अरविंद कुमार सिंह - हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखक और पत्रकारजनसत्ता से अपना कैरियर आरम्भ कर अमर उजाला और हरिभूमि जैसे कई प्रतिष्ठित अखबारों से जुड़े रहेसम्प्रति : राज्य सभा टीवी में वे संसदीय और कृषि संबंधी विषयों के प्रभारीहिन्दी अकादमी, इफको हिन्दी सेवी सम्मान और भारत सरकार के शिक्षा पुरस्कार समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित एवं कई पुस्तकों के लेखक।
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भारतीय स्वाधीनता संग्राम की सबसे बड़ी हस्ती महात्मा गांधी के बारे में कई तरह के सवाल उठते हैं। खास तौर पर भारतीय जनमानस पर उनकी आखिर इतनी पकड़ कैसे बनी, इसे लेकर। जिस दौर में गांधीजी जी ने स्वाधीनता संग्राम की बागडोर थामी, भारत की दशा अलग थी। साक्षरता बहुत कम थी और संचार और परिवहन के साधनों की स्थिति भी बहुत कमजोर थी। फिर भी गांधीजी ने लोगों से जुड़ने के लिए तमाम साधनों का उपयोग किया। सीधे जुड़ने के लिए उन्होंने जितनी यात्राएं देश के सभी हिस्सों में की, वैसा कोई और नेता नहीं कर सका। इसी तरह अखबारों का उपयोग भी आंदोलन के लिए किया और एक और हथियार जिस पर लोगों की निगाह कम जाती है, वह चिट्ठियां थीं, जिसका लोगों से जुड़ाव के लिए जिस पैमाने पर गांधीजी ने किया वैसा आज तक शायद ही किसी ने किया हो ।
गांधीजी हर तरह के लोगों से जीवंत संपर्क बनाए रखने और अपने विचारों के प्रसार के लिए लगातार चिट्टियों का उपयोग करते थे। वे छह भाषाओं में लिख सकते थे और दक्षिण भारतीय भाषाओं समेत ११ भाषाओं में हस्ताक्षर कर लेते थेयही नहीं वे दाहिने और बाएं दोनों ही हाथों से लिखने में अभ्यस्त थे। हालांकि उनके बाएं हाथ की लिखावट अधिक साफ-सुथरी थी। वे उजाले में भरी भीड़ के बीच में और जनसभाओं के चलने के दौरान ही नहीं अंधेरे में भी चिट्टियों का जवाब दे सकते थे। चिट्ठियों के सहारे उन्होंने दुनिया भर के तमाम दिग्गजों ही नहीं आम लोगों तक से संवाद बनाए रखा था। ये चिट्ठियां ही थीं, जिनकी बदौलत गांधीजी को अपने अभियान के लिए बहुत से बेहतरीन सहयोगी भी मिले।
भारत ही नहीं दुनिया के तमाम हिस्सों में जिस तादाद में समय समय पर गांधीजी के पत्र मिलते रहते हैं और उनकी नीलामी तक होती है, उससे इस बात का अंदाज लगाया जा सकता है कि उन्होनें अपने बेहद व्यस्त जीवन के बाद भी कितनी बड़ी मात्रा में चिट्ठियां लिखी होंगी। देश के तमाम हिस्सों में वे यात्राएं करते हुए औसतन करीब १८ किमी रोज वे पैदल चलते थे। इस लिहाज से यह आकलन किया गया है कि १९१३ से १९४८ के दौरान वे करीब ७९ हजार किलोमीटर पैदल चले जो धरती का दो बार चक्कर लगाने के बराबर है।
गांधीजी ने अपनी तमाम चिट्ठियां जेलों में रहते हुए लिखीं और तमाम विचित्र पतो के बावजूद उस दौरान डाक विभाग उन तक पहुंचाता रहा। यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि महात्मा गांधी की शहादत के बाद दुनिया भर से बड़ी से बड़ी हस्तियों से लेकर आम लोगों ने पत्रों के जरिए जितना शोक संदेश भारत सरकार को भेजा वह भी रिकार्ड ही है। राष्ट्राध्यक्षों से लेकर जार्ज ऑरवेल और एलबर्ट आइंस्टाइन से लेकर आम कार्यकर्ता तक ने। यही नहीं वे ही दुनिया के एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन पर १५० देशों के डाक प्रशासनों ने डाक टिकट जारी किया जिसमें उनके जीवन के करीब हर पहलू को शामिल किया जा चुका है।
