समय-सन्दर्भ - गाँधी : ब्रह्मचर्य और स्त्री-प्रसंग - डॉ. सुजाता चौधरी -

डॉ. सुजाता चौधरी - शिक्षा : एम.ए (द्वय) (राजनीतिशास्त्र, इतिहास), एल.एल.बी., पी-एच.डी., पत्रकारिता में डिप्लोमा। प्रकाशन : सैकडों पत्र-पत्रिकाओं में लेख और कहानियाँ प्रकाशित। प्रकाशित रचनाएँ : छ: उपन्यास तीन कहानी संग्रह, सात पुस्तकें गांधी पर। अन्य अनेक पुस्तकें प्रकाशित। सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन एवं सामाजिक कार्यकर्ता।


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हम गांधी पर आक्षेप क्यों लगाते हैं? क्या सिर्फ इसके लिए क्योंकि वे हमें अधिक समीप लगते हैं, जैसा कि एनी बेसेंट ने बनारस की सभा के बाद कहा था। आप लोग सब इस बात को जानते हैं, उस समय दक्षिण अफ्रीका से गांधी नए-नए भारत आए थे। हीरे और जवाहरात से सुसज्जित राजाओं और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपना क्रांतिकारी भाषण दे रहे थे। छात्रों की भीड़ तालियों की गड़गड़ाहट के साथ गांधी को और सुनना चाह रही थी। देशी रियासत के राजा असहज हो रहे थे क्योंकि उन्हें अंग्रेजी हुकूमत के प्रति अपनी आस्था में कमी दिखने का डर लग रहा था। एनी बेसेंट ने भी उन राजाओं से वादा किया था कि वहां ऐसी कोई बात नहीं होगी जिससे आपकी प्रतिबद्धता प्रभावित हो। गांधी को रोकना मुश्किल था, आयोजक एनी बेसेंट की अपनी कमेंटमेंट थी। वे सभा से बाहर निकल गईं। उस मौके पर पत्रकारों ने उन्हें घेर लिया- गांधी महान हैं या टॉलस्टॉय? एनी बेसेंट रुष्ट होकर निकली थी, किंतु उनका जवाब था-नि:संदेह गाँधी। एक साहित्य रचना को छोड़कर गांधी टॉलस्टॉय से बहुत आगे हैं, टॉलस्टॉय ने जो लिखा है, गांधी ने उसे भोगा और जीया है। लेकिन हम भारतीय उनकी आलोचना सिर्फ इसलिए करते हैं क्योंकि वे पास हैं और टालस्टॉय दूर।


    ___ क्या सिर्फ यही कारण है? महान चिंतक रोम्यां रोलां कहते हैं- गाँधी जी बहुत ऊँचे संत हैं। बड़े ही पवित्र और उन वासनाओं से मुक्त जो मनुष्य में सुप्त पड़ी रहती है।


    फिर हम ऊँचे संत को इतने नीचे गिराने का यत्न क्यों करते हैं? क्या हम लोग उनकी महानता की कीमत वसूल करते हैं या हम लोग नादान हैं? महापुरुष की विराट बातों को जो हमारे संकीर्ण मस्तिष्क में नहीं समा पाती, उस पूर्ण सत्य को नहीं देख पाती। न वह बुद्धि है और न दृष्टि। संपूर्ण पक्ष के किसी एक कोण को देखकर उसे ही सत्य मानकर लेखनी और वाणी का इस्तेमाल करने लग जाते हैं।


    अविकारी गांधी जिनका जीवन ही सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य था, उस पर स्त्रियों के प्रति उनके सहज प्रेम और उनकी संवेदनशीलता को लेकर कितने काम पिपासु को उस पर चटकारे लेकर मर्यादा विहीन बातों को सुनकर मन लज्जा और क्षोभ से भर जाता है।


