते, तो जरूर ही उन्होंने आपको आशीर्वाद दिया होता।'


  - इस पर अंबेडकर ने फौरन जवाब दिया- 'मैं आपसे सहमत हूँ, जरूर बापू के आशीष मुझे मिले होते।'


  राजमोहन गाँधी की पुस्तक 'Understanding the founding fathers' में एक टिप्पणी करते हुए लिखा कि अंबेडकर ने अपनी आशंकाओं के विपरीत यह पाया था कि, गाँधी के विचार खुद उनसे बहुत मेल खाते थे। इससे अंबेडकर को बड़ा आश्चर्य भी हुआ था। राजमोहन गाँधी के अनुसार पूना पैक्ट के तत्काल बाद ही डॉ. अंबेडकर ने गाँधी से कहा था- 'यदि आप अपने को सिर्फ दलितों के कल्याण को समर्पित कर दें तो आप हमारे हीरो बन जाएंगे।' .


                                                                                                                              सम्पर्क : मो.नं. : 9554711865