भारत ही नहीं महात्मा गांधी दुनिया के सबसे बड़े संचारकों में भी चोटी पर माने जाते हैं। उनकी लिखी तमाम चिट्रियां आज भी किसी न किसी रूप में चर्चा में रहती हैं। वे नए संदर्भो में गांधीजी की सोच पर प्रकाश डालती हैं। जिस व्यक्ति को संसार छोड़े छह दशक से अधिक बीत चुके हैं, उसके हाथ से लिखी चिट्ठियों की खुशबू आज भी बरकरार होना और उस पर चर्चा होते रहना कम हैरानी की बात नही है। लेकिन ये चिट्ठियां ही हैं जिन्होंने गांधी को बाकियों से बहुत संपन्न बनाया हुआ है।
दरअसल गांधीजी ने जीवन का बड़ा हिस्सा बेहद सादगी और त्याग के साथ बिताया। उनके पास ऐसी सांसारिक वस्तुएं भी नहीं थी, जो उनकी मौत के बाद संग्रहालयों में रखी जा सकें। व्यक्तिगत उपयोग की नाम मात्र की चीजें थी जिनसे उनकी स्मृतियों को संग्रहालयों में रखा गया। इनमें चिट्ठियां, डाक टिकट और तस्वीरें, चरखा और कुछ गिनी चुनी वस्तुएं शामिल हैं। साबरमती से लेकर सेवाग्राम और तमाम जगहों पर यही स्थिति है। दिल्ली में राजघाट संग्रहालय में बड़ी संख्या में पुस्तकों, और उनके द्वारा संपादित अखबारो की फाइलों के अलावा गांधीजी के ३० हजार से अधिक चिट्टियों की प्रतिलिपियां खास आकर्षण है। वहीं कोलकाता के बैरकपुर गांधी भवन में २८ हजार चिट्ठियों की प्रतिलिपियां हैं। साबरमती आश्रम में तो चिट्टियों का विशाल संग्रह है।
वैसे तो तमाम महान हस्तियों की चिट्ठियों को विश्व इतिहास में खास महत्व मिला है, लेकिन गांधीजी की चिट्ठियां बहुत खास है। इसमें एक से एक विषय शामिल हैं। उनकी चिट्ठियां देश-काल और परिस्थितियों को ही नहीं गांधीजी को समझने का असली पैमाना है। ये चिट्ठियां न रही होती तो हम गांधीजी के विशद ज्ञान और शब्द भंडार को समझ नहीं सकते थे। इन चिट्ठियों के आधार पर तमाम भाषाओं में बहुत सी किताबें लिखी गईं और बहुत से तथ्यों को खुलासा भी हुआ
गांधीजी की चिट्टियों की शुरुआत तो पढ़ाई के दिनों में ही हो गयी थी। लेकिन अफ्रीका प्रवास के दौरान की का चिट्ठियों से खास महत्व आरंभ होता है। गांधीजी तब वैश्विक स्तर पर लोगों से पत्राचार कर रहे थे। भारत में आने के बाद उनकी चिट्ठियों का रूप बदल गया। इन चिट्ठियों की बदौलत गांधीजी कई हस्तियों के करीब आए। एक अंग्रेज एडमिरल की बेटी स्लेड (जो मीरा बहन के नाम से बाद में जानी गई) वह भी चिट्ठियों की बदौलत गांधीजी से जुड़ीं।
भारत में आने के बाद गांधीजी ने निजी और सरकारी स्तर पर बहुत सी चिट्ठियां लिखीं। आरंभ में उनकी कई चिट्ठियां रेलवे के तीसरे दर्जे की मुसाफिरों की पीड़ा पर रेल अधिकारियों और अखबारों के संपादकों को लिखी गयीं। कई संपादकों के साथ उनके गहरे संबंध थे। वहीं रेल अधिकारियों को गांधीजी की कोई चिट्ठी मिलती तो वे समस्या पर तत्काल गौर करते थे और आतंकित रहते थे कि कहीं वे रेलवे के खिलाफ भी कोई आंदोलन न खड़ा कर दें1