    ब्रह्मचर्य गांधी की दृष्टि में मोक्ष का द्वार था और मोक्ष के द्वार में प्रवेश करने के लिए वे सदा आग्रही रहे। ब्रह्मचर्य में उनकी होड़ शुकदेव से थी। वे अविकारी बनने के लिए उसी तरह प्रयासरत थे जैसा शुकदेव का वर्णन किया गया है। श्रीमद्भागवत में वर्णन है-शुकदेव आगे आगे जा रहे हैं, उनके पीछे-पीछे व्यास देव उनके पिता उन्हें पुकार रहे थे। उस समय नदी में कुछ स्त्रियां स्नान कर रही थी उन स्त्रियों ने शुकदेव को जाते देखा तो स्नान करती रही, लेकिन जैसे ही व्यास देव पर नजर पड़ी, उन्होंने अपने कपड़े पहन लिए। व्यासदेव ने आश्चर्यचकित होकर सवाल पूछा- तुमने मेरे युवा पुत्र को देखकर तो अपने कपड़े नहीं पहने और मुझे देखकर क्यों शरमा गई? उन स्त्रियों ने जवाब दिया- आपके पुत्र अविकारी हैं, उन्हें देखकर मेरे मन में कोई विकार आया ही नहीं। गांधी भी ऐसे ही अविकारी थे और ऐसा बनने के लिए वे अपने को लगातार कसौटी पर कसते रहे। इसी से तो चाहे मनु गांधी हो या विनोबा, गांधी उन्हें बापू कम और माँ अधिक दिखाई पड़ते थे।


    गांधी की दृष्टि में ब्रह्मचर्य का अर्थ स्त्री जाति को अपमानित करने का नहीं था। जैसा कि ब्रह्मचारी साधु को प्रायः देखती हूं। वृन्दावन की बात है, श्री रसिक बिहारी मंदिर में एक साधु बैठा था। उसी समय एक स्त्री मंदिर में दर्शन के लिए आई, उसके साड़ी का आंचल हवा में लहराकर उस साधु का स्पर्श कर गया, उसको पता भी नहीं चला। वह आगे बढ़ गई, पीछे साधु चिल्ला रहा था-मुझे तुरंत स्नान करना पड़ेगा, स्त्री की साड़ी से मेरा स्पर्श हो गया। कुछ श्रद्धालुओं में उनके ब्रह्मचर्य के तेज के प्रति श्रद्धा भी बढ़ रही थी, दुख की बात यह लगी, श्रद्धालुओं में स्त्री भी थीं।


  गोवर्धन में एक महात्मा थे, बड़े भारी महात्मा। एक अपनी पुत्री को छोड़कर किसी दूसरी स्त्री का मुख नहीं देखते थे। अब स्त्रियों का उद्धार कैसे हो? एक रास्ता निकाला गया, बहुत दूर तक पर्दे के घेरे लगाए गए कि स्त्रियां दूर से दर्शन कर कृतकृत्य हो जाएँ पर उनकी दृष्टि स्त्रियों पर नहीं पड़नी चाहिएबड़ी संख्या में स्त्रियां धन्य होने के लिए आती रहती थीं।


    गांधी का ब्रह्मचर्य ऐसा नहीं था। गांधी के ब्रह्मचर्य का अर्थ था-ब्रह्म को पहचानने का मार्ग और इंद्रियों का निग्रह। मुख्यतः स्त्री अथवा पुरुष द्वारा मन वचन और काया से विषय भोग का त्याग।


    ___ गांधी के ब्रह्मचर्य के प्रयोग की चर्चा की जाती रही है। गाँधी को समझने वाले लोग भी उनके इस प्रयोग पर मौन होते देखे जाते हैं और साथ ही साथ असहज भी। दरअसल ऐसा इसलिए है कि हम सत्य को संपूर्णता में नहीं देखकर टुकड़े-टुकड़े में देखते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कोई हाथी की पंछ को देखकर मान लेता है कि हाथी रस्सी जैसा होता है। गांधी के ब्रह्मचर्य के पहले उनके एकादश व्रतों के अन्य प्रयोग भी देखने होंगे- सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, सर्वधर्म समभाव, निर्भयता, शारीरिक श्रम, स्वदेशी, अस्तेय।


    सत्य-असत्य नहीं बोलना या उसका आचरण न करना ही सत्य का अर्थ नहीं किया, सत्य को ही अपना परमेश्वर बना लिया। जो लोग उन्हें अपना शत्रु मानते थे, वे भी उनकी सत्यता पर अटूट विश्वास करते थे। उनका जीवन ही सत्य का प्रयोग था। अहिंसा की कसौटी पर भी अपने आप को हर क्षण कसते रहे। सभी के प्रति समभाव रखने की कोशिश से एक क्षण नहीं डिगे। चौरा-चौरी कांड के बाद सभी नेताओं के विरोध के बावजूद आंदोलन वापस लेना उसी कसौटी पर अपने आपको कसना ही था- पूरी दुनिया विरोधी हो जाए, लेकिन अहिंसा मार्ग को छोड़ना नहीं है।