यह दिलचस्प बात है कि भारतीय डाक को कई मौकों पर गांधीजी को लिखी चिट्ठियों के नाते काफी परेशानी उठानी पड़ती थी। गांधीजी के पास दुनिया भर से तमाम पत्र केवल महात्मा गांधी-इंडिया लिख कर आते थे और पहुंच भी जाते थे। सेवाग्राम, वर्धा में उनके पास तमाम ऐसी चिट्ठियां पहुंची जिन पर महात्मा गांधी, इंडिया या महात्मा गांधी, जहां कहीं हो जैसे पते से आती थी। लेकिन वे देश के जिस कोने में होते थे डाक विभाग उस पत्र को वहां पहुंचा देता था। एक बार १६ साल की स्पेन की एक तरूणी मेरी ने उनको एक चिट्टी लिखी जिस पर पता लिखा - तीन बंदरों के सरदार, लंगोट वाले बाबा को, जो हाथ में छड़ी रखते हैं और लकड़ी की चप्पलें पहनते हैं। उसने चिट्ठी में गांधीजी से निवेदन किया कि वे लिफाफे पर लिखे पते का मजाक नहीं उड़ाएंगे और अपना सही पता लिख जवाब देंगे। डाकिया ने यह गांधीजी तक पहुंचाया तो पहले गांधीजी खूब हंसे लेकिन जवाब भी लिखा।
___ गांधीजी को मिलने वाली कई तरह की आयु वर्ग के लोगों की चिट्ठियां होती थीं। कुछ चिट्टियों में तो पते की जगह उनकी तस्वीर चिपका दी जाती थी। १७ साल की मरीना ने न्यूयार्क से उनको इसी तरह एक चिट्ठी लिख कहा कि वह उनके बारे में बहुत चर्चा सुन चुकी हैं। लेकिन पता न होने के कारण चित्र चिपका कर भेज रही है। गांधीजी ने चिट्ठी का जवाब दिया। मरीना बाद में भारत आयी और कुष्ठ रोगियो की सेवा में लगी रही। हिज हाईनेस महात्मा गांधी मार्फत गवमेंट रूलिंग इंडिया, महात्माजी जहां हैं वहां पत्र उन्हें मिले और टू ग्रेट अहिंसा नोबल, इंडिया जैसे पतों पर भी गांधीजी को चिट्ठियां मिलती थीं।
चंपारण सत्याग्रह भारत में गांधीजी का पहला सबसे बड़ा अभियान था। इस दौरान भी उन्होने कई दिलचस्प चिट्ठि यां लिखीं। वे जब राजकुमार शुक्ल के साथ कोलकाता से पटना पहुंचे और स्टेशन से सीधे डॉ. राजेंद्र प्रसाद के घर गए तो नौकरों ने उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। राजेंद्र बाबू उस दौरान बाहर थे। लेकिन इस घटना से वे इतना व्यग्र हो गए कि चंपारण जाने के बजाय पटना से ही लौटने पर विचार करने लगे थे। १० अप्रैल, १९१७ को गांधीजी ने मगनलाल को लिखी चिट्ठी में वे लिखते हैं--
___ 'जो व्यक्ति (राजकुमार शुक्ल) मुझे लाया है, वह कुछ नहीं जानता। उसने मुझे अनजानी जगह ला पटका है जहां घर का मालिक कहीं गया है और नौकर हम दोनों को भिखारी सा समझते हैं। वे हमें घर के पाखाने का उपयोग नहीं करने देते तो खाने पीने की बात ही अलग है। ...मैं सोच समझ कर अपनी जरूरत की चीजें रखता हूं इसलिए बेफिक्र रह सका हूं। मैने अपमान के बहुत से घुट पिए हैं, इसलिए यहां की अटपटी स्थिति से कोई दुख नही होता। ...लेकिन यदि यही स्थिति रही तो चंपारण जाना नहीं हो सकेगा।'
१५ अगस्त १९४७ को दिल्ली देश की आजादी के जश्न में डूबी थी वहीं गांधीजी कोलकाता में दंगों की आग बुझाने पहुंचे थे। इस दिन उन्होंने अपनी मित्र अगाथा हैरीसन को एक चिट्ठी लिख अन्य बातो के साथ अखबारों को लेकर अपनी व्यथा को बहुत सरल शब्दों में रखा--
_ 'मुझे अखबार पढ़ने का समय नहीं मिलता। बस उनके कुछ हिस्से या तो पढ़कर सुना दिए जाते हैं या फिर मैं उस पर नजर मार लेता हूं। .... लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है कि कौन मेरे बारे में अच्छा या बुरा कहता है, अगर मैं बुनियादी तौर पर सही हूं। ..तुम्हें और मुझे तो जितना अच्छे से हो सके अपना काम करते रहना चाहिए और खुश रहना चाहिए। इसलिए अखबारों से छुट्टी।'
१५ अगस्त १९४७ को ही कोलकाता में रामेंद्र सिन्हा को उन्होंने एक चिट्ठी लिखी, जिनके पिता दंगे को रोकने की कोशिश में मारे गए थे। ..गांधीजी ने लिखा -
'आपके पिता जैसे लोग कभी नहीं मरते। उनके लिए शरीर के नाश का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए ऐसे वीर पिता की मृत्यु के लिए आपका या आपकी मां का किसी प्रकार का शोक करना ठीक नही है। अपनी इस मृत्यु से उन्होंने ऐसी समृद्ध विरासत छोड़ी है, जिसके बारे में मुझे आशा है कि आप सबलोग खुद को उसके योग्य साबित करेंगे। ...आज हमें जो आजादी मिली है, उसे बचाए रखने के लिए आप सबको हर संभव कोशिश करनी चाहिए और आप जो पहला काम कर सकते हैं, वह है अपने पिता की वीरता का अनुकरण।'
गांधीजी जी जेल में रहते हए अपने आश्रम के बच्चों को बहुत मजेदार और शिक्षाप्रद चिट्ठियां लिखते थे। कई बार वे एक दिन में हाथ से पचास से ज्यादा चिट्ठी लिख देते थे। उनकी चिट्ठियों में महाभारत, रामायण, राम, कृष्ण, मुहम्मद और ईसा की कथाओं का उदाहरण भी दिया जाता था ताकि साधारण लोग आसानी से उनकी बातों को समझ सकें। भाषण हो या चिट्ठी लिखना वे जरूरत से अधिक एक शब्द नहीं बोलते या लिखते थे।
जहां समझाना होता था वहां वे शब्दों की कंजूसी नहीं करते थे। लेकिन बाकी मामलों में उनका जवाब बहुत सटीक होता था। अपने काम आने वाले पत्रों और लिफाफों को वह एकत्र कर उनके कोरे भाग को काम में लेते थे। भारत की आजादी के बाद महंगे दफ्तरी पैड पर व्यक्तिगत चिट्ठी लिखने के लिए भी गांधीजी ने मंत्रियों और विधायकों को बहुत फटकारा था। उनका कहना था कि अगर इस तरह हम अंग्रेजों के तौर तरीके और फिजूलखर्ची की नकल करेंगे तो अपनी और देश दोनों की हानि करेंगेवे यह भी हिदायत देते रहते थे कि वे देवनागरी में नाम पता छपे और हाथ से बने कागज का व्यवहार ही करें।
गांधीजी के पत्र लिखने में क्या चलती रेलगाड़ी हो या हिलता हुआ पानी का जहाज कोई बाधा नहीं आती थी। गांधीजी की चिट्ठियों में शालीनता और शिष्टता के साथ बहुत सी खूबियां दिखती हैं। उनकी लिखी छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चिट्ठी कई संदर्भो में मूल्यवान हैं। अंतरात्मा की आवाज पर उन्होंने कई ऐसी चिट्ठियां लिखीं, जो विश्व इतिहास के अहम दस्तावेज में शामिल हो चुकी हैं। इन्हीं में २४ दिसंबर १९४० को सेवाग्राम से से तानाशाह एडोल्फ हिटलर को लिखी चिट्ठी आती है जिसमें बहुत साहस के साथ गांधीजी ने कई बातें लिखीं। गांधीजी हिटलर को मेरे मित्र संबोधित करते हुए कहा कि यह महज औपचारिक संबोधन नही है। वे लिखते हैं1
__ 'मेरे मन में कोई शत्रुता नहीं है और पिछले ३३ सालों से जाति रंग या धर्म का ख्याल किए बिना मैं मानव जाति के साथ मित्रता कायम करने में लगा हूं। ...हमें आपकी बहादुरी और पितृभूमि के प्रति निष्ठा में कोई संदेह नही है और न ही आपको राक्षस मानते हैं....लेकिन आपके कई कार्य राक्षसी हैं और मानवीय गरिमा को शोभा नहीं देते हैं। ..ऐसे कार्य मानवता के माथे पर कलंक हैं। ..आप कोई ऐसी विरासत नहीं छोड़ कर जाने वाले हैं जिस पर आपके जाने के बाद आपकी जनता आप पर गर्व करे। क्रूरता के कामों का कोई भी कौम गुणगान नहीं करेगी। इसलिए मैं आपसे इंसानियत के नाम पर गुजारिश करता हूं कि युद्ध को बंद कर दें। ...'