    अस्वाद व्रत-जिसकी चर्चा बहुत कम सुनाई देती है कोई भी व्यक्ति इस प्रयोग की बात नहीं करता जो सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक लगता है जिसके लिए वे कितने आग्रहशील थे। गांधी का मानना था जिसने स्वाद को नहीं जीता, वह विषयों को नहीं जीत सकता है। स्वाद व्रत को वे ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक मानते थे। इस व्रत में स्वाद के लिए भोजन करने पर निषेध है। गांधी के जीवन में अस्वाद का प्रयोग भी एक अनूठी चीज है,यह संयम की पराकाष्ठा है। ढाई सौ ग्राम उबली हुई भिंडी में ढाई सौ ग्राम दूध मिलाकर खाने वाले संत की चर्चा करने में ठाकुर के भोग के नाम पर छप्पन भोजन करने वाले साधुओं को डर लगता है। गांधी ने अस्वाद के प्रयोग पर भी अपने को खूब कसा।


    अस्तेय-आवश्यकता से अधिक लेना चोरी है। इस प्रयोग को करते-करते गाँधी आवश्यकता से कम पर अपने आप को ले आए।


    अपरिग्रह के बारे में हम सब जानते हैं, कस्तूरबा ने अपने बच्चों के लिए एक-दो सौ रखने चाहे तो गांधी जी ने उस बात को सार्वजनिक कर दिया और अपरिग्रह के प्रयोग को पूरी तरह अपने जीवन में आत्मसात कर लिया।


    स्वदेशी भी उनके एकादश व्रत में से एक कसौटी है, जिस पर उन्होंने गुरुदेव तक का विरोध सहन किया और लंकाशायर के मजदूरों के बीच अपने जीवन को खतरे में डालते हुए गए। यह अलग बात है कि लंकाशायर के मजदूरों को उनकी निश्छलता और सत्यता इतनी भा गई कि वे सभी उनके फैन बन गए। जबकि गांधी के आह्वान पर विदेशी कपड़ों के बहिष्कार से लंका शायर में भयंकर बेरोजगारी हो गई थी।


     एकादश व्रत की ही एक  कसौटी है - अभय। जवाहरलाल नेहरू जब अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी से मिले तो उन्होंने जो सबसे पहला प्रश्न किया कि आप गांधीजी के किस गुण से सबसे अधिक....., नेहरू ने बीच में ही टोका-उनकी निर्भीकता और अभय। गांधी अपने को निर्भीकता की कसौटी पर कसते-कसते अभय हो गए थे। वे अभय को ईश्वर पर विश्वास की प्रथम सीढ़ी मानते थे, तभी तो आजीवन अभय धर्म पर आरूढ़ रहे।


    अस्पृश्यता की कसौटी के बारे में सबको पता है, सफाई कर्मी का काम करना उन्हें कितना प्रिय था परन्तु इसकी भी चर्चा नहीं होती। कोई नहीं करता न आलोचक और न अनुयायी। सर्वधर्म समभाव-गीता रामायण उनके जीवन का संगीत था, राम उनके हृदय सिंहासन पर विराजमान और वे उनके अनन्य भक्त। किंतु उन्होंने आजीवन इसका प्रयोग किया और सभी धर्मों को उतना ही मान दिया जितना अपने धर्म को।


    और अब बात, ब्रह्मचर्य के प्रयोग की जिसकी चर्चा हर कोई करता है। कई गांधीवादियों के मुख से भी सुना है -यह समझ से परे है। उनसे मेरा विनम्रता पूर्वक कहना है कि समझ से परे इसीलिए है क्योंकि हम गांधी को एकादश व्रत की सभी कसौटियों पर कसते हुए नहीं देख पा रहे हैं, यानी संपूर्ण को नहीं टुकड़े को देख रहे हैं।


    गौर करने वाली बात है कि वे ब्रह्मचर्य का प्रयोग कहां कर रहे हैं? दावानल की गोद में, नोआखाली में-जहां चारों ओर नफरत की आंधी बह रही है, हिंसा की परकाष्ठा है। हमें ऐसा प्रतीत होता है जैसे श्री कृष्ण ने महाभारत के समय कुरुक्षेत्र के मैदान में गीता जैसे महादर्शन को पूरी दुनिया को दिया। युद्ध के मैदान में श्री कृष्ण कहते हैं- सुख-दु:ख में सम रहो, क्रोध नरक का द्वार है, कैसे समझें लोग कि क्रोध नहीं होगा तो कोई कैसे किसी को मार सकता है? ठीक वैसे ही नोआखाली में जब उन्हें महसूस हो गया कि नोआखाली ही अब उनकी अंतिम प्रयोगशाला है तो उन्होंने प्रयोग की कसौटी की आंच तेज कर दीदंगा क्या है? जहां सारे संयम टूट जाते हैं। गांधी ने समझ लिया कि नोआखाली की प्रयोगशाला में संयम के शिखर पर जाना होगा और उन्होंने एकादशों व्रत के प्रयोग को कसौटी पर चढ़ा दिया। उसी में से एक प्रयोग ब्रह्मचर्य भी था।