महान हस्ती आइंस्टाइन के साथ गांधीजी का संबंध चिट्ठियों की बदौलत बना। आइंस्टाइन उनसे किस हद तक प्रभावित थे इस बात का खुलासा २ अक्तूबर १९४४ को गांधी के ७५वें जन्मदिवस पर उनके संदेश से पता चलता है, जिसमें उन्होंने लिखा था कि 'आने वाली नस्लें मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था।' गांधीजी से दस साल आइंस्टाइन कभी मिले नहीं थे लेकिन उन्होंने ही २७ सितंबर १९३१ को वेल्लालोर अन्नास्वामी सुंदरम् के हाथों गांधीजी को 1. Wartha एक चिट्ठी लिखी। उन्होंने लिखा कि 'आपने अपने कारनामों से बता दिया है कि हम अपने आदर्शों को हिंसा का सहारा लिए बिना भी हासिल कर सकते हैं। हम हिंसावाद के समर्थकों को भी अहिंसक उपायों से जीत सकते हैं। आपकी मिसाल से मानव समाज को प्रेरणा मिलेगी और अंतर्राष्ट्रीय सहकार और सहायता से हिंसा पर आधारित झगड़ों का अंत करने और विश्वशांति को बनाए रखने में सहायता मिलेगी। ... मैं आशा करता हूं कि मैं एक दिन आपसे आमने-सामने मिल सकेंगा1
इस चिट्ठी को मिलने के बाद गांधीजी ने संक्षिप्त जवाब में आभार जताते हुए कहा कि मेरे लिए यह महान सांत्वना की बात है कि जिस काम को मैं कर रहा हूं वह आपकी नजरों को पसंद आ रहा है। मैं भी वाकई में कामना करता हूं कि हम आमने सामने मिल सकें, वह भी भारत में, मेरे आश्रम में। हालांकि इनकी आपस में कभी मुलाकात नहीं हुईं। फिर भी गांधीजी के विचारों से आइंस्टाइन कितना प्रभावित रहे और क्या कुछ लिखा यह पूरी दुनिया जानती है।
कहते गांधीजी के पास रोज देश-विदेश से रोज तरह तरह की चिट्ठियां आती रहती थीं। कई बार उनके सचिव और बेहद प्रिय महादेव देसाई को कुछ चिट्ठियों देख कर चिढ़ हो जाती थी। यरवदा जेल में रहने के दौरान गांधीजी को एक चिट्ठी दमे के एक रोगी ने भेजी जिसमें उसने लिखा कि आपने प्राकृतिक चिकित्सा के अनेक प्रयोगों से कई लोगों को ठीक किया है, लिहाजा मुझे भी कुछ उपाय बताइए। इस चिट्ठी को यह कहते हुए महादेव देसाई ने फाड़ दिया कि ऐसी चिट्ठियों का जवाब आप कब तक देते रहेंगे? सरदार पटेल भी साथ बैठे थे, जिन्होंने हंसी मजाक करते हए कहा कि अरे लिखो न कि उपवास कर, काशीफल खा और भाजी खा। इन बातों को सुन गांधीजी खूब हंसे और बाद में महादेव देसाई से कहा कि वे इस पत्र का जवाब जरूर देंगे। जवाब में उन्होंने उन सज्जन को कहा कि वे तीन दिन उपवास करने के बाद दूध और संतरे के रस से उपवास तोड़ें।
विख्यात योगी योगानंद परमहंस गांधीजी से २६ अगस्त १९३५ को मिलने पहुंचे। यह गांधीजी के मौन का दिन था। गांधीजी ने एक कागज पर स्वागत है लिख कर उनसे संवाद किया। मौन टा तो गांधीजी ने कई बातों के साथ उनको यह बताया कि अपने पत्र व्यवहार के लिए उचित समय निकालने के लिए कई साल पहले सप्ताह में एक दिन उन्होंने मौन रखना आरंभ किया है।
गांधीजी पत्र लिखने को एक कला मानते थे और कहते थे कि मझे पत्र लिखना है और उसमें सत्य ही लिखना है तथा प्रेम उड़ेल देना है। अगर ऐसा सोच कर लिखने बैठोगे तो संदर पत्र लिखोगे। कुछ साल पहले तारा गांधी भट्टाचार्य ने अपने दादा महात्मा गांधी और नाना चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की चिट्ठी लेखन कला के बारे में कुछ रोचक जानकारियां साझा कीं। उनका कहना था कि वे न केवल चिट्ठी अपने हाथ से लिखते थे बल्कि लिफाफे पर खुद ही टिकट लगाते थे। छोटे से छोटे पत्र का जवाब तुरंत साधारण कागज या पोस्टकार्ड पर देने का प्रयास करते थे। पत्रों में वे संबंधित व्यक्ति की हाल खबर के साथ स्वास्थ्य के बारे में जरूर खबर लेते। अगर किसी की लिखावट अच्छी नहीं होती थी तो गांधीजी उसे सुधारने पर भी जोर देते। वे परिवार के सदस्यों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनेताओं, विश्व की बड़ी हस्तियों, लेखकों और विद्वानों के साथ अपने करीबी दोस्तों को एक जैसे ही कागज पर लिखते थे
महात्मा गांधी ने शांति, अहिंसा, सहिष्णुता और सद्भाव का जीवन भर प्रचार किया। इससे उन्होंने भारत के महान स्वतंत्रता संघर्ष को चमत्कारिक रूप से प्रेरित ही नहीं किया बल्कि दुनिया में नागरिक अधिकार आंदोलनों को भी एक नयी शक्ति दी। उन्हें जन समर्थन हासिल करने में सफलता मिली क्योंकि उनमें अभिव्यक्ति का कौशल छिपा था। वे भली भांति जानते थे कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों तक पहुंचने के लिए सदियों पुरानी मौखिक परंपराओं का सहारा लेना जरूरी है। इन परंपराओं में सार्वजनिक व्याख्यान, प्रार्थना सभाएं और पद यात्राएं शामिल थीं। अहिंसा, सत्याग्रह और सत्यनिष्ठा की बेजोड़ तकनीक के जरिए आजादी हासिल करने के लिए गांधीजी ने संचार के सभी उपलब्ध साधनों का इस्तेमाल किया, जिसमें चिट्ठियां खास थीं। वे अखबारों को पढ़ते थे और किसी गलत बयानी या तथ्यों को गलत ढंग से पेश किए जाने पर तुरंत चिट्ठी लिख कर जवाब देते थे। उन्होंने परंपरागत और आधुनिक दोनों ही तरह के संचार माध्यमों का प्रभावकारी इस्तेमाल किया1
भारत के दो बड़े दिग्गजों गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर और गुरूकुल कांगड़ी के संस्थापक महात्मा मुंशीराम के साथ उनका संबंध वाया सीएफ एंड्रयूज चिट्ठी से ही बना था। गांधीजी और गुरुदेव के बीच काफी काफी लंबा पत्राचार चला। दोनों आमने सामने मिले इसके पहले चिट्ठियों के जरिए मिल चुके थे और इतनी प्रगाढ़ता स्थापित हो गयी थी कि उनके फीनिक्स आश्रम के बच्चे दक्षिण अफ्रीका से शांति निकेतन में गुरुदेव