    उस समय भी जिन लोगों ने इसे टुकड़े में देखा था, उन्हें गांधी ने कहा था-ब्रह्मचर्य अब मेरे लिए प्रयोग नहीं रहा, मेरे यज्ञ का अभिन्न अंग बन गया है। व्यक्ति प्रयोग को छोड़ सकता है पर कर्तव्य का त्याग नहीं कर सकता, भले ही लोग विरुद्ध हो जाएं। मैं आत्मशुद्धि के कार्य में लगा हुआ हूँ। मेरे इस आध्यात्मिक प्रयत्न के ये सभी स्तंभ हैं। यदि एक से पीछे हटता हूं तो न सिर्फ ब्रह्मचर्य से बल्कि सत्य और अहिंसा का भी त्याग हो जाएगा। यदि मैं ब्रह्मचर्य प्रयोग में शिथिलता बरतता हूँ तो क्या इससे मेरा ब्रह्मचर्य ठित नहीं हो जाएगा और सत्य का आचरण दूषित नहीं होगा?


    गांधी अभय थे। उन्होंने खलेआम घोषणा कर दीसुधारक के लिए अन्य लोगों के विचार बदलने तक रुके रहना संभव नहीं है, उसे तो मौका मिलने पर सारी दुनिया के विरोध के बावजूद आगे बढ़ना होगा। मुझे वैसा ब्रह्मचारी मान्य है जिसका मन काम वासना से मुक्त है, जो परमात्मा का निरंतर चिंतन करते हुए ऐसी अवस्था में पहुंच गया है कि जो सुंदर से सुंदर स्त्री के साथ नग्न लेटने पर भी कामोत्तेजित न होता हो। ऐसा व्यक्ति वही हो सकता है, जो मिथ्या भाषण न करे। संसार में किसी भी व्यक्ति का अहित चिंतन भी नहीं करे, अहित करने की बात तो दूर। जो क्रोध और द्वेष की भावना से सर्वथा मुक्त हो और भगवत गीता में बताए अनुसार अनासक्त हो, वही व्यक्ति ब्रह्मचारी है।


    लेकिन हमें गांधी के विचार के अनुसार यह भी समझना होगा कि मानवता एक महासागर है। यदि महासागर की कुछ बूंदे गंदी हो जाएं तो सारा महासागर गंदा नहीं हो जाता।


    ___ इतिहास की दृष्टि से गांधी की मृत्यु हुए सिर्फ इकहत्तर साल हुए हैं और यह एक बहुत छोटा काल है। ईसा को तो लोगों ने २०० साल बाद अपनाया। आने वाली पीढ़ियां भी क्या हमें माफ कर पाएंगी कि हमने उस आश्चर्यजनक मसीहा को इसलिए मार दिया कि वह अपने दुश्मन से भी प्यार करता था, दो भाइयों के बंटवारे की संधि के उल्लंघन को गलत मानता था। स्त्रियों को भी मानव समझने का पैरोकार था। वह इंसान द्वारा निर्मित किसी भी अंतर ऊंच-नीच भेदभाव को गलत मानता था, वह पूरी दुनिया से प्रेम करता था, वह दुनिया के सभी धर्मों में सम्मान और श्रद्धा रखता था, वह सत्य का उपासक था, वह मन वचन कर्म से ही एक था, जो इतना अपरिग्रही था कि सेवा के लिए अपना सर्वस्व लुटा दिया। जिसने अस्वाद व्रत के पालन करने के लिए अपनी स्वादेन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली, वह इतना अभय था, पूरी दुनिया में किसी से नहीं डरता था-चाहे विश्व का अधिनायक हो या भयानक वन्य प्राणी और अंत में वह ऐसा ब्रह्मचारी था जो स्त्री और पुरुष को समानता का सम्मान देता हुआ दोनों के परस्पर संबंध को नैसर्गिक मानता था।


                                                            सम्पर्क : घूरन पीर बाबा कचहरी चौक, भागलपुर, बिहार मो.नं. : 9431871677