की छत्रछाया में भी रहे। गांधीजी के कई प्रयोगों को शांति निकेतन में भी उतारा गया और कुछ खारिज भी किया गया। १९१७ में कोलकाता कांग्रेस के दौरान गांधीजी ने गुरुदेव के घर पर उनकी विख्यात रचना पोस्ट आफिस नाटक के मंचन के मौके पर मौजूद थे। हालांकि गुरुदेव गांधीजी के बहुत से विचारों से असहमत थे फिर भी गहरे निजी संबंध हमेशा कायम रहे। जब १९४१ में गुरुदेव रोगशैय्या पर जिंदगी और मौत से जूझ रहे थे तो गांधीजी ने उनका हालचाल जानने महादेव देसाई को अपनी चिट्ठी के साथ भेजा। गुरुदेव उस दौरान बेहद कमजोर हो गए थे। उनको न कुछ ठीक से दिखाई देता था न सुनाई। गांधीजी की चिट्ठी उनको सुनाई गई तो वे इतने द्रवित हुए कि आंखों से आंसू बह निकले। गुरुदेव के निधन के बाद भी शांति निकेतन और वहां की हस्तियों के साथ गांधीजी का व्यक्तिगत रिश्ता बना रहा।
इसी तरह हरिद्वार के गुरुकुल कांगड़ी और उसके संस्थापक महात्मा मुंशीराम के साथ गांधीजी का विशेष संबंध २१ अक्तूबर १९१४ को लिखी चिट्ठी के माध्यम से बना तो जीवन भर कायम रहा। गांधीजी को दक्षिण अफ्रीका में मदद के लिए गुरुकुल के ब्रह्मचारियों ने १०० रुपए की राशि भेजी थी। गांधीजी १९१५ से १९२६ के बीच तीन बार गुरुकुल पधारे और उसके पहले उनके फीनिक्स आश्रम के विद्यार्थी दो माह तक वहां रहे। गांधीजी की आखिरी गुरुकुल यात्रा २१ जून १९४७ को हुई थी। महात्मा मुंशीराम संन्यास लेकर स्वामी श्रद्धानंद के नाम से विख्यात हुए और आजादी के आंदोलन के अग्रणी नेता रहे। तमाम मुद्दों पर गांधीजी से गहरा मतभेद होने के बाद दोनों में नजदीकियां बहुत थीं। कुछ साल पहले गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार ने महात्मा गांधी और गुरुकुल नाम से ५८० पेज की एक पुस्तक छापी है जिसमें मुख्य आधार गांधीजी, स्वामीजी और गुरुकुल के अन्य आचार्यों और उनके परिवारीजनों के बीच का पत्राचार हैं1
इन चिट्ठियों में एक में गांधीजी की नाराजगी भरी चिट्ठी भी है। १९३६ में डाह्यालाल जानी नामक एक व्यक्ति ने गुरुकुल के प्राचार्य आचार्य देव शर्मा से गांधीजी ने नौकरी की सिफारिश की थी लेकिन जल्दी ही गांधीजी को उनकी अयोग्यता का भान एक पत्र देख कर हो गया। गांधीजी ने डाह्यालाल जानी को काफी लताड़ी लगाते हुए लिखा कि
..तुमने आरंभ से ही पत्र में असत्य लिखा है। तुमने मेरे सामने नम्रता का पालन करने का फैसला किया था। लेकिन तुममें आवश्यक ज्ञान नहीं है, यह सिद्ध हो चुका है। पत्र की तमाम खामियों को उजागर करते हुए गांधीजी ने लिखा कि देव शर्मा तो तुम्हें लेने को तैयार हो गए थे। लेकिन तुम्हारा पत्र ही तुम्हारी अयोग्यता सिद्ध करता है। तुमने शिक्षणशास्त्र की तीन परीक्षाएं कहां से पास की हैं?'
पंडित जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी की पहली मुलाकात लखनऊ कांग्रेस के दौरान १९१६ में क्रिसमस के दिन हुई। उसके चार साल पहले २७ वर्षीय नेहरू इंग्लैंड से पढ़ाई कर भारत लौटे थे। उम्र में गांधीजी उनसे २० साल बड़े थे। लेकिन काफी समय के बाद धीरे धीरे पंडित नेहरू गांधीजी के इतने करीब आ गए कि नेहरू के जीवन का कोई व्यक्तिगत पहल गांधीजी से छिपा नहीं रहा। अपने पत्रों से भी अधिक स्नेह वे नेहरू को देते थे। उनको लिखी गांधीजी की तमाम चिट्ठियां बताती हैं कि उनके बीच कई मौकों पर संबंध ठीक नहीं थे। फिर भी ये चिट्ठियां उनको सामान्य बनाती रहीं। चिट्ठियों की बदौलत तमाम कठिन मौके पर वे पंडित नेहरू का मार्गदर्शन करते रहेयही नहीं पंडित नेहरू की इंदिरा गांधी की चिट्ठियों पर आधारित पुस्तक को हिंदी में छापने की सलाह भी गांधीजी ने ही दी थी। गांधीजी ने ही चिट्ठियों के जरिए पंडित मोतीलाल नेहरू और जवाहर लाल नेहरू यानि पिता पुत्र के बीच के संबंधों को सामान्य कराने में मदद की।
गांधीजी पंडित नेहरू के राजनीतिक जीवन के प्रकाश पुंज थे। समय समय पर वे जरूरी सीख उनको देते रहे। १५ जुलाई १९३६ को सेगांव यानि सेवाग्राम से जवाहरलाल नेहरू की एक चिट्ठी का जवाब देते हुए उनको काफी सीख दी। उस दौरान नेहरू कांग्रेस के अपने कई साथियों के आचरण से काफी विचलित थेगांधीजी ने उनको लिखा...
'तुम्हारे साथियों में तुम जैसी बेबाकी और साहस नही है, इस नाते इसके परिणाम विनाशकारी रहे हैं। मैने उनको हमेशा समझाया है कि वे तुमसे उन्मुक्त और निर्भय होकर बात करें, लेकिन उनमें ही साहस नहीं है इसलिए वे जब भी बोलते हैं, ऊटपटांग ही बोलते हैं और उससे तुम चिढ़ कर उनके सामने धैर्य खो जाते हो। वे तुम्हारी फटकार और साहबी अंदाज से आहत हैं और तुममे जो अचूकता और श्रेष्ठतर ज्ञान का भाव दिखायी दिता है उससे वे परेशान हैं। उनको लगता है कि तुमने उनके साथ न्यूनतम सौम्यता का व्यवहार भी नही किया है और कभी भी समाजवादियो के व्यंग्यबाणों या गलत निरूपण से उनका बचाव नहीं किया।'
इस चिट्ठी में गांधीजी ने पंडित नेहरू को इस बात की याद दिलायी मैने ही काटों के ताज (कांग्रेस अध्यक्ष बनने के लिए) के लिए तुम्हारा नाम प्रस्तावित किया थाभले ही सिर छिल जाए लेकिन इसे उतारना मत। कमेटी की बैठकों में अपना हास्य विनोद दोबारा दिखाओ।...चिड़चिड़ा स्वभाव तुम पर नहीं जंचता है।..अपने कंठ को थोड़ा आराम दो।'
जीवन के आखिर तक गांधी और नेहरू का संवाद लगातार कायम रहा। तमाम गफलतों को दूर करने का कारक ये पत्र ही बने। वे गांधीजी का भरोसा कायम रखने में पत्रों की बदौलत सफल रहे। पंडित नेहरू जब ५० साल के हुए तो १४ नवंबर १९३९ को गांधीजी ने उनको आशीष देते हुए लिखा कि आशा है तुम शेष ५० भी पूरे करोगे और यही शक्ति, स्पष्टवादिया और प्रबल प्रामाणिकता कायम रखोगे। ३० जनवरी १९४८ को गांधीजी जी की शहादत हुई। लेकिन जवाहर लाल नेहरू को उन्होंने आखिरी चिट्ठी १८ जनवरी १९४८ को लिख कर सलाह दी कि थी कि वे उपवास छोड़े। ..इस छोटी सी चिट्ठी में आखिर में पंडित नेहरू को आशीष देते हुए गांधीजी ने लिखा कि तुम बहुत साल जिओ और हिद के जवाहर बने